मुख पृष्ठलेखजहाँ डिमांड है वहाँ डिविनिटी नही

जहाँ डिमांड है वहाँ डिविनिटी नही

परमात्मा अपने हरेक बच्चे को कुछ न कुछ देना चाहता है। और दे भी क्यों नहीं? क्योंकि जब वो देखता है कि उसका हरेक बच्चा लायक है तो उसके अन्दर से ही आता है कि इसको मिलना चाहिए। लेकिन जो ऊंचे से ऊंचा है इस दुनिया में सबसे हाईएस्ट अथॉरिटी है उससे हमें कुछ मांगने की आवश्यकता है या नहीं है? क्योंकि जहाँ पर ये वाला शब्द आता है वहीं से हमारी दिव्यता, हमारी डिविनिटी नष्ट होनी शुरू होती है। कहा जाता है कि ईश्वर को लोग या भगवान को लोग थैंक्स कब करते हैं? जब उनको कुछ स्थूल में अच्छी प्राप्ति होती है, या कुछ मिल जाता है। तो खुशी निश्चित रूप से होनी ही चाहिए और होती भी है। लेकिन उस खुशी को व्यक्त करने का आधार स्थूलता या प्राप्ति को मानते हैं।
परमात्मा हमेशा हमको कहते हैं कि तुम देवता बन जाओ, तुम्हारे पास सारी चीज़ें अपने आप आ जायेंगी। अवेलेबल(उपलब्ध) हो जायेंगी। लेकिन अगर सारी चीज़ें हमारे पास नहीं पहुंच रही हैं, सन्तुष्टता का लेवल लॉ है तो ज़रूर कुछ न कुछ कमी है, जिसको हमको ढूंढना है। कहा जाता है कि ऊपर से जो कोई चीज़ छोड़ी जाती है तो बहुत तेज़ी से नीचे आती है। इसका मतलब हुआ कि परमात्मा सबसे ऊंचे से ऊंचा है। जब उससे हम शक्ति और गुण लेते हैं, उससे ताकत लेते हैं तो शक्ति, गुण लेने के बाद हमारी दिव्यता, हमारी अलौकिकता, हमारा सबकुछ बहुत तेज़ी से बढऩा चाहिए। लेकिन नहीं बढ़ रहा है क्योंकि हमारे मन में जो हमारी कमियां हैं, कमी का मतलब रहने की, खाने की, पीने की, कोई भी ऐसी चीज़ जो स्थूल में हमको नहीं मिली है, उसके लिए भी हम कई बार परमात्मा से जुड़ते हैं। भले ऊपर-ऊपर से हम कहते हैं कि हमें इन सारी चीज़ों से क्या लेना? हमको तो भगवान मिल गया। लेकिन परमात्मा के मिलने के बाद भी अगर डिविनिटी में कमी आ रही है तो ज़रूर कोई न कोई डिमांड है। अब उस डिमांड की सूक्ष्मता हमको वो वाला अनुभव नहीं करने दे रही है जो हमको करना चाहिए। और जब वो अनुभव नहीं होता तो धीरे-धीरे हम सभी उस स्थूलता में अपने आप को ले जाते हैं।
फिर धीरे-धीरे एक समय ऐसा आता है कि देखो हमको परमात्मा ने इतना कुछ दिया, ये उसकी कृपा ही तो है। निश्चित रूप से कृपा है। लेकिन उस कृपा में एक चीज़ हम सबके लिए जो सोचने वाली चीज़ है, वो ये है कि अगर वो कृपा हुई भी है तो हमारे खुद के पुरूषार्थ से, खुद के भाग्य से। परमात्मा सिर्फ और सिर्फ हमको शक्तियां प्रदान करता है। शक्ति देता है ताकि मैं उस चीज़ के लिए सोच सकूं और कल्याणकारी सोच सकूं। लेकिन इतने समय तक अभ्यास करने के बावजूद भी अगर हमको थोड़ी-थोड़ी भी, हम सबके अन्दर जैसा परमात्मा चाहते हैं कि देवताओं की तरह चाल हो, भाव हो, व्यवहार हो, जो मोहजीत हो, इस दुनिया से कोई लगाव नहीं हो। सबकुछ है वो फिर भी बिल्कुल डिटैच्ड हो। तो ये सारे भाव क्यों नहीं पैदा होते क्योंकि हम सभी अभी भी अन्दर से किसी न किसी डिमांड के साथ जुड़ते हैं। इसीलिए जिस दिन अन्दर से हमारी एक-एक डिमांड खत्म हो जायेगी, हमारी डिविनिटी उभर कर आयेगी। चाहे वो सूक्ष्म से हो, चाहे वो स्थूल हो। दोनों में हमारी ऊर्जा नष्ट हो रही है। ये हम सबको बैठकर मनन-चिंतन करना है।
जिस चीज़ में हमारी ऊर्जा ज्य़ादा नष्ट होती जा रही है, आप सोचो वो इस दुनिया में सबको पता है कि ये चीज़ें नश्वर हैं, आज नहीं तो कल चली जायेंगी। लेकिन जो हमको पाँच हज़ार साल तक चलायेगा उसके बारे में परमात्मा हमको रोज़ कहते हैं कि तुमको सिर्फ संकल्प करके अपने आपको इस दुनिया में मेहमान समझकर जीना है। लेकिन आप सोचो कि क्या वो मेहमान समझने का भाव गहराई से उतरा है? अगर उतर गया तो डिविनिटी आ जायेगी। लेकिन नहीं उतर रहा है तो हम डिविनिटी से बहुत दूर होते जा रहे हैं। इसलिए डिमांड को थोड़ा-सा, जैसे दुनिया में कहा गया है ना कि जितना डिमांड होती-होती सप्लाई होती है, लेकिन यहाँ उल्टा है जितना डिमांड है उतना हम रिप्लाई करते हैं।
तो जितना डिमांड बढ़ती गई उतनी डिविनिटी घटती गई। इसलिए इस भाव को लेकर ही हमें पुरूषार्थ पर ज़ोर देना चाहिए। ताकि धीरे-धीरे हम अपने अन्दर के सूक्ष्म और स्थूल दोनों डिमांड्स को कम करें। और अपनी डिविनिटी को बढ़ा सकें। ताकि जिसको मिलें, जिससे बात करें उनको लगे कि जैसे ये दुनिया से बिल्कुल डिटैच्ड हैं, अटैच्ड नहीं हैं। अपनी ऊर्जा को इन छोटी-छोटी चीज़ों में नष्ट करने से हमारी दिव्यता कहीं खोती जा रही है। सोचनीय विषय है, सोचेंगे तो ज़रूर कुछ न कुछ उत्तर मिलेगा और हम सभी पुरूषार्थ को आगे लेकर चल पायेंगे।

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