अध्यात्म आचरण का हिस्सा बने

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अलग-अलग चिंतकों ने संसार के सनातन सत्यों के बारे में खुद चिंतन करके जो बातें बताईं मूल सत्य कौन से हैं। आत्मा के बारे में, परमात्मा के बारे, सृष्टि चक्र के बारे में, कर्म के बारे में, जन्म के बारे में, वर्ण के चक्र के बारे में। ये जो संसार के सनातन सत्य हैं उन सत्यों पर विविध चिंतकों ने अपनी बुद्धि अनुसार, अपनी साधना की स्थिति अनुसार चिंतन करके जो बातें बताईं, जो मान्यतायें बताईं उसे हम शास्त्रयुक्त ज्ञान कहते हैं।

आध्यात्मिकता का बहुत सरल अर्थ बाबा ने हम बच्चों को बताया है। आत्मा के विकास, पोषण और रक्षण हेतु जो अधिक ज्ञान उसे आध्यात्मिकता कहते हैं। बाबा के शब्दों में बिल्कुल सरल रूप से कि बाप बैठ रूहानी बच्चों को समझाते हैं। तो बाप जो समझाते हैं वही स्पिरिचुअल नॉलेज है, आध्यात्मिक ज्ञान है। भक्ति में जो हम ज्ञान प्राप्त करते हैं वो फिलॉसफी है। अलग-अलग चिंतकों ने संसार के सनातन सत्यों के बारे में खुद चिंतन करके जो बातें बताईं मूल सत्य कौन से हैं। आत्मा के बारे में, परमात्मा के बारे, सृष्टि चक्र के बारे में, कर्म के बारे में, जन्म के बारे में, वर्ण के चक्र के बारे में। ये जो संसार के सनातन सत्य हैं उन सत्यों पर विविध चिंतकों ने अपनी बुद्धि अनुसार, अपनी साधना की स्थिति अनुसार चिंतन करके जो बातें बताईं, जो मान्यतायें बताईं उसे हम शास्त्रयुक्त ज्ञान कहते हैं। मनुष्यात्माओं का ज्ञान कहते हैं। और वो फिलॉसफी है। केवल फिलॉसफी आत्मा का कल्याण नहीं कर सकती, जब तक फिलॉसफी प्रैक्टिकल जीवन में न आये। जिसके लिए हम लोगों को भी समझाते हैं कि आज हमारी बुद्धि में मान लो हमने हज़ारों शास्त्र पढ़े हैं और वो ज्ञान हमारी बुद्धि में भरा हुआ है तो बेशक वो विद्वता है, पांडित्य है। लेकिन हज़ारों शास्त्रों का ज्ञान होते हुए भी अगर मन परमात्मा में एकाग्र नहीं होता है, विकारों में अटकता है तो उसे शुष्क पांडित्य कहेंगे और ऐसी विद्वता, ऐसा पांडित्य आत्मा का कल्याण नहीं कर सकता। इसलिए जब कई लोग कहते हैं कि इनको तो पूरी गीता ही कंठस्थ है, सारे श्लोक उनको याद हैं, और लोग इन बातों से प्रभावित हो जाते हैं, ये हुई उनकी याद शक्ति, ये स्पिरिचुअल पॉवर तो नहीं हुआ ना!
