वैराग अर्थात् कहाँ भी हमारी रग न जाये – राजयोगिनी ब्र.कु.जयंती दीदी,अतिरिक्त मुख्य प्रशासिका,ब्रह्माकुमारीज़

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गहराई से सोचते हैं कि कोई मनुष्य का संबंध है, उसका कनेक्शन होता लेन-देन। क्या दिया और क्या लिया, चाहे इस जन्म का, चाहे पूर्व जन्म का। कुछ भी हो। परंतु दूसरे शब्दों में लेन-देन को कहेंगे कर्मों का हिसाब-किताब।
जैसा कि पिछले अंक में आपने पढ़ा कि आप ये भी कॉन्ट्रास्ट देखो कि पहले हमारी स्थिति क्या थी, मन में क्या संकल्प चलते थे, क्या खोज चलती थी, इच्छाएं किस प्रकार की थीं, ज़रूरतें भी कुछ होती थीं। तन की हालत क्या थी और धन का तो ये देखा हुआ है कि जिसके पास जितना धन होता कभी भी वो सन्तुष्टता नहीं होती। हमेशा यही संकल्प आता कि इसको बढ़ायें कैसे, मल्टीप्लाय कैसे हो! कभी भी वो सन्तुष्ट नहीं होते, चाहे कितना भी हो। परंतु बाबा के बच्चे तन भी जो है, बाबा चला रहा, शुक्रिया बाबा। तन भी जो है फिर भी इससे सेवा होती रही है और आगे भी होती रहेगी। तो भी बाबा को थैंक्स देते। धन जितना भी है बस आत्मा सन्तुष्ट। बाबा ने एक बारी दादी जानकी को कहा था कि आपके पास इतना होगा जो ज़रूरत के अनुसार ऐसे भी कभी नहीं होगा जो आप सोचेंगे कि धन कम हो गया या कमी है धन की, नहीं। परंतु इतना भी नहीं सोचेंगे कि बहुत ज्य़ादा अभी रखा हुआ है, अभी इसका क्या किया जाये। हमेशा इतना होगा जितनी ज़रूरत है। लास्ट तक भी बाबा का वो ही वरदान काम आता रहा। अब आगे पढ़ते हैं…
बेहद की सेवा है, उसके लिए भी है। परंतु जितना ज़रूरत है उतना है। तो क्या हम लोगों को अपने लिए जो ज़रूरतें हैं बाबा वो पूरी नहीं करेगा! एक बारी दादी ने बताया कि जब वो बंधन में थे और बहुत कड़ा बंधन था। तो बंधन तोडऩे में दादी को दृढ़ संकल्प रहा कि मुझे तो बिल्कुल समर्पण होना है, बाबा का ही बनके रहना है। तो दादी ने ये सोचा कि चिडिय़ों को भी कौन खिलाने वाला है। जंगलों में तो कोई मनुष्य नहीं होते जो उन्हों को दाना-पानी देवे। परंतु चिडिय़ा कैसे जीती है? ऊपर वाला खिला है। तो अगर चिडिय़ों का भी भगवान इतना ध्यान रखता तो क्या हमारा ध्यान बाप नहीं रखेगा! तो इस संकल्प से हर बात का बंधन दादी तोड़ती गईं, तोड़ती गईं और बाबा की बन गईं। मन से तो पहले ही बनी हुई थीं। परंतु फिर तो पूरी ही समर्पण जीवन। तो वैराग, कहां भी हमारी रग न जाये। कहां भी हमारी रग जुटी हुई न हो।
सम्बन्ध है उस समय तो लगता कि मीठा सम्बन्ध है, परंतु फिर गहराई से सोचते हैं कि कोई मनुष्य का सम्बन्ध है, उसका कनेक्शन होता लेन-देन। क्या दिया और क्या लिया, चाहे इस जन्म का, चाहे पूर्व जन्म का। कुछ भी हो। परंतु दूसरे शब्दों में लेन-देन को कहेंगे कर्मों का हिसाब-किताब। तो मुझे अभी किसी से लेने का मतलब क्या? यदि आजतक भी हमें ये थोड़ा-सा संकल्प आता चाहे लौकिक से कुछ चाहिए, चाहे अलौकिक परिवार से कुछ चाहिए ये हमें सहयोग देवे, ये हमें रिस्पेक्ट देवे। ये हमारे ऊपर ध्यान देवे। भिन्न-भिन्न प्रकार के संकल्प आ सकते। परंतु जब ये बुद्धि में आ गया कि अभी जितना मुझे लेना है फिर जो उसका रिटर्न भी देना होगा और रिटर्न भी किस प्रकार से देना होगा,अभी हमें समझ में नहीं आता लेकिन रिटर्न देना तो होगा। लौकिक में छोटी-सी बात में किसने आपको बर्थडे की सौगात दी तो आपको तो बिल्कुल ध्यान रखना पड़ेगा उसका बर्थडे आये तो मुझे उसको ज़रूर कुछ सौगात रिटर्न में देनी है। तो ये तो बहुत छोटी बात और कितने जन्मों का हिसाब-किताब हमारा आगे बना हुआ है और अभी भी हम उसमें एड करते जायें तो ये तो बहुत भारी बात हो जाती। तो हमें किसी भी मनुष्य आत्मा से स्थूल भी नहीं चाहिए और सूक्ष्म भी नहीं चाहिए। बाबा सबकुछ हमें दे रहा। अच्छा धन नहीं है लेकिन बाबा इतनी बुद्धि देता जो सच्चाई से थोड़ी बहुत कमाई करके कुछ तो अपने को सम्भाल सकते। या जितना भी है उतने में अपनी सादगी जीवन बनाकर चला सकते।
दादी की कई बातें याद आती ही रहती क्योंकि दादी के पास इतने वर्षों से पालना ली। 40 वर्ष मैं दादी के पास एक ही कमरे में रही। तो दादी की कई बातें कदम-कदम पर याद आती ही रहती हैं। दादी ने कहा था कि मैं अपना हिसाब रखती हूँ सवेरे से रात्रि तक, मैं कितना लेती हूँ अपने तन के लिए, अपने मन के लिए और मैं कितना बाबा को सेवा में रिटर्न देती हूँ। मैं बिल्कुल ये हिसाब रखती हूँ कि लिया कितना स्थूल हिसाब से और मैंने दिया कितना सेवा के हिसाब से।

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