खुशी का पासवर्ड किसके पास…!!!

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आंखें बंद करें और एक लिस्ट बनाएं कि हमारे मन की स्थिति पर कितने लोगों का प्रभाव पड़ता है। किसके एक शब्द से, किसके व्यवहार से आपके मन में हलचल आ सकती है। कितने लोग है? घरवाले, दफ्तर के सहकर्मी या राह चलते लोग भी? जब आप टीवी का रिमोट दूसरे के हाथ में नहीं देना चाहते तो अपने मन का रिमोट किसी दूसरे को क्यों सौंपते हैं?

आज कल हम घर में भी एक-दूसरे को फोन कर लेते हैं, एक कमरे से दूसरे कमरे में। जैसे-जैसे हम अपने संस्कारों को इतना बदलते गए, असली संस्कार छुप गए। वह इतना छुप गए कि हम उसको फिर ढूंढने लगे। बाहर मांगने लगे लोगों से। कोई सफेद कपड़ा रोज़ धुलेगा तो सफेद बना रहेगा। अगर इसको एक दिन, एक हफ्ता, एक महीना, दो साल या दस साल नहीं धोया तो कुछ बदल जाएगा? इस पर मिट्टी आएगी और धीरे-धीरे यह इतना बदल जाएगा कि हमें याद नहीं रहेगा कि यह कभी सफेद भी था। फिर हम कहेंगे कि हमें सफेद चाहिए।
इसी तरह हम कह रहे हैं कि मुझे खुशी चाहिए। बार-बार बस यही दोहराते रहते हैं। बहुत साक्षी होकर अपने आप से पूछिए कि आपको खुशी चाहिए या खुशी मेरा संस्कार है? दोनों में से कौन-सी बात सच है? क्रचाहिएञ्ज या क्रवह मेरा संस्कार है।ञ्ज किस-किस को लग रहा है कि खुशी दिन-ब-दिन बढऩे की जगह उतनी ही है या घट रही है, मतलब जीवन में तनाव लगातार बढ़ता जा रहा है। टेंशन बढ़ती जा रही है। चिंताएं बढ़ती जा रही हैं। हमारे पास या तो खुशी हो सकती है या टेंशन हो सकती है, दोनों नहीं हो सकते हैं। हमें खुशी चाहिए नहीं, खुशी दरअसल हमारा संस्कार होनी चाहिए। लेकिन जब चिंता करते हैं, टेंशन करते हैं, परेशान होते हैं, जब तनाव होता है, तो हमें हमारी खुशी अनुभव नहीं होती है। और फिर हम इस खुशी को बाहर ढूंढने निकल पड़ते हैं।
हम सबके पास फोन है। क्या यह फोन आपको खुशी देता है? सालों पहले जिस दिन पहली बार फोन मार्केट में आया था, तो लोग कहते थे यह तो बहुत खुशी देगा। आज वही लोग कहते हैं कि यह फोन तो टेंशन का कारण बन चुका है। लेकिन वास्तविकता क्या है? फोन ना तो खुशी दे सकता है, ना टेंशन दे सकता है। फोन तो सिर्फ एक-दूसरेसे बात करने का साधन है। हम यह सोचकर कोई चीज़ खरीदने जाते हैं कि इससे खुशी आएगी…उससे खुशी आएगी। मतलब जिसके घर जितने ज्य़ादा साधन होते हैं, उसके घर खुशी भी उतनी ही ज्य़ादा होती है? ऐसा तो नहीं है ना। मेरा सोफा देखो कितना बड़ा है। आपकी तो कुर्सी छोटी-सी है, तो मैं आपसे ज्य़ादा खुश? बड़ा सोफा है, देखो महंगा भी बहुत होगा, मैं आपसे ज्य़ादा खुश। हम एक-दूसरे को देखते हैं कि उनके घर यह भी आ गया। उनके घर वह भी चीज़ आ गई। वह कितने भग्यशाली हैं! लेकिन वह कितने खुश हैं, यह नहीं पता। उनके मन के अंदर की हालत कैसी है, लेकिन उनको सामान खरीदता हुआ देखकर हम अपनी खुशी गंवा देते हैं। एक-दूसरेके साथ तुलना करना, दूसरे की तरह बनने की कोशिश करना… यह सब करते-करते मेरा खुशी का संस्कार घटता गया और उसकी जगह कुछ-कुछ दाग-धब्बे आ गए हैं। आज हमें खुशी चाहिए नहीं। सवाल है कि उन दाग-धब्बों का क्या करना है। अगर हम उसी सफेद कपड़े को 20 साल के बाद भी धोएं, तो क्या वह सफेद हो जाएगा या उसी रंग-रूप में लौट आएगा?
जवाब है नहीं। जैसे कपड़ों को रोज़ साफ करते हैं, वैसे ही मन पर काम करना है। यह जो शक्ति है आत्मा है, इसके साथ रोज़ थोड़ा समय बिताना शुरू करें। मतलब अपने आप को याद दिलाइए कि खुद को समझने के लिए और दूसरों को समझने के लिए अपने संस्कारों को जानना बहुत ज़रूरी होता है। सबसे पहले चीज़ यह याद रखें कि मैं यह शरीर नहीं आत्मा हूँ। अपने उस संस्कार और आदत को देखो जिसको बदलना है। कमज़ोर संस्कार का उच्चारण नहीं करना है। और जो संस्कार लाना चाहते हैं वही सोचना है। वही बोलना है। बार-बार, हर रोज़ यह रिपीट करना है कि मैं हमेशा खुश, मैं हमेशा शांत रहूं। मुझे किसी से कुछ नहीं चाहिए। मैं सबको देने वाली आत्मा हूँ।
आपने अपना रिमोट कंट्रोल कितने लोगों के हाथ में दिया हुआ है। आंख बंद करें और लिस्ट बनाएं। कभी-कभी तो ऐसा लगता है सबके पास रिमोट कंट्रोल है। एक उसके पास छोडक़र, जिसके पास होना चाहिए। टीवी का रिमोट कंट्रोल तो किसी को देते नहीं। तो मन का रिमोट कंट्रोल दूसरों के हाथों में क्यों सौंपे? इस पर विचार करें।

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