हमारे संस्कार अनुसार हम क्या सोच रहे हैं, क्या कर रहे हैं और क्या हम आगे बढ़ रहे हैं या कहां हम किस बात में अटक गये हैं। तो हम ये सदा चेकिंग करते रहें कि हमारी रग कहाँ जुटी हुई न हो।
जैसा कि पिछले अंक में आपने पढ़ा कि अपनी मन की वृत्ति बिल्कुल साफ है, बिल्कुल बाबा की भावना है, बाबा के प्रति ये संकल्प है कि जो बाबा हमसे सेवा कराये तो वो सेवा अपने आप ही होती रहती। और जो भी साधन की ज़रूरत होती वो भी हमें प्राप्त होता रहता। तो कहाँ पर भी हमारी रग न जाये।
ये तो मैंने साधनों की बात की परंतु कईयों को ये होता कि ये साथी हमारा होगा तो इस साथी के आधार से हमारी सेवा हो सकती। तो उसमें भी प्रैक्टिकल देखते हैं कि चाहे यज्ञ की स्थापना में बाबा और मम्मा, और फिर यज्ञ को आगे बढ़ाने में हमारी दादियां, और फिर दादियां भी अव्यक्त हो गईं। परंतु अभी भी सेवायें कोई कम नहीं हुई हैं। अभी जैसे-जैसे मैं जहाँ-जहाँ का समाचार सुनती हूँ और ही आगे बढ़ती जा रही है, तो इसका प्रूफ क्या है कि शिव बाबा का यज्ञ है, शिव बाबा का भण्डारा है। तो शिव बाबा ही करनकरावनहार, हाँ एग्ज़ाम्पल बाबा और मम्मा का सबसे पहले सामने रखा। परंतु बाबा ही सेवा कर रहा है और करा रहा है। तो हमें सेवा के लिए कोई कुछ आसक्ति हो, कहाँ पर रग जुटी हो, क्या होता है कि माया का बड़ा मीठा रूप होता, बहुत विचित्र रूप होता, हम समझते हैं कि हम ये सेवा के लिए सोच रहे हैं हम अपने लिए नहीं सोचते हैं। परंतु जब हम बाबा को कहते हैं बाबा ये साथी ज़रूर हमारे साथ हो तो सेवा होगी। परंतु रियलिटी तो ये होती कि मेरी आसक्ति है, मेरा कनेक्शन है, रग जुटी हुई है तो मैं बाबा को ये कह रही हूँ, लेकिन बाबा को जिसके द्वारा सेवा करानी है बहुत सिम्पल, बहुत साधारण, कोई भी हो, बाबा उन्हों के द्वारा अपनी सेवा बहुत सुन्दर ढंग से करायेंगे। अब तक कराते रहे हैं और लास्ट तक भी जो भी बाबा की प्रत्यक्षता होने वाली है, वो भी अवश्य ही बाबा अपने आप ही करायेंगे।
बाकी उस बीच में एक तो है हमारा भाग्य कि हम अपना भाग्य कितना तक बनाना चाहते हैं और दूसरा फिर है हमारे संस्कारों की परीक्षा, माया की भी परीक्षा नहीं है, माया तो हम नाम देते हैं जो चीज़ है ही नहीं उसको माया शब्द कह दिया। जो सत्यता नहीं है, रियलिटी नहीं है। तो इसमें है सिर्फ हमारे संस्कार परिवर्तन की परिक्षाएं। हमारे संस्कार अनुसार हम क्या सोच रहे हैं, क्या कर रहे हैं और क्या हम आगे बढ़ रहे हैं या कहां हम किस बात में अटक गये हैं। तो हम ये सदा चेकिंग करते रहें कि हमारी रग कहाँ जुटी हुई न हो। जितना रग जुटी हुई है कहाँ पर भी चाहे सूक्ष्म, चाहे स्थूल, चाहे मटेरियल, चाहे स्पिरिचुअल कुछ बात में भी, कहाँ पर भी हम अटक जाते हैं तो फिर वो लेन-देन का हिसाब-किताब और हम अपनी कर्मातीत अवस्था तक नहीं पहुंचते, हम उससे थोड़ा पीछे हट जाते। ये तो मैंने पहली मुख्य बात कही- बाबा के द्वारा प्राप्ति।
परंतु दूसरी भी बात आती जिससे सहज वैराग वृत्ति आ सकती। वो है कि हम ये याद रखें कि स्वर्ग की दुनिया हमारे सामने है और स्वर्ग में जाने के लिए मुझे किस प्रकार की तैयारी करनी है। बाबा बताते कि आपके संस्कारों द्वारा ही संसार बन रहा है। बाबा के कुछ-कुछ ऐसे शब्द होते जो बिल्कुल भूलते नहीं हैं। तो बाबा ने हमारे सामने जो दृश्य दिखाया है स्वर्ग का, तो वो संस्कार मेरे अन्दर आज किस प्रकार से मुझे वहाँ तक पहुंचा रहे हैं, कहाँ तक वो संसार बना रहे हैं वो देखना होता। और उससे भी फिर सहज-सहज वैराग वृत्ति होती जाती। क्यों? क्योंकि स्वर्ग की दुनिया का यदि हमको दरवाज़ा खोलना है तो पहले से ही अपने संस्कारों को स्वर्ग के योग्य बनाना होगा। बगीचा तो बन जाये परंतु बगीचे में एक भी बच्चा ऐसे कार्य करने वाला हो जो डिस्ट्रक्टिव हो। फूलों को तोड़ देवे, मिट्टी में खेलता रहे, तो वो जो स्वर्ग के फूलों का बगीचा है, तो एक भी ऐसा व्यक्ति होगा वो तो सारा बिगाड़ देगा। दस व्यक्तियों की ज़रूरत नहीं है। बगीचे को एक व्यक्ति भी सारा बिगाड़ सकता। और फिर साथ-साथ एक व्यक्ति ही उस बगीचे को बनाने के लिए अपनी मेहनत करके तैयार कर सकता। हमें स्वर्ग बनाना है अपने संस्कारों द्वारा। तो इतनी रॉयल्टी के संस्कार, इतने दातापन के संस्कार, इतने कल्याणकारी भावना के संस्कार वो कब बनेंगे, परमधाम में नहीं बनेंगे। परंतु यहाँ ही बनाने होंगे। तो फिर वो स्वर्ग की स्थापना का कार्य सम्पन्न होगा।