आत्मा की गति होती है स्पिरिचुअल पॉवर के आधार पर। इसीलिए बाबा हम बच्चों को कहते हैं कि हमें गीता शास्त्र नहीं पढऩा है लेकिन जीवन को गीता बनाना है। बाबा के ज्ञान के आधार पर, प्रैक्टिकल प्रमाण हमारा जीवन बने, ये हमारा लक्ष्य है। इसलिए मुरली में बाबा उदाहरण भी देते हैं कि एक पंडित ने माताओं को सिखाया कि राम-राम बोलोगे तो गंगा पार जाओगे। माताओं ने बड़ी श्रद्धा और विश्वास के साथ उस बात को ग्रहण कर लिया। जब मातायें सत्संग करके लौट रहीं थी तो उनको वापिस जाना था, तब कोई नईया नहीं थी तो उन्होंने भगवान के नाम पर ही उसको पार कर लिया। उन्होंने उस पंडित को कहा कि स्वामी जी आप भी हमारे साथ गांव चलिए। जब नदी किनारे पहुंचे तो बोले नांव कहाँ है? बोला स्वामी जी आपने ही तो सिखाया था कि राम-राम कहो तो पार हो जाआगे तो नईया क्यों मांग रहे हो? क्योंकि उनके पास सिर्फ पांडित्य थी, मान्यतायें थी। लेकिन माताओं के पास प्रैक्टिकल में वो विश्वास, श्रद्धा और निश्चय था जिसके बल से वो पार हो गईं। तो इसी रीति हम सभी बाबा के बच्चों का लक्ष्य है कि बाबा जो हम बच्चों को कहते हैं उसे रोज ब रोज के व्यवहारिक जीवन में धारण करना है। हमें बाबा की ज्ञान की बातों से केवल बुद्धि की झोली नहीं भरनी है लेकिन बुद्धि को भरने के बाद उसे हमें कर्म में लाना है, अभ्यास में लाना है और अनुभव की स्थिति को प्राप्त करना है। जैसे हम भोजन करते हैं, पेट में भरते हैं लेकिन अगर हम उसको डायजेस्ट नहीं करते हैं तो वो भोजन ब्लड और एनर्जी में कन्वर्ट(परिवर्तन) नहीं होता। हमें उस भोजन से शक्ति तब मिलेगी, उससे ब्लड तब मिलेगा जब वो डायजेस्ट होगा। इस प्रकार बाबा हम बच्चों को जो सत्य ज्ञान देते हैं उस सत्य ज्ञान की शक्ति का अनुभव हमें तब हो सकता है जब हम उसे अभ्यास में लायें। इसलिए सबसे पहले बाबा के ज्ञान को प्राप्त करने के बाद हमें अन्तर्मुखी बनकर विवेक से उस ज्ञान को समझना है।

इसलिए बाबा कहते हैं मुरली में कि बाप बच्चों को समझाते हैं। सारे महावाक्य उच्चारण करने के बाद भी बाबा सदा हम बच्चों को कहते हैं कि समझा। तो मैं समझती हूँ कि इससे हम सबको ये क्लीयर है कि हमें बाबा का ज्ञान सिर्फ सुनना नहीं है लेकिन हमें समझना है मुरली के एक एक महावाक्य को, ज्ञान के एक एक सत्य को हमें यथार्थ रूप से समझना है। और उस गहराई से समझना है, उस विस्तार से समझना है कि हमारी बुद्धि बाबा के ज्ञान से कन्विन्स हो जाये, बाबा के ज्ञान से सहमत हो जाये। गहराई और विस्तार दोनों ज़रूरी है जैसे कोई भी चीज़ ऊपर ही ऊपर फैलते जाना। ये विस्तार है। और एक ही बात की गहराई में चले जाना, अन्दर ही अन्दर डैप्थ में जाना उसको महीनता गहराई कहते हैं। तो बाबा के ज्ञान की हर बात को तो बाबा का ज्ञान हमारे सामने मुरली के स्वरूप में है। बाबा के ऑरिज़नल महावाक्य हैं डायरेक्ट भगवानुवाच। बातें बाबा की मुरली में है। बाबा की उस मुरली पर चिंतन करके जगदीश भाई जी ने पूरे विस्तार से किताबों में हमें समझाया है लेकिन बाबा के डायरेक्ट महावाक्य बाबा की मुरली में है। तो हमारा लक्ष्य ये होना चाहिए कि जो भगवानवाच है आदि से लेकर अब तक साकार में जो वाच किया और अभी अव्यक्त माध्यम से जो वाच करते हैं। ज्ञान की हर बात को हमें यथार्थ रूप में समझना है। क्योंकि समझने से वो हमारी बुद्धि में छप जाती। देखो जब हम स्कूल में पढ़ते हैं तो सबसे पहली बात एक जब टीचर पढ़ाते हैं उस समय हमें अटेन्शन से पढऩा होता है। हरेक को अपने स्टूडेंट लाइफ का अनुभव होगा कि जब टीचर पढ़ाते हैं उस समय से हम अटेन्शन से पढ़ते हैं तो वो एकदम क्लीयर हो जाता है। बुद्धि में छप जाता है। जो स्कूल में क्लास में अटेन्शन से नहीं पढ़ते जिसके लिए कहते हैं फिजि़कली इन क्लास लेकिन मेंटली आउट होते हैं। तो जो क्लास के टाइम टीचर से योग नहीं है। मुरली में आता है ना कि टीचर से योग चाहिए इसका अर्थ है कि टीचर जब पढ़ाते हैं तो उस समय हमें अटेन्शन से पढऩा है। अगर उस समय अटेन्शन से नहीं पढ़ते हैं तो अनुभव होगा कि बाद में कितनी बार पढ़ते हैं लेकिन वो क्लीयरिटी नहीं होती जो जब टीचर पढ़ाते हैं और ध्यान से देने से होती है। फिर व्यक्ति उसको रट लेता है लेकिन वो समझ में आया हुआ होता है। इसलिए पहली बात है अटेन्शन। दूसरी बात है कि स्कूल में टीचर पढ़ाते हैं और उस समय हम पढ़ते हैं केवल उतना पढऩे से स्टूडेंट फस्र्ट नम्बर नहीं ले सकता है। लेकिन स्कूल में टीचर जो पढ़ाते हैं वो पढऩे के बाद जो स्टूडेंट घर जाकर होमवर्क करते हैं, उस होमवर्क एक्यूरेट करते हैं मतलब टीचर ने जो पढ़ाया उस पर जो स्टूडेंट व्यक्तिगत मेहनत करते हैं वो स्टूडेंट फस्र्ट नम्बर, फस्र्ट क्लास ले सकते हैं। सेम बात हमारी इस आध्यात्मिक पढ़ाई से है अगर बाबा के ज्ञान की बातें केवल सुनने की होती तो बाबा इसको विद्यालय क्यों कहते? बाबा क्यों कहते हैं कि मैं तुम्हारा परम शिक्षक हूँ। ये स्प्रीचुअल यूनिवर्सिटी है। ऐसे बाबा क्यों कहता है। सिर्फ परिवार का रूप रखता, सिर्फ सत्संग का स्वरूप रखता लेकिन बाबा ने इसको स्प्रीचुअल यूनिवर्सिटी कही है मिन्स हम जो बातें सुनते हैं वो समझनी है, स्मृति में रखनी है वो हमें बिल्कुल वो स्पष्ट हेानी चाहिए हमारे दिल दिमाग में वो छपी हुई होनीचाहिए। इसलिए मिन्स बाबा से योग, बाबा के प्रति अटेन्शन, होना ज़रूरीी है। और वो अटेन्षन तभी रहेगा देखो आपका प्रिय व्यक्ति कैसी भी बात आपको कहेगा लेकिन आपको वो अच्छी लगेगी, स्वीकार्य हो जायेगी। जिससे आपका प्यार नहीं है वो आपके कल्याण की बात भी कहेंगे तो भी वो आपको स्वीकार्य नहीं होगी। तो बाबा से प्यार, बाबा से योग ये बहुत ज़रूरी है और मुरली के समय इसलिए बाबा सदा हमें कहते हैं कैसे हमें मुरली सुननी है। बाबा एक ही शब्द में रोज़ हमें अटेन्टिव करते हैं और वो है बाबा कहते हैं जब बाबा के सामने बैठते हो तो ज्ञान स्वरूप होकर बैठो। आत्मभिमानी स्थिति में बैठो। बाप के सामने ऐसे ही आकर नहीं बैठ जाओ। जैसे कि नियम से आकर बैठ गये क्लास में। वो भी अच्छी बात है। लेकिन अगर ज्ञान मुझे आचरण में लाना है तो ऐसे ही आकर बैठने से नहीं चलेगा। हमें लक्ष्यपूर्वक आना होगा। और अपनी आत्मभिमानी स्थिति में बैठना होगा कि स्वयं भगवान मुझ आत्मा को पढ़ा रहे हैं। स्वयं भगवान के महावाक्य मैं सुन रही हूँ। इस स्मृति, अनुभूति और स्थिति के साथ बाबा के महावाक्य हमें सुनने हैं समझने हैं। जब हम समझते हैं तो हमारा विवेक, हमारा लॉजिक बाबा के साथ कन्विन्स करते हैं। कई बार हम सुनते हैं बाबा की बातों को समझते हैं लेकिन हम खुद लॉजिकली, विवेक से बाबा की बातों से कन्विन्स नहीं होते। जिसको बाबा सरल शब्दों में कहते हैं कि सुनना, समझना और मानना, स्वीकार करना, और निश्चय करना कि जो बाबा ने कहा वो सत्य है, कल्याणकारी है और जीवन में धारण करना पॉसिबल है तब बाबा ने कहा है। कई बार हम अपना तर्क चलाते हैं कि बाबा तो कहते हैं बात तो सही है लेकिन जीवन में धारण करना बड़ा मुश्किल है। हम तो दुनिया में रहते हैं ना, गृहस्थी में रहते हैं ना तो आचरण में लाना कितना मुश्किल है। इस प्रकार हम अपना तर्क चलाते हैं और हम ये समझते हैं कि आप बहनें तो सेंटर पर रहती हैं, समर्पित हैं और झंझट आपको नहीं है इसलिए तो आप धारण कर सकते हैं लेकिन हम लोगों के लिए बहुत मुश्किल है। वास्तव में हमें विवेक से इस बात को समझना चाहिए कि कैसे एक बात कि बाबा प्रवृत्ति मार्ग के संसार के लिए ज्ञान देते हैं। क्योंकि संसार अनादि काल से प्रवृत्ति मार्ग का बना हुआ है, निवृत्ति मार्ग का नहीं बना हुआ है। और बाबा भी इस संसार में स्वर्ग लाना चाहते हैं। प्रवृत्ति में पवित्रता स्थापन करना चाहते हैं। तो बाबा जब हम बच्चों को ज्ञान देते हैं तो ज़रूर बाबा को पता है ना कि हम गृहस्थ में हैं, हम कलियुगी दुनिया में हैं और ये जानते हुए भी बाबा हम बच्चों को कहते हैं इसका अर्थ यही हुआ ना कि ज़रूर हमारा जीवन में धारण करना पॉसिबल है तब तो बाबा कहते हैं। जो चीज़ आचरण में ला ही नहीं सकते हैं वो बात बाबा क्यों बोलते? बाबा व्यर्थ थोड़े बोलते हैं। ज़रूर ये जीवन में धारण करना शक्य है तब तो बाबा कहते हैं। और हम सबको ये निश्चय हो कि जो बाबा कहते हैं वो सत्य है और कल्याणकारी है। जब ये निश्चय हमें हो जाता है तब हमारी बुद्धि का भटकना समाप्त हो जाता है। हमारा एक मन्दिर से दूसरे मन्दिर में, एक सत्संग से दूसरे सत्संग में, एक गुरू से दूसरे गुरू में, एक शास्त्र से दूसरे शास्त्र में भटकना समाप्त हो जाता है। मिन्स भक्ति हमारी पूरी हो जाती है। इसको कहते हैं निश्चय। तो सुनना, समझना और फिर है स्वीकार करना। बौद्धिक रूप से कन्विन्स करना। निश्चय कर लेना, दिल से मानना। ये बहुत ज़रूरी है। ये ज़रूरी नहीं है कि आप रोज़ क्लास में आते हैं इसलिए बाबा की हर बात मानते हैं, नहीं। इनडिविज़्वूअल। हरेक अपने चार्ट को जानता है कि सचमुच मैं कितना बाबा की बातों को दिल से स्वीकार करता हूँ। और जब निश्चय हो जाता है हम दिल से स्वीकार करते हैं फिर धारणा में लाना सहज हो जाता है। फिर कोई युद्ध नहीं रह जाता। कैसा भी त्याग करना पड़े, कैसे भी नियम-संयम में खुद को चलाना पड़े। हमारा मानसिक युद्ध भी नहीं होना चाहिए। अगर ईश्वरीय नियम मर्यादाओं में चलना हमें मुश्किल लगता है हमारे मन में युद्ध चलता है इसका अर्थ यही होता है कि हमने दिल से बाबा की बातों को स्वीकार नहीं किया है। अगर हम दिल से स्वीकार करते हैं और हमें बाबा में निश्चय है कि ज्ञान की सत्यतामें निश्चय है तो हमें कोई बात मुश्किल नहीं लगेगी। इसलिए हर महावाक्य को समझना बहुत ज़रूरी है जिसको हम कहते हैं दिव्य बुद्धि, सद्विवेक। बाबा कहते हैं वो बरोबर है। लेकिन बाबा कहते हैं वो ही बात मेरा दिल भी कहता है। तो वो आचरण में आयेगा। बाबा तो कहते हैं लेकिन मेरा कहना तो ये है मेरा मानना तो ऐसा है। बाबा तो कहते हैं लेकिन मेरी इच्छा तो ऐसी है, मेरा