कर्म करते हुए भी बार-बार यह अभ्यास करें और चेक करते रहें, मैं आत्मा मालिक करावनहार बन कर्म करा रही हूँ। अगर मालिक होशियार नहीं है, अटेन्शन थोड़ा ढीला है इसलिए चेक करेंगे तो अभ्यास की तरफ ध्यान जायेगा।
बाबा मुरली शुरू करते ही पहला शब्द कौन-सा बोलते हैं? ओम शान्ति। हमारा आदि मंत्र भी ओम शान्ति है। यह ओम शान्ति का महामंत्र सभी समस्याओं का समाधान है। लेकिन हम उस अर्थ स्वरूप में स्थित नहीं होते हैं इसलिए हमारी अशान्ति अभी तक जाती नहीं है। जैसे बल्ब के स्विच को ऑन करते हैं तो अन्धकार चला जाता है, ऐसे ही अगर हम ओम शान्ति शब्द के अर्थ में, उस स्वरूप में स्थित हो जायें तो जो भी समस्या है वह सहज समाप्त हो जायेगी क्योंकि आज की मूल समस्या है देहभान। देहभान ही भिन्न-भिन्न रूपों में समस्या को उत्पन्न करता है। कभी भी कोई समस्या आवे तो आप नोट करें कि इस समस्या का कारण किस प्रकार का देह अभिमान है? देह की वृत्ति, देहभान के संस्कार हैं तो कर्मेन्द्रियां उसी प्रकार के कर्म की तरफ आकर्षित होंगी। अभी उस देह भान को हमें मिटाना है तो क्या करें? सभी की चाहना है, उमंग है, बाबा भी बार-बार होमवर्क के रूप में इशारा दे रहे हैं।
तो जो बाबा ने कहा है वो करना ही है। सोचना नहीं है, कहना नहीं है। संगठन में हाथ तो सब उठा देते हैं, पर मन का हाथ नहीं उठाते हैं। मन में दृढ़ संकल्प का हाथ उठाना, यह है सच्चा हिम्मत का हाथ उठाना। तो अभी हमको इस देहभान के फाउण्डेशन को खत्म करना है। सिर्फ मैं आत्मा हूँ, यह कहना और इस स्वरूप में स्थित होके कहना, इसका अभ्यास और अटेन्शन(चेकिंग) कम है इसलिए मैं-मैं शब्द का प्रयोग ज्य़ादा होता है। उसकी जगह बाबा-बाबा शब्द यूज़ में आ जाये। शुरू में बाबा ने मैं आत्मा हूँ, मैं आत्मा हूँ, यह कूट-कूट के पक्का कराया। पहले तो आत्मा का ही ज्ञान था, मैं शरीर नहीं हूँ, मैं आत्मा हूँ। तो बाबा कहते थे चेक करो कि अभी मेरा मन कहाँ गया? क्या मैं आत्मा से बात कर रही हूँ या शरीर के भान में हूँ? हम लोगों ने इसका बहुत अभ्यास किया, चेकिंग करते थे। बात कर रही हूँ, तो किससे बात कर रही हूँ? सुन रही हूँ तो मैं कौन सुन रही हूँ? सुनाने वाले की दृष्टि और सुनने वाले की दृष्टि क्या है? मतलब आत्मा का ज्ञान बाबा ने बहुत पक्का कराया। अभी वह अभ्यास कम है। कामकाज में ज्य़ादा रहते हैं और अभ्यास कम है। कामकाज करते भी हम आत्मा का पाठ पक्का कर सकते हैं क्योंकि बाबा ने हमको कहा है कि तुम कर्मयोगी हो। कर्मकर्ता नहीं हो। कर्म और योग दोनों का बैलेंस चाहिए। जो काम रहे हैं, उसी के संकल्प ज्य़ादा चलते रहते तो कर्मयोगी नहीं बन सकते।
जैसे बाबा करनकरावनहार है, वैसे यह शरीर करनहार है और आत्मा करावनहार है। तो करावनहार माना मालिक। हम कर्मयोगी हैं, तो कर्म करते हुए भी बार-बार यह अभ्यास करें और चेक करते रहें, मैं आत्मा मालिक करावनहार बन कर्म करा रही हूँ। अगर मालिक होशियार नहीं है, अटेन्शन थोड़ा ढीला है इसलिए चेक करेंगे तो अभ्यास की तरफ ध्यान जायेगा। अगर हमारा मन किसी भी प्रकार से देहभान के वैरायटी रूपों में प्रभावित है, तो एक सेकण्ड में बिन्दी नहीं लगा सकेंगे क्योंकि उसके लिए कन्ट्रोलिंग और रूलिंग पॉवर चाहिए। संस्कार के वश हुए तो मन कन्ट्रोल में नहीं है ना! वृत्ति कहाँ चली जाती है, मन पर कन्ट्रोल नहीं है। तो बार-बार चेक करें कि सारे दिन में स्वराज्य अधिकारी रहे? कर्मेन्द्रियों के अधिकारी बनना है। जो बात हुई, अगर उसका ही संकल्प चलता रहता है तो यह साधारणता है। हम विश्व में न्यारे हैं, स्वराज्य अधिकारी हैं, तो उस अधिकार के रूप में मन को चलायें, क्योंकि मन ही धोखा देता है।