योगी के शत्रु कौन?

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योगी का कोई शत्रु नहीं होता। सब उसके मित्र होते हैं। दूसरे उससे शत्रुता रखे हुए भी हों तो भी योगी तो उनको अपने मित्र ही मानकर चलता है। ठीक है, हमें इस दुनिया में सावधान रहना पड़ता है। हम ब्राह्मण यज्ञ के रक्षक हैं, हमारी यह शुभ-भावना है कि इसको कोई हानि भी नहीं पहुँचे और हम भी अपने पुरुषार्थ में ठीक चलते चलें। इस संसार में बहुत कुटिलता है, लोग धोखा भी देते हैं। सब तरह के लोग हैं। उनसे हम सावधान तो रहते हैं, परन्तु हमारे मन में उनके प्रति कोई शत्रुता का भाव, कटुता का भाव न हो तभी हमारा योगी जीवन चल सकता है। परन्तु यह तो क्रशत्रुञ्ज शब्द की साधारण-सी व्याख्या है। शत्रु प्राय: हम उसको कहते हैं जो हमें हानि पहुँचाने पर तुला हुआ हो, चाहे वह ईष्र्या-द्वेष के वश हो, चाहे बदले की भावना लिये हुए हो। शत्रु अर्थात् नुकसान पहुँचाने वाला। तो हम किसी को यह मानकर न चलें कि वह हमारा शत्रु है। योगी का कोई शत्रु नहीं होता।
बाबा ने कहा है कि साधारण भाषा में, योग का अर्थ है याद, स्मृति। जैसी हमारी स्मृति होगी, वैसी हमारी दृष्टि, वृत्ति, कृति सब-कुछ होगा। यह बहुत बड़ी श्रेष्ठतम बात है, बहुत महत्त्वपूर्ण बात है कि स्मृति से विश्व परिवर्तन हो सकता है, वृत्ति से सृष्टि बदलती है। किसी ने इस बात को समझा नहीं। सृष्टि को बदलने के लिए लोग अन्यान्य उपाय करते रहे। सुधारक आये, प्रचारक आये। बहुत-से लोगों ने अपनी-अपनी रीतियाँ अपनायीं। लेकिन यह बात किसी ने नहीं सोची कि जैसी वृत्ति, वैसी ही सृष्टि बनती है। संकल्प से सृष्टि रची जाती है। यह तो कहते हैं कि भगवान ने संकल्प से सृष्टि रची लेकिन वो संकल्प कौन-सा था, कैसा था जिससे सृष्टि रची गयी, परमात्मा के सहयोगी कौन बने थे, उनको पता ही नहीं है। उन्होंने(भगवान के सहयोगियों ने) भी विशेष प्रकार के संकल्प किये। देखिये, संकल्प कितनी महान् शक्ति है! इससे सृष्टि को बदला जा सकता है।

सारा कल्प ही हमारे संकल्पों से चलता है
संकल्प को कोई साधारण बात मत समझिये। आप समझते हैं कि मेरा संकल्प उठा, उसको दबा दिया। संकल्प चला, उसको मुख में लाकर वर्णन कर दिया। संकल्प चला, उसको कर्म में लाकर कोई नुकसान कर दिया, किसी को दु:ख दे दिया। तो संकल्प से हम जो कार्य करते रहते हैं, तो यह हमारा साधारण, लौकिक और विकारयुक्त संकल्प है। सारे दिन में उठते-बैठते, चलते-फिरते हम कितने संकल्प करते हैं! हमारी सब गतिविधियाँ संकल्प से ही तो हैं। सारा कल्प ही हमारे संकल्पों से चलता है। कल्प और संकल्प सम्बन्धित हैं। यह कल्प क्या है? कल्प को कल्प क्यों कहते हैं? पाँच हज़ार वर्षों तक हमारे अलग-अलग संकल्प चलते रहते हैं। उसके बाद फिर पुनरावृत्त होते रहते हैं। जब तक भिन्न-भिन्न संकल्प चलते हैं, वह समय अवधि 5000 वर्ष है। चलते तो बाद में भी हैं लेकिन उनकी पुनरावृत्ति होती है, दूसरा कल्प शुरु होता है। चक्र दूसरा होता है। संकल्प से हमारा कर्म, हमारा भाग्य बनता है, संकल्प से हम महानता की ओर अथवा पतन कीओर जाते हैं। यह सीढ़ी उतरना और चढऩा- संकल्पों से ही है। तो क्या हम संकल्प को इतना महत्त्व देते हैं? या उसको ऐसे ही $खर्च कर देते है?

हम लोग भी ऐसा ही तो नहीं करते?
एक व्यक्ति धनवान घराने से था। उसको अपने माता-पिता से बहुत सम्पत्ति मिली थी। उस सम्पत्ति के नशे में वो जो सिगरेट पीता था, उस सिगरेट पर दस रुपये का नोट लपेटकर पीता था। सि$र्फ सिगरेट नहीं, उस पर दस रुपये का नोट भी लपेटता था, तब वो सिगरेट पीता था। जो उसके पास बैठे होते थे, देखकर हैरान होते थे कि दुनिया $गरीब है, भारत में लोगों को खाने के लिए नहीं है, $गरीबी से मर रहे हैं और यह सिगरेट पर दस रुपये का नोट लपेटकर पीता है! वो व्यक्ति इससे अपनी शान समझता था कि पैसे की क्या बात है! हमारे पास तो बहुत धन है। हम लोग भी उल्टे नशे में, देह-अभिमान के नशे में जो संकल्प रुपी धन है, अनमोल धन है, उसको व्यर्थ तो नहीं गँवा रहे हैं? उस धन से हम कहाँ पहुँच सकते हैं, आप सोचिये तो सही। कितनी महान् हमारी स्थिति हो सकती है! जैसे वो सिगरेट के ऊपर दस रुपये का नोट लपेटकर पीता था, वैसे ही हमारा हाल है। हम संकल्पों को गँवाते हैं, संकल्प के महत्त्व को नहीं जानते, वृत्ति के महत्त्व को नहीं जानते। हमारी वृत्तियाँ बदलती रहती हैं, कभी अशुद्ध, कभी शुद्ध, कभी देह-अभिमान जनित, कभी आत्म-अभिमान जनित। कभी योगयुक्त, कभी योगभ्रष्ट हमारी वृत्तियाँ रहती हैं। अगर कोई पाँच कदम आगे बढ़े और दस कदम लौट आये तो उसने प्रगति की या अवनति की? आप कहेंगे, अवनति की क्योंकि बढ़ा तो पाँच कदम और वापिस लौटा दस कदम। तो वो आगे क्या बढ़ा?
ऐसे ही हमने ट्रैफिक कन्ट्रोल के समय, योग के समय कुछ अच्छे संकल्प किये, हमारी वृत्ति अच्छी रही और बाकी समय में हमारी वृत्ति खराब रही तो हम वापिस लौट आये। जितना फासला हमने योग के द्वारा तय किया था, उससे भी कई गुणा ज्य़ादा व्यर्थ में चला गया। समय तो हमारा सारा काम के लिए लगता है, योग में तो कम समय लगाते हैं, उसमें थोड़ा-सा ही चल पाये। कुछ समय मन को स्थिर करने में लगाया और जब वो स्थिर होकर ठीक होने लगा तब तक योग का समय समाप्त हो गया। उसके बाद दिनभर दूसरों के अवगुण नोट करते रह गये। दूसरों से हमारा व्यवहार श्रेष्ठ नहीं रहा। लेकिन ज़रुरत है कि हमारी वृत्ति बिल्कुल देवताओं जैसी सर्वोत्तम, सतोप्रधान, निर्मलचित्त, सन्तुष्टचित्त, हर्षितचित्त हो। सन्तुष्ट, निर्मल और हर्षित— ये तीनों गुण हम में हों। हमारी स्थिति स्थिर होने के बदले कभी ऊपर, कभी नीचे होती रही तो दिनभर में क्या प्रगति रही? अगर प्रगति नहीं होगी तो मन सन्तुष्ट कैसे होगा? मन सन्तुष्ट नहीं होगा तो हर्षित कैसे होगा? अगर सन्तुष्ट नहीं, हर्षित नहीं तो उसे व्यक्ति में प्रेम भी कैसे होगा? अगर ये सब उसमें नहीं होंगे तो उसकी सतोप्रधान वृत्ति कैसे होगी? अगर सबकी वृत्ति ऐसी नहीं होगी, तो सतयुग आयेगा कैसे? हम मनुष्य से देवता बनेंगे कैसे अगर हमें अपने संकल्पों के प्रयोग का महत्त्व और अपनी वृत्तियों को ठीक बनाये रखने का महत्त्व ही मालूम नहीं लेकिन विशेष रुप से मैं यह कह रहा था कि योगी का कोई शत्रु नहीं। यह बात बहुत-बहुत-बहुत महत्त्वपूर्ण है। क्यों यह बात महत्त्वपूर्ण है? मैंने शुरुआत इस बात से की थी कि योग का अर्थ बाबा ने कहा है, क्रयादञ्ज, क्रस्मृतिञ्ज। उस स्मृति को लेकर ही मैंने संकल्प और वृत्ति की बात की थी। लेकिन प्रारम्भ मैंने स्मृति से किया था।

                     

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