मन तो ये कहता है जब तक ये बात है बुद्धि का समर्पण नहीं है धारणा शुरू नहीं हो सकती। तब तक हमें पुरूषार्थ मुश्किल लगेगा। एक्यूरेट यही बात गीता में भी कही है उदाहरण के तौर पर गीता में जो दिखाया गया है वो मैं बता रही हूँ कि जब भगवान ने अर्जुन को ज्ञान दिया तो अर्जुन स्वयं भी विद्वान था। इसलिए वो लगातार आर्गयूमेंट ही करता रहता है। भगवान से वो बहस करता था क्योंकि वो भी विद्वान था। इसलिए बार बार पूछता था कि भगवान तो कहते हैं लेकिन इसका अर्थ क्या है? इसको कैसे अभी अभी राजयोग कहते हैं, अभी अभी कर्मयोग कहते हैं लेकिन मेरा योग तो आपसे लगता ही नहीं है। इस प्रकार अर्जुन बहस करता हुआ दिखाते हैं। तब तक अर्जुन न निश्चय होता है और न हो भगवान के आगे समर्पण होता है। लेकिन 18 अध्याय के बाद आपने पढ़ा होगा 18 अध्याय में ये श्लोक आता है इतना ज्ञान सुनने के बाद अर्जुन लास्ट में समर्पित होता है और वो कहता है कि अब मुझे स्मृति आई है कि मैं कौन हूँ और आप कौन हैं। अब मेरे सारे संश्य समाप्त हो गये हैं। मेरा रोम रोम अब हर्षित हो रहा है। हे भगवान! अब आप जो कहेंगे वो मैं करूँगा। तब अर्जुन नष्टोमोहा स्मृतिर्लब्धा बनता है। 18 अध्याय के अन्त में। तो ये संगमयुग की ही यादगार है। प्रैक्टिकल पढ़ाई स्वयं शिवबाबा स्वयं भगवान टीचर बने प्रैक्टिकल पढ़ायें। वास्तव में अगर सत्यता को समझें तो साकार बाबा ने बाबा अव्यक्त हुए उसके साथ प्रैक्टिकल पढ़ाई तो पूरी हो गई। जो रोज़ टीचर स्वयं आकर पढ़ाते थे वो पार्ट तो पूरा हो गया उसके बाद तो रिविज़न कोर्स चल रहा है। जैसे स्कूल में भी कोर्स पूरा हो जाता है। जब तक कोर्स चलता है तो रोज़ टीचर आके पढ़ाते हैं लेकिन कोर्स पूरा होजाता है रिविज़न का टाइम आता है एग्ज़ाम के पहले तो रोज़ टीचर आकर नहीं पढ़ाते, जहाँ डिफिकल्टी लगती है वहाँ टीचर की हेल्प लेते हैं। और लास्ट है एग्ज़ाम। जब टीचर साक्षी बन जाते हैं फिर वो हेल्प नहीं कर सकते। तो बाबा का अव्यक्त होना माना प्रैक्टिकल पढ़ाई का कोर्स पूरा हो गया। अभी रिवाइज़ कोर्स चल रहा है हम सभी जो 1969 के बाद ज्ञान में आये हैं वो तो सब रिविज़न कोर्स में आये हैं। इसलिए बाबा सीज़न में आते हैं और हमे लेेटेस्ट गाइडेन्स दे जाते हैं। मेरे कहने का भाव है कि पढ़ाई पूरी हो गई और रिविज़न कोर्स चलने का समय अब समाप्त होने को आया। अब भी हम बुद्धि का समर्पण नहीं करेंगे तो कब करेंगे। और बुद्धि को समर्पण करना माना जो बाबा कहे वो ही मुझे करना है। जो नही करना है जिसके लिए बाबा ना कहना है वो मुझे नहीं ही करना है। तब कहेंगे कि हम नष्टोमोहा बनकर स्मृतिर्लब्धा बनते जा रहे हैं। प्रैक्टिकल हम एग्ज़ाम्पल बनते जा रहे हैं। तो ये है कि समझने के बाद निश्चयात्मक बुद्धि बनने के बाद, बुद्धि बाबा के समर्पण करने के बाद आचरण में ज्ञान आता है। और कर्म में ज्ञान आना,व्यवहार में श्रीमत को धारण करना, ज्ञान के हर महावाक्य का प्रैक्टिकल स्वरूप बनना उसको कहेंगे सही अर्थ में सच्चा योगी जीवन। ज्ञान का प्रैक्टिकल स्वरूप वो है योगी जीवन। हर श्रीमत की धारणा स्वरूप बनना वो है योगी बनना। योगी बनना माना ये नहीं है कि हम चार घंटा पालथी मारकर बैठ गये। और आचरण में कुछ भी नहीं।

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