सर्व प्राप्ति संपन्न स्वरूप व इच्छा मात्रम अविद्या… ये दो स्वरूप इमर्ज करें

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बाबा कहते कि उनकी भावनाओं को पूरा करने के लिए सबसे पहले हमारा पुरूषार्थ ये होना चाहिए कि हम प्राप्ति स्वरूप, संपन्न स्थिति में स्थित हो जायें। क्योंकि जब मैं प्राप्ति स्वरूप होंगी तभी तो किसी को प्राप्त करा सकूंगी।

पहला पुरूषार्थ देखा श्रृंगारी हुई मूर्त रहें, दूसरा पुरूषार्थ देखा कि अपने अव्यक्त स्वरूप को इमर्ज करना है, ज्य़ादा से ज्य़ादा उसको इमर्ज करते जाना है, और तीसरा बीज रूप या अशरीरीपन के अभ्यास द्वारा उस बीज स्वरूप में आकर हरेक पत्ते को सकाश देते जाना है।
चौथा पुरूषार्थ, जो बाबा कई बार कहते हैं कि बच्चे आपको भक्तों की पुकार नहीं सुनाई देती है? कितना पुकार रहे हैं कि हमारी भावनाओं को पूरा करो, हमारी इच्छाओं को पूरा करो, हमें ये प्राप्ति का अनुभव कराओ। तीन रूप से पुकारते हैं। एक तो इच्छापूर्ति के लिए, दूसरा कोई न कोई प्राप्ति का अनुभव करना चाहते हैं, तीसरा, उनको दर्शन की इच्छा है। तो बाबा कहते कि उनकी भावनाओं को पूरा करने के लिए सबसे पहले हमारा पुरूषार्थ ये होना चाहिए कि हम प्राप्ति स्वरूप, सम्पन्न स्थिति में स्थित हो जायें। क्योंकि जब मैं प्राप्ति स्वरूप होंगी तभी तो किसी को प्राप्त करा सकूंगी। अगर मैं ही अप्राप्त अपने आपको महसूस करती हूँ तो मैं अनेकों को प्राप्ति कैसे करा सकतीहूँ! तो पहले तो अपने स्वरूप को प्राप्ति सम्पन्न स्वरूप में स्थित करें।
दूसरा जो भक्तों की इच्छा है, उन भक्तों की इच्छा को पूरा करने के लिए मुझे इच्छामात्रम अविद्या स्वरूप में स्थित होना होगा। अगर मेरी ही इच्छायें अभी रही हुई हैं कि ये चाहिए, वो चाहिए, ऐसा चाहिए, वैसा चाहिए, मेरी ही इच्छायें अभी रही हुई हैं तो उन भक्तों की इच्छाओं को हम पूरा कैसे करेंगे! तो इसीलिए बाबा जो कहते हैं एक तो अपना सर्व प्राप्ति सम्पन्न स्वरूप, दूसरा इच्छा मात्रम अविद्या स्वरूप। जब ये स्वरूप होगा तब भक्तों को हम अनुभव करा सकेंगे। तो ये दो स्वरूप को इमर्ज करना होगा। जब उनकी भावना पूर्ण होगी उन्हें अनुभव होगा तो उनकी जो प्रसन्नता है वो प्रसन्नता जैसे पुष्पों की वर्षा हमारे ऊपर करेगी स्वत:। जिस तरह से कभी कोई व्यक्ति जाता है, महान व्यक्ति अगर गुज़रता है तो लोग उस पर पुष्पों की वर्षा करते हैं। ठीक इसी तरह जब हम किसी की प्राप्तियों को पूरा करेंगे, इच्छाओं को पूरा करेंगे, तो वो प्रसन्न होकर हमारे ऊपर पुष्प वर्षा करेंगे ना! तो इसीलिए बाबा कहते तुमको भक्तों की पुकार सुनाई देनी चाहिए। उनकी भावनाओं को पूर्ण करने के लिए ये दो पुरूषार्थ विशेष होने चाहिए।
पाँचवा पुरूषार्थ, बाबा हमेशा हम बच्चों को कहते हैं कि जैसे विष्णु के जो चारों हाथों में चार अलंकार दिखाये तो बच्चे दिव्य दर्शनीयमूर्त बनने के लिए आपने चारों अलंकार धारण कर लिए हैं? क्योंकि ये अलंकार देवताओं के तो हैं नहीं। ये अलंकार किसके हैं? हम बच्चों के हैं। तो बाबा कई बार मुरली में कहते हैं कि एक अलंकार पकडऩे जाते हैं तो दूसरा छूट जाता है, दूसरा पकडऩे जाते हैं, तीसरा छूट जाता है। चारों ही अलंकारधारी बनो। चारों अलंकार को पकड़ो। तभी तो आप साक्षात्कारमूर्त बन औरों को अनुभव करायेंगे।
तो चारों ही अलंकार में सबसे पहला है शंख, तो जो बाबा का परिचय सबको सुनाते रहते हैं, शंख ध्वनि तो चलती रहती है चलते-फिरते भी। दूसरा कमल पुष्प समान जीवन तो है ही है। गृहस्थ व्यवहार में रहते हैं तो सभी ने पवित्रता को धारण किया है। माना कमल पुष्प भी पकड़ा है। तो दो अलंकार तो पकड़े हैं। और तीसरा है ज्ञान की गदा। तो मुरली भी कभी मिस नहीं करते हैं। मुरली भी रोज़ सुनते हैं। तो तीन अलंकार तो पकड़े हुए ही हैं सबने। रह गया तो कौन-सा रह गया? स्वदर्शनचक्र। ये घूमता नहीं है। स्वदर्शनचक्र ही छूट जाता है हमारा। और बाबा रोज़ लगभग साकार मुरली के अन्दर कहते हैं बच्चे स्वदर्शनचक्रधारी बनो। स्वदर्शनचक्र को घुमाओ। क्यों घुमाने के लिए कहता है? उससे क्या होगा? तो बाबा ने कई मुरलियों में सुनाया है कि बच्चे जितना स्वदर्शनचक्र को घुमायेंगे उतना विकर्म विनाश होंगे। जितना स्वदर्शनचक्र को घुमायेंगे आत्मा पावन बनती जायेगी।

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