मुख पृष्ठब्र.कु. उषाविदेही बनना माना स्वमान का स्वरूप होना

विदेही बनना माना स्वमान का स्वरूप होना

पिछले अंक में आपने पढ़ा कि जो एकदम ऐसे न्यारे हो जायें धीरे-धीरे सारी रेस्पॉन्सिबिलिटी को भी हमने निभाकर उसको भी पूरा कर सम्पन्न कर दिया। किसी को नाराज़ भी नहीं किया। सम्पूर्ण खिला हुआ रहे। अपनी खुशबू भी फैलाई। लेकिन सम्पूर्ण खिल करके सारी पत्तियों को झड़ करके बीच का जो बुर रह गया माना अशरीरी हो गया। तो ये स्वीट साइलेंस है। उसके बाद है डीप साइलेंस। और डीप साइलेंस किसको कहेंगे? डीप साइलेंस का मतलब है गहराई में खो जाना, समा जाना। बाहर की दुनिया से एकदम अपने आप मन और बुद्धि को ले जाना है विदेही स्थिति में। अब यहाँ पर एक बात ये भी समझनी है कि विदेही और अशरीरी में क्या अंतर है? है कोई अंतर? या खाली शब्दों का ही अंतर है? क्या कहेंगे? विदेही और अशरीरी दोनों एक ही हैं या अलग हैं? देखो राजा जनक जो था ना विदेही था, अशरीरी नहीं था। इसीलिए बाबा कई बार कहते हैं विदेही बनना है। राजा जनक की तरह एक सेकंड में विदेही स्थिति में स्थित हो जाना। कहा जाता है कि रामायण में एक बात आती है, जब सीता जी जंगल में जा रही थी वनवास मिला तो उस वक्त उसके मायके से मैसेज आया सीता जी के लिए और मैसेज में उसके पिता ने यही कहा कि तुम वन में जा रही हो चौदह साल के लिए तो विदेही बनकर रहना। इसलिए विदेही बनकर रही वो, इसलिए रावण उसको स्पर्श नहीं कर सका। कहने का भावार्थ विदेही स्थिति में कोई भी बुराई हमें स्पर्श नहीं कर सकती। और हम मुक्ति-जीवनमुक्ति की स्थिति में सहज आ सकते हैं इसलिए विदेही स्थिति के लिए प्रतिदिन आपको एक सुबह-सुबह स्वमान दिया जाता है किसलिए? विदेही बनने के लिए। तो विदेही बनना माना स्वमान का स्वरूप होना। स्वमान के स्वरूप होकर उसकी गहराई में जाना। जो कहा ना डीप साइलेंस। ऐसा स्वरूप बनकर उसकी गहराई में समा जायें और उसका वास्तविक अनुभव करते जायें उसको कहा विदेही। ये स्वमान कोई जपने के लिए थोड़ी दिया है कि रोज़ स्वमान अगर मैं ले लूं तो उसका सारा दिन जाप करती रहूँ, जाप नहीं करना है लेकिन उसका स्वरूप बनना है। जैसे शुरू-शुरू में दादियां सुनाती थीं कि बाबा ने हम बच्चों को चौदह साल की तपस्या कराई तो उसमें भी बाबा ने स्वमान दिया था। और स्वमान क्या दिया था क्रमैं चतुर्भुज हूँञ्ज अर्थात् दो हाथ नर के और दो हाथ नारी के। कोई भी कार्य के लिए ये नहीं कहना कि ये तो मैं नहीं कर सकती हूँ क्योंकि मैं नारी हूँ। चतुर्भुज माना दोनों ही। हमने भी अल्टरनेट क्या किया है, मेल का बॉडी भी लिया है और फीमेल का बॉडी भी लिया है। तो दोनों संस्कार हैं ना हमारे अन्दर? तो बाबा ने ये स्वमान देकर दोनों संस्कारों को इस तरह से जागृत किया कि निर्भय बना दिया सब बच्चों को। ऐसा निर्भय थे कि वो डरते नहीं थे। रात का पहरा देती थी बहनें। ट्रक चलाती थी। निर्मल शांता दादी ने बताया कि मैकेनिक का काम करते थे। बड़े-बड़े टॉप में छोटे-छोटे बच्चे अन्दर घुस कर साफ करते थे। क्यों? क्योंकि ये नहीं कहे कोई बच्चा कि मैं ये काम नहीं कर सकता हूँ। इस तरह से जीवन में रहते हुए जिसको कहा जाये ना आत्मनिर्भर। किसी के ऊपर भी आधारित न हो। ये हो तो ही काम हो, ये न हो तो काम न हो। नहीं। हम चतुरर्भुज हैं। और जितनी बार वो स्वमान को हम अन्दर में याद भी करते हैं उतनी बार हम उस संस्कार को जागृत करते हैं। और इस तरह से बाबा ने जब कहा कि स्वमान की माला दी है तो इस तरह से रोज़ स्वमान लेकर उसके स्वरूप बनो। तो जो देह भान के जो संस्कार हैं उसको सहजता से समाप्त कर सकेंगे। इसलिए विदेही बनना अशरीरी के पहले विदेही बनना बहुत आवश्यक है। जब तक विदेही नहीं बनेंगे, रहना देह में ही है, कर्म भी सबकुछ करना है, भौतिकता के बीच में रहना है लेकिन विदेही। क्योंकि स्वमान का स्वरूप लेकर विदेही बनना है। देही अभिमानी और विदेही में ये अंतर है। कि देही अभिमानी आत्मा के सात गुणों की ऊर्जा को कर्म में लाना और विदेही माना कोई न कोई श्रेष्ठ स्वमान की ऊर्जा को व्यावहारिक रूप मेंले आना। जीवन में ले आना उसको। और उस रीति से जीवन मुक्त स्थिति किसी के ऊपर भी हम आधारित न हों। इसके बिना काम नहीं चलेगा, सबके बिना काम चल सकता है। आज वो व्यक्ति है, कल शरीर छूट गया तो! भावार्थ ये है कि बाबा हम बच्चों को सबसे न्यारा करदेता है और सबका प्यारा भी। तो जितना न्यारा रहेंगे उतना प्यारा। तो श्रेष्ठ स्वमान की माला प्रतिदिन एक-एक स्वमान को लेकर उसका अनुभव करना और उसका स्वरूप बनना और उसी के आधार पर विदेही बन करके कार्य करना। कोई कर्म रूकना भी नहीं चाहिए। बाबा कई बार कहते हैं कि रात को जागकर तपस्या करो। क्योंकि दिन में तो कारोबार होता है। और दिन में अपना कारोबार छोड़कर आठ घंटा योग करना है। ऐसे थोड़े ही कहा बाबा ने। बाबा ने खुद भी ऐसा नहीं किया। दिन भर में सारे कार्य किए। लेकिन वो स्वमान के स्वरूप में विदेही। इसीलिए तो दादी सुनाती हैं कि बाबा के पास जाते थे बाते सुनाने कि क्या सुनाने आये हैं, ये बाबा को सुनाते थे तो लगता था कि बाबा सुन नहीं रहा है। फिर जब पूछते थे तो बाबा एसेंस बता देते थे तो बाबा बता देते थे कि ये बात थी तुम्हारी। तो हमको लगा कि बाबा ने तो सुना ही नहीं। बाबा सारी बात सुनने के बाद भी डिटैच है। क्योकि बाबा अपने श्रेष्ठ स्वमान में थे। बातों का प्रभाव उनके मन पर नहीं था। और इसीलिए जीवनमुक्त स्थिति में थे। जीवन मुक्त स्थिति में अनुभव करते थे। और तब जाकर डेड साइलेंस। यानी एक देह से डिटैच। अशरीरी। अशरीरी होकर परमधाम में साथ बैठकर वहाँ न कोई संकल्प विकल्प चलते हैं न कोई मन के अन्दर बात सूक्ष्म में भी स्थान रखती है। और बहुत सहज हम जैसे विकर्मों का विनाश करने का अनुभव करते हैं। ज्वाला जलती है और उस ज्वाला से आत्मा का शुद्धिकरण हो रