संस्कार केवल प्रतिक्रिया के

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कहा जाता है आदत वो है, अगर करो तो कुछ न मिले, न करो तो कुछ खो रहा है ऐसा मालूम पड़े। तो आप ये देख लें जिस चीज़ को करने से कुछ नहीं मिलता, उस चीज़ को न करने से क्या खोयेगा! आज हम इसकी थोड़ी-सी गहराई में जाते हैं कि क्रिया की आदत नहीं है, माना कोई भी कर्म जो हम करते हैं, उस कर्म का क्या संस्कार है? जैसे आप खाना खाते हैं, पानी पीते हैं, उठते हैं, रोज़ का आपका ये रूटीन है, लेकिन उसका कोई संस्कार ऐसा नहीं है जो आपको तंग कर रहा हो। उठना ईज़ी लगता है, लेकिन अगर उसपर किसी ने प्रतिक्रिया कर दी या किसी ने आपको कुछ बोल दिया कि सुबह लेट उठते हो या रोज़-रोज़ आपको नहाने में देरी हो जाती है या जो भी आप कर्म कर रहे हो, उसके प्रति यदि किसी ने थोड़ी-सी भी प्रतिक्रिया की और आपकी तरफ से कुछ हुआ तो वो चीज़ संस्कार बनाती है। वो चीज़ संस्कार पैदा करती है।
तो कहा जाता है, हमारी क्रिया या कर्म हमको बांधती नहीं है लेकिन प्रतिक्रिया बांधती है। प्रतिक्रिया कैसे बांधती है, इस बात को समझेंगे। क्रिया में या कर्म में आप मालिक होते हैं, लेकिन प्रतिक्रिया में दूसरा मालिक है। जैसे ही आपने प्रतिक्रिया की, आपके अंदर बंधन बंध जायेगा। जाल मजबूत होता चला जाता है। लेकिन आप प्रतिक्रिया न करो तो बंधन बंध ही नहीं सकता। एक उदाहरण से हम इसको समझ सकते हैं, कि जब हम किसी पर ध्यान देते हैं, तो आप उसको पोषण देते हैं, अगर आप ध्यान न दो तो वो अपने आप ही चला जायेगा। लेकिन जैसे ही आपको किसी ने कुछ बोला, जैसे आप कम्प्यूटर पर काम कर रहे हैं, आप कर रहे हैं, आपको कोई फर्क नहीं पड़ता। लेकिन जैसे ही किसी ने कुछ बोला और आपके अंदर से उसका कोई न कोई जवाब मिला, तो उसका संस्कार बनेगा। तो जब हम किसी पर ध्यान देते हैं, तो उसको पोषण देते हैं। जैसे खाली घर हो तो भिखारी अपने आप चला जाता है, लेकिन जैसे ही हमने कहा कि कुछ नहीं है, तो वो वहीं खड़ा रहता है। क्योंकि आपने प्रतिक्रिया दी, प्रत्युत्तर दिया, तो फिर वो कुछ न कुछ तो कहेगा। इसका मतलब आपने उत्तर दिया माना आप हो और आप राज़ी हो, तभी तो प्रतिक्रिया कर रहे हो।
तो देखो, ध्यान क्या है, पर्दा हटाने की कला है। पर्दा जो बुना है विचारों से, उसको हटाने की ही तो कला है। इसीलिए इस समाज में जो भी हमने संस्कार बनाये, वो सिर्फ और सिर्फ उस कर्म के प्रति जो रिएक्शन मिला है, उसका संस्कार हमने बनाया है, ना कि कर्म का संस्कार है। अब इसको बैठ के मनन-चिंतन करके देखो, जीवन की इस भागदौड़ में हमको परमात्मा कहते हैं कर्म करो, फल की इच्छा मत करो। लेकिन फल की इच्छा न करना ही कर्म को बढ़ावा देना है। और इस बात को समझने के लिए, इस बात को फील करने के लिए आपको सबसे पहले ये समझना ज़रूरी है कि हर कर्म का अपने आप ही फल मिल जाता है।
तो परमात्मा हमको कर्म करके भूलना सिखाते हैं। क्योंकि आज जो भी आपको दु:ख और दर्द होता है, जो भी आपने कर्म किया है उसपर अगर किसी ने कमेंट किया है, उस कमेंट का जवाब देने से ही दु:ख और दर्द पैदा हुआ है। लेकिन अगर आप चुप रहो, उसको सुधारते जाओ, उसमें बुरा-अच्छा आपको कुछ समझ नहीं आ रहा है, तो समझो आपने कर्म को किया और भूल गये। तो परमात्मा हमको रोज़ कर्म को अकर्म बनाना सिखाते हैं, कि मैं इस कर्म को करूं और भूल जाऊं। जैसे ही उस कर्म को मैं भूलूंगा, वैसे ही समझो मैंने जग को जीत लिया। लेकिन मुझे याद रहता है कि आज तो मैंने ये किया और उसपर क्योंकि कमेंट हमने सुना हुआ है, किसी ने अच्छा बोला है तो अच्छे की प्रतिक्रिया याद है, किसी ने बुरा बोला है तो बुरे की प्रतिक्रिया याद है। वो प्रतिक्रिया के संस्कार हैं न कि आपके कर्म के संस्कार हैं।
बहुत गहराई से हम इस बात को समझेंगे कि जो भी आज आपको चाहे शरीर के ऊपर, चाहे सम्बंधों के ऊपर, चाहे किसी बात के ऊपर, चाहे किसी चीज़ के ऊपर जो कमेंट मिला है, उसी कमेंट का संस्कार ही आज हम ढो रहे हैं। तो आज वो प्रतिक्रिया हमको बांधती है, छोड़ ही नहीं रही है। छोडऩे का प्रयास हम कर रहे हैं लेकिन नहीं छोड़ रही है। तो हम जब बैठ के इस बात को सीखते हैं, सोचते हैं, बैठ के बुनते हैं तो पता चलता है कि ध्यान इसी क्रिया को करने का नाम है कि मैंने कर्म किया और भूल गये। कोई भी कर्म करके भूलना ही अकर्म है। और ध्यान की ये सबसे ऊँची अवस्था है, योग की सबसे ऊँची अवस्था मानी जाती है। तो चलो आज हम इसको गहराई से चिंतन-मनन करके और अच्छे से अंदर ले जायें ताकि कर्म करें और भूलें।

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