संविधान में स्वतंत्रता की झलक

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विश्व का सबसे बड़ा संविधान और उसकी गरिमा किसी से छुपी नहीं है। इस संविधान को बनाने के लिए कितने लोगों ने दिन-रात एक किए, सबकी बुद्धियां लगी हैं इसमें। सब ने अपने-अपने ढंग से एक-एक व्यक्ति का ध्यान रखते हुए उसकी गरिमा और उसकी स्वतंत्रता, उसके हित, उसके सुख को सर्वोेपरि रखा। उसके आधार से संविधान का निर्माण किया। लेकिन जब हम हित और सुख की बात करते हैं तो ज्य़ादातर आज हमारा सारा जो विश्व है उस एक बात को लेकर आमादा है, वो है खुद को सर्वोपरि समझना, संविधान से अपने आपको ऊपर मानना और संविधान में लिखी गई बातों को दूसरे तरीके से सबके सामने रखना।
जब हम आज़ादी के 75 वर्ष मनाएंगे इस बार तो उस 75 वर्ष के इतिहास को क्या इस तरह से पेश करना उचित है, जिसमें हर धर्म अपने आपको सर्वोपरि मानें और दूसरे धर्मों को निचा दिखाये! तो उसमें तो एक धर्म परतंत्र हो गया और दूसरा स्वतंत्र हो गया। सबको समान अधिकार दिया गया है। सबको एक जैसी मान्यतायें दी गई हैं। सबके हितों का अगर ध्यान रखा गया तो सर्व की स्वतंत्रता सर्वोपरि होनी चाहिए। कहते हैं कि एक शिनाख्त की गरज से या पहचान की गरज से हम सबका शरीरों के आधार से बंटवारा किया लेकिन हैं तो सारे एक ही परमात्मा की संतान या खुदा के बंदे। और जो हमारी रूह है जिसका मूल स्वभाव है स्वतंत्रता, स्वतंत्र होकर रहना। इसीलिए वो यहाँ भी हर चीज़ में अपने आप के लिए स्वतंत्रता ढूंढती है। क्योंकि जो हमारे अन्दर की नेचर होती है, वही हमको बाहर चाहिए होता है।
आज समाज में इतनी सारी वैमनस्यता की स्थिति है। सभी एक-दूसरे को हर कदम-कदम पर दु:ख पहुंचाने की कोशिश करते हैं। कहा जाता है कि स्वर्णिम भारत का सपना सरकार देख रही है और हम सभी भी उसमें सहयोगी तभी बनेंगे जब स्वर्णिम भारत को लाने के लिए स्वर्णिम सोच भी हो। और स्वर्णिम सोच में एक धर्म, एक भाषा, एक राज्य, एक कुल और एक मत होता है, अलग-अलग नहीं होते। सभी, सभी का ध्यान रखते हैं और सबसे पहले स्वयं को रखते हैं। स्वतंत्रता सुखदाई होती है। सुखदाई इस तरह से अगर मैं स्वतंत्र हूँ तो दूसरे को स्वतंत्र देखना चाहूँगा। लेकिन आज आत्मा बंधी हुई, बेडिय़ों में जकड़ी हुई है, किसके? रंग के, भाषा के, धर्म के, कुल के, मत के अलग-अलग बेडिय़ां हैं जिसमें वो जकड़ के अपने आपको एक तरह से उन दायरों में लेकर चली गई है जिनके बारे में हमने कभी सोचा भी नहीं था और सोचना भी नहीं चाहिए था। लेकिन आज की मनोस्थिति है, मनोदशा है, उस स्थिति-परिस्थिति को देखकर लगता है कि सबसे पहले सभी के अन्दर इस भाव को जगाने की अति-अति आवश्यकता है कि हम सभी एक छत्र राज्य अगर चाहते हैं तो सभी को जैसे आसमान हमारा एक छत है उस आसमान से परे एक दुनिया है परमधाम, जिसको हम सातवां आसमान भी कहते हैं। उस सातवें आसमान में जो हमारे सभी धर्म, हम सभी आत्मायें हैं, वो चाहे किसी भी धर्म का हो किसका पिता रहता है वो चाहते हैं कि हम सभी एक धर्म के नीचे रहें। और वो धर्म है शान्ति का धर्म, प्रेम का धर्म, शक्ति का धर्म। शांति, प्रेम और सौहार्द ये मनुष्य की आंतरिक स्थिति है और ये परमात्मा इसके सागर हैं। परमात्मा चाहते हैं कि इस आंतरिक स्थिति में अगर हम एक-दूसरे के साथ जीयेेंगे तो निश्चित रूप जो भी आज की सबसे विकट समस्या है, उसका समाधान हो सकता है। इस दुनिया में कोई भी समस्या का समाधान हम दूसरे तरीके से खासकर इस समस्या का समाधान नहीं कर सकते। क्योंकि शरीर के आधार से जब से धर्मों का बंटवारा हुआ लोग अपने को श्रेष्ठ और दूसरे को निकृष्ट दिखाने की कोशिश कर रहे हैं।
परमात्मा आकर सबको एक समान भाव रखने की बात सीखा रहे हैं, और ये स्वतंत्रता का जो कार्य है ये निश्चित 1936 से चल रहा है। इसमें जितने भी अलग-अलग तरह की हमारी धारणायें और मान्यतायें रहीं हैं, सबके प्रति उसको तोडऩे का कार्य परमात्मा कर रहे हैं। क्योंकि वो बहुत लम्बे समय से चली आ रही है। तो एक सैद्धान्तिक रूप से हम इसे मानते हैं कि इस बार 15 अगस्त है, इस बार 26 जनवरी है तो इस बार स्वतंत्रता दिवस मनायेंगे, झंडा फहरायेंगे लेकिन झंडा और स्वतंत्रता का सही मतलब परमात्मा ने आके बताया कि जब व्यक्ति सम्पूर्ण रूप से सुखदाई हो जाये सबके लिए और आज की स्थिति-परिस्थिति आपके सामने छुपी नहीं है। तो ये कार्य इतने समय से चल रहा है कि हम शरीर नहीं हैं। और जैसे ही हम अपने आपको शरीर समझते हैं तो दु:खों की शुरूआत होती है। रूह समझते हैं, रूहानियत के साथ जीते हैं। तो उसमें एक अलग तरह का सुरूर(नशा) होता है, एक अलग तरह का एहसास होता है और एक उल्फत पैदा होती है सबके लिए, अच्छे भाव पैदा होते हैं सबके लिए वो स्वतंत्रता के सही मायने को दर्शाती है।
तो चाहे छोटे स्तर से ही शुरू करें, लेकिन शुरू करना चाहिए। क्योंकि आज़ादी का 75वां वर्ष हमारे सामने है। और हमको कुछ ऐसे बिन्दु भी सबके सामने रखने हैं जिससे सब एक बार पढ़ के, सुन के एक बार सोचें तो सही कि निश्चित रूप से हमने कार्य किया है। लेकिन आज हर कोई हमसे डर रहा है कि ये इस धर्म के हैं, ये इस धर्म के हैं। वो सारे धर्मों से ऊंचा श्रेष्ठ धर्म है शांति का धर्म, प्रेम का धर्म, सौहार्द का धर्म और इस धर्म को लाने का सिर्फ एक मात्र माध्यम है, वो है परमात्मा के बच्चे बनकर कार्य करना, एक पिता की संतान होकर कार्य करना। क्योंकि पिता हमें इन सारी चीज़ों के साथ जि़ंदा रहना सिखाता है। लेकिन आज चाहे कोई भी कारण बन रहा हो इसका, चाहे मीडिया कारण बन रही है, चाहे कोई और-और कारण बन रहे हैं, जो अभी हमारे अन्दर मान्यतायें हैं उसको तोड़कर, एक बार हाथ से हाथ मिलाकर हम सभी चाहते हैं कि फिर से स्वर्णिम दुनिया हो और एक धर्म, एक राज्य, एक भाषा, एक कुल और एक मत हो तो हम सभी को एक होकर कार्य करना ही पड़ेगा। और वो चीज़ हमारे लिए हमेशा के लिए कायम रहेगी। ये है सच्ची स्वतंत्रता के साथ न्याय, जो संवैधानिक रूप से भी सत्य होगी और ईश्वरीय संविधान के आधार से भी सत्य होगी क्योंकि ईश्वरीय संविधान में जो हमारे चरित्र होंगे, चित्र होंगे, जो हमारे अन्दर के भाव होते हैं उसी के आधार से स्थूल रूप से संविधान का निर्माण होता है और हुआ है। नहीं तो इतने सारे लॉ और इतने सारे आर्टिकल्स नहीं लिखते, मतलब अनुच्छेद। आर्टिकल का अर्थ यहाँ अनुच्छेद नहीं लिखते। हम स्वतंत्रता की बात नहीं करते थे, क्योंकि आत्मा अपने आप में उस चीज़ को फील नहीं कर पाती थी। लेकिन अब वो कार्य सहजता से परमात्मा हम सबके द्वारा कर रहे हैं तो सच्ची स्वतंत्रता को इस आधार से फील कर सकते हैं और सबको करा भी सकते हैं।

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