अमृतवेला है वरदाता बाप से वरदान लेने का

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हम बाबा के कितने लक्की, भाग्यशाली बच्चे हैं। बाबा हमें इतनी लाइट देता, शक्ति देता, सेफ्टी में रखता, इसको कहते हैं माया तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकती।

एक बार अमृतवेले आँख खुलते ही एक आवाज़ सुनी जैसे कोई ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा है, पुकार रहा है, आवाज़ कर रहा है। इधर-उधर देखा कुछ नहीं नज़र आया, ऐसे भी लगा जैसे कोई मर गया हो, इतने में ही रिकार्ड बजा साढ़े तीन का, उठी। आकर बाबा के पास, बाबा की मीठी यादों में बैठी। ऐसी भासना आई बाबा बार-बार यह कह रहा है बच्ची अब बहुत जल्दी वो दिन आना है, जब तुम्हारे विजय के नगाड़े बजने हैं। दुनिया देखती ही रह जायेगी, तुम उड़के चले जायेंगे। तुम शक्तियों की सिद्धि कहो, सफलता कहो, विजय कहो, अब बहुत ज़ोर से सारी दुनिया में यह आवाज़ उठनी है, इसलिए सबको बोलो- कोई भी बीता हुआ कुछ भी न देखे, यह क्या होगा, कैसे होगा यह न सोच सब आगे-आगे बढ़ते जाओ। ऐसे ही सुबह के टाइम कई बार बाबा कुछ प्रेरणा दे देता।
मैं बाबा से पूछती हूँ क्या सिद्धियों को सामने लाना है, क्या सिद्धियों का आह्वान करना है, या सिद्धि स्वरूप बनना है? या सिद्धि स्वरूप हैं? उसी घड़ी आता मैं ये सूक्ष्म संकल्प भी क्यों उठाऊं, मुझे सिद्धि स्वरूप बनना है। क्यों न समझूं मैं हूँ ही सिद्धि स्वरूप। न हूँ तो संकल्प उठाऊं। शक्य हो तो पुरुषार्थ करूँ। हमारे मस्तक पर लिखा है चमकती हुई मणियां हो, मणि का अर्थ ही है चमकना। कल्प पहले भी चमक वाली मणि थी, आज भी हूँ, हमें नशा रहता हम हैं ही बाबा की चमकती हुई मणियां, सिद्धि स्वरूप मणियां, हम कोई झूठे पत्थर नहीं हैं। हम तो सच्चे पन्ना और माणिक हैं, तब तो हमारे ऊपर पुखराज परी, नीलमपरी का गायन है। हर बात में मैं अपने को सफलतामूर्त, विजयी देखती हूँ, मैं कभी दिलशिकस्त नहीं होती।
अमृतवेले ऐसी मीठी-मीठी रूहरिहान बाबा से चलती है। बाबा हम बच्चों को रोज़ हर तरह से पुश करता। सवेरे का टाइम है वरदान लेने का और शाम का टाइम है वरदान देने का। यह कैसे? सवेरे जब मैं बैठती तो जैसे ऊपर से फोकस की तरह सारे वरदान बाबा मुझे दे रहा है, ऐसे लगता है जैसे किसी चीज़ पर सर्व प्रकार के लाइट के फोकस दिये जाते- वैसे सारे वरदानों का फोकस बाबा देता और मस्तक चमकता जाता- गोल्डन होता जाता। इन जटाओं पर जैसे स्नो फॉल की तरह लाइट का फॉल बह रहा है। ऐसे मैं स्वयं के साथ-साथ सबको देखती हूँ। सवेरे-सवेरे बुद्धि दिव्य रहती, देह भान से परे बाबा में रहती, सतोप्रधान होती, उस टाइम बाबा से सहज ही बुद्धि जुटी होती, वह घडिय़ां ऐसे अनुभव होती जैसे सारे दिन के लिए बाबा सबकुछ कर देता है, तब कहा अमृतवेला है वरदाता बाप से वरदान लेने का। कई बार बाबा गुह्य ज्ञान की लहरों में ले जाता, कई बार सर्विस की नई-नई प्रेरणायें देता, शक्तियां भरता फिर कहता बच्ची मैंने छत्र रख दिया- अब जाओ सारा दिन राजधानी में सेवा करो, सिंहासन पर तो छत्रधारी ही बैठेंगे ना! कई बार सुबह सुस्ती होती, इधर सुस्ती आती उधर चुस्त करने बाबा उठा ले जाता, फिर कहता देखा उठी तो क्या पाया? बाबा कहता बच्ची सुस्त नहीं बनो, उठो तो छत्र रखूँ, अमृतवेले बाबा छत्रछाया का छत्र रख देता है। माया से विजय पाने के लिए बाबा छत्र पहना देता है, कोई भी दुश्मन नहीं आता, दूर से ही भाग जाता, इसलिए कहते हैं सवेरे-सवेरे बाबा की छत्रछाया के नीचे बैठो तो छाया में रहने से माया परे हो जायेगी।
मैं देखती हूँ अमृतवेले बाबा के सामने जैसे अनेक बच्चे बैठे हैं- बाबा सबके ऊपर हाथ फिराता जाता, यह कोई भक्ति नहीं, बाबा हम सबके ऊपर सिर से पांव तक हाथ घुमा देता कि बच्चे तुम सदा छाया में रहना, माया का तुम्हारे ऊपर कोई वार न हो। इसको कहते हैं कदम में पदम, बाबा अपनी लाइट-माइट से माया की नज़र उतार देता है। हम बाबा के कितने लक्की, भाग्यशाली बच्चे हैं। बाबा हमें इतनी लाइट देता, शक्ति देता, सेफ्टी में रखता, इसको कहते हैं माया तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकती। ऐसा हम सभी के लिए देखती, सब आकारी रूप में फरिश्ते होते। सबको बाबा रूहानी दृष्टि देता फिर कहता जाओ सारा दिन कामकाज करो, मैं अपना साकारी रूप नहीं देखती। मैं बाबा की परीज़ादी हूँ, बाबा और बाबा के हम बच्चे चमकती हुई मणियां हैं, बस। यह सब सुनाने का सूक्ष्म भाव यह है कि आप सब भी अपने को बहुत-बहुत महान आत्मा समझो। यह अन्डरलाइन करो, हम कम नहीं, पता नहीं यह होशियार हैं, मैं ऐसी हूँ, यह ऐसी ऐसा कभी भी नहीं सोचो। छोटी भी सुभान अल्ला तो बड़ी भी। छोटी भी महान आत्मा तो बड़ी भी।
हम सबको निश्चय है हमें भगवान पढ़ाता है, हम ईश्वरीय परिवार के हैं, ब्रह्मा बाबा हमारी गुप्त माँ है, हम भगवान के प्यारे हैं, हम शेरणी शक्तियां हैं। हम सबका टाइटल, निश्चय, सरनेम एक ही है, हम ब्राह्मण कुल भूषण हैं, इसलिए कभी भी अपने को नीचा नहीं समझो। नम्रता गुण है, नीच दासपना है। भावना महान रखो, चलन नम्रता की रखो।
शाम का टाइम है देने का, मैं समझती हूँ मैं योग में नहीं बैठती लेकिन जो हमारे शुद्ध संकल्प, याद के संकल्प हैं, वह सारे विश्व में जा रहे हैं, दिखाते हैं देवतायें ऊपर में फेरी पहनते हैं। मैं अनुभव करती जैसे बहुत ऊपर-ऊपर सूर्य खड़ा है, वैसे हम भी खड़े हैं, हमारी योग की भावनायें ऊपर-ऊपर जाती हैं, ऊपर से हम दान दे रहे हैं, जिसको ही हम योगदान कहते हैं। सवेरे का समय है अपने में भरने का और शाम का है देने का।
हमारे ज्ञान की सबसे पहली बात है कि किसी में भी अटैचमेंट न हो, अटैचमेंट का पहला कांटा है। अटैचमेंट अर्थात् किसी से विशेष प्यार… इसी से चूँ चाँ होती, यही है माथा खपाने वाली बात, यह कांटा किसी में नहीं हो।

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