पुकारना अथवा मांगना भक्ति के संस्कार हैं – ब्राह्मणों के नहीं

0
55

मम्मा हमेशा अपनी अथॉरिटी में रहती थी। मैं जगदम्बा हूँ यह अथॉरिटी थी। मैं भी जितना अथॉरिटी में रहूंगी उतना मुझे ऑटोमेटिक मिलेगा। मैं हे कहकर अपने को नीचे क्यों लाऊं!

अब हम ब्राह्मणों की वह अवस्था चाहिए कि पाना था जो पा लिया … जब हम इस स्थिति में पहुंच जाते हैं तो मांगना समाप्त हो जाता है। बाप से बच्चों को मांगने की दरकार नहीं रहती। वह आपेही देता है। बाबा कई बार हम बच्चों को अमृतवेले का रमणीक दृश्य सुनाते कि – सवेरे-सवेरे बच्चे बाप से मांगते हैं, क्या-क्या उलहने देते हैं? अगर साक्षी होकर देेखो तो आपको भी मजा आयेगा। साथ-साथ बाबा यह भी कहते – बच्चे तुम्हें जो भी प्राप्ति करनी है, जिस भी सम्बन्ध का रस लेना है वह अमृतवेले बाप से ले सकते हो, क्योंकि उस समय बाप भोलानाथ के रूप में होते हैं। यह किन के लिए कहा? जिन बच्चों को बाबा देखता यह तृप्त नहीं हैं तो बुद्धि औरों में न जाए इसलिए कहता मेरे से ही लो। लेकिन मांगना ब्राह्मणों का धर्म नहीं। यह तो भक्ति के संस्कार हैं।
जब कोई तबियत के कारण या कोई कमी के कारण डिस्टर्ब होकर कहते हैं- हे बाबा, ओ बाबा… तो बाबा के महावाक्य हैं तुम तो भगवान के बच्चे हो। तुम्हारे मुख से कभी भी हाय-हाय नहीं निकल सकता। बाप हम बच्चों के यह हाय-हाय के बोल सुन नहीं सकते। जब बाप और ड्रामा में निश्चय है तो फिर हाय-हाय के बोल मुख से क्यों निकलते हैं।
हे बाबा कहना भी हमारी पुकार के बोल हैं। पुकार का बोल, भक्ति का, प्रार्थना का, मांगने का है। यह शक्तिहीन का शब्द है। यह पुकारना भी भक्ति की आदत है। बाबा ने हमारे सब पुराने संस्कार मिटाये हैं इसलिए बाबा को यह शब्द भी पसंद नहीं है। बच्चे कहें बाबा मैं क्या करूं, मेरे में शक्ति नहीं है। बाबा हमें राजाओं का राजा बनाते हैं, फिर हम नीची स्थिति में क्यों आते हैं!
हमने कभी भी मम्मा के मुख से यह नहीं सुना कि बाबा करायेगा, बाबा शक्ति देगा क्यों? क्योंकि मम्मा हमेशा अपनी अथॉरिटी में रहती थी। मैं जगदम्बा हूँ यह अथॉरिटी थी। मैं भी जितना अथॉरिटी में रहूंगी उतना मुझे ऑटोमेटिक मिलेगा। मैं हे कहकर अपने को नीचे क्यों लाऊं! हे बाबा, यह मेरे संस्कार हैं! ऐसा कहना भी देह अभिमान है। जैसे अपने आप से बेचैन होकर यह शब्द बोलते। ओहो बाबा! यह एक दिन की खुशी के बोल हैं। जब यह बोल निकलते कि हाय मैं क्या करूं – तो सिद्ध होता है कि बाबा ने मुझे भरपूर नहीं किया है। हाय-हाय कहकर मैं अपनी कमज़ोरी नहीं मिटा सकती। निश्चय अटूट हो तो नशे में सदा झूमते रहेंगे।
कोई भी पेपर आये – मैं हाय क्यों कहूँ! हाय कहना, यह भी शिवबाबा की इनसल्ट करना है। यह परिस्थितियों का चक्र है। मुझे इस चक्र से पार होना है।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें