पिछले अंक में आपने पढ़ा कि चुनौति है कि अन्य कोई भी मनुष्यात्मा जो अपने को परमात्मा का अवतार मानती है, अवतरण के विषय में सत्य ज्ञान दे ही नहीं सकती।अब आगे पढ़ेंगे…
आत्मायें कब और कहाँ से आती हैं और कब लौटती हैं – यह परमात्मा ही बताता है…
कोई भी लौकिक गुरु, विद्वान अथवा स्वयं को परमात्मा का अवतार कहने वाला कोई व्यक्ति बता ही नहीं सकता कि मनुष्यात्मायें इस सृष्टि मंच पर कहाँ से और कब आने लगती हैं, मनुष्यात्माओं का रूप क्या है, वह किस-किस धर्म-वंश में आकर जन्म लेेती हैं, यह मनुष्य सृष्टि कैसे वृद्धि को प्राप्त होती है और फिर आत्मायें कब और कैसे अपने धाम को वापिस लौटती हैं। एकमात्र गीता का भगवान ही बताता है कि ब्रह्मा की रात्रि का अन्त होने पर वापिस लौट जाती हैं। ब्रह्मा का स्वरूप क्या है, उसके दिन और रात्रि से क्या अभिप्राय है, मनुष्यात्मायें तो इसका भी विवेकयुक्त स्पष्टीकरण नहीं दे सकतीं। परमात्मा, जो ही ब्रह्माण्ड का मालिक है और इस मनुष्य सृष्टि का रचयिता है, इस भेद को खोल सकता है।
विनाश का ज्ञान और साक्षात्कार…
क्योंकि अधर्मों तथा आसुरी सम्प्रदायों का विनाश परमात्मा ही शंकर रूप द्वारा कराते हैं, अत: विनाश कब, किनका, क्यों और कैसे होता है, इसका ज्ञान और साक्षात्कार भी स्वयं परमात्मा ही अवतरित होकर कराते हैं। मनुष्यात्मायें न विनाश कराने के निमित्त हैं, न ही वे उसका साक्षात्कार करा सकती और ज्ञान दे सकती हैं। अत: कोई भी मनुष्यात्मा जो अपने को परमात्मा का अवतार मानती हैं, विनाश का पूर्ण परिचय कदाचित्त दे ही नहीं सकती। गीता के भगवान ही एकमात्र ऐसी आत्मा हैं जो कहते हैं कि क्रक्रमैं महाकाल हूँ, सारी सृष्टि का विनाश ही मेरा अभिप्राय है। हे वत्स, देख, विनाश के कारण कैसे मनुष्यात्मायें मच्छरों के सदृश्य मेरे परमधाम को लौट रही हैं। हे वत्स, यह समस्त आसुरी सम्प्रदाय जो तमोगुण और विकारों के प्रभाव में है और जो लोग अपने को भगवान अथवा शिव कहते हैं या ईश्वर को नहीं मानते, विनष्ट हुए ही पड़े हैं।
परमात्मा युगल रूप रचता है…
आप देखेंगे कि अन्य मनुष्यात्मायें जो अपने-अपने धर्म की स्थापना के निमित्त बनीं, युगल नहीं थीं। परमात्मा ही है जो ब्रह्मा-सरस्वती(आदिनाथ-आदिदेवी,ऐडम-ईव अथवा आदम-हौऊ) का रूप रच कर युगल रूप से सतयुगी सृष्टि अथवा धर्म की स्थापना कराता है। यह बात अलग है कि लोगों ने युगल श्री कृष्ण और श्री राधे को ही गीता-ज्ञान का निमित्त मान लिया है जबकि वास्तव में परम-आत्मा ही ब्रह्मा-सरस्वती(जो ही अगले जन्म में क्रमश: श्री कृष्ण और श्री राधे बनते हैं) का युगल रूप रचते हैं।
परमात्मा धर्म-स्थापना का कार्य माताओं द्वारा कराते हैं…
यह भी प्रसिद्ध है कि गीता के भगवान ने अनेक माताओं-कन्याओं को जरासंध इत्यादि की जेलों से मुक्त कराके अतीन्द्रिय सुख प्रदान किया। यही भारत-मातायें, शक्तियां अथवा गोपियां ही प्रमुख रूप से भगवान द्वारा धर्म-स्थापना के कार्य में योगदान देती हैं। अत: पहचान की यह भी एक युक्ति है कि गीता के भगवान धर्मग्लानि के समय अवतरित होकर माताओं-कन्याओं द्वारा ही धर्म-स्थापना का कार्य कराके ‘माता गुरु की प्रथा’ चलाते हैं। लौकिक मनुष्यात्मायें अथवा धर्मस्थापक तो स्रियों को ‘माया का रूप मानते’ उनको छोड़ कर जंगल में भाग जाते, पति को ही स्रियों का गुरु बताते हैं। परमात्मा ही है जो कि माताओं-कन्याओं को सहज ज्ञान देकर उठाता है।
परमात्मा का अवतरण प्रवृत्ति मार्ग के एक साधारण वृद्ध मनुष्य के तन में होता है…
गीता के भगवान किसी सन्यासी, महात्मा, विद्वान इत्यादि की देह में अवतरित नहीं होते, तभी तो वह दैवी प्रवृत्ति मार्ग का उपदेश करते हैं। वह तो प्रवृत्ति मार्ग के एक साधारण, वृद्ध मनुष्य शरीर का आधार लेते हैं, जिसे(प्रवेशता के पश्चात्) ब्रह्मा कहते हैं और जिसका कि अनेक जन्मों के अन्त के जन्म का भी अन्तिम चरण होता है। अन्य कोई मनुष्यात्मा ऐसा स्वांग रच ही नहीं सकती- ऐसी है युक्ति इस विराट सृष्टि-नाटक की।
परमात्मा ही मन्मनाभव का उपदेश करते हैं…
किसी मनुष्यात्मा को यह सामथ्र्य ही नहीं कि वह कहे कि ”मैं तुम्हें परमधाम ले चलूँगा। हे वत्स, तू मेरी शरण ले, मैं तुम्हें सब पापों से मुक्ति दे दूँगा।” पाप-नाशक शक्ति एक ही सर्वशक्तिवान भगवान में है। भगवान की शरण लेने का क्या अर्थ है, उससे पाप कैसे समाप्त होते हैं, शरण लेने की क्या आवश्यकता है, यह सब गुह्य रहस्य स्वयं परमात्मा ही खोलता है। ‘मन्मनाभव’ का आदेश-उपदेश भी परमात्मा के सिवा अन्य कोई नहीं दे सकता। यदि कोई मनुष्यात्मा जो अपने को परमात्मा का अवतार बताती है, यह उपदेश करे भी तो वह ‘मन्मनाभव’ का न सत्य अर्थ बता सकती है और न ही उसकी याद में रहने से पवित्रता, सुख-शांति की पूर्ण प्राप्ति हो सकती है – यह निश्चित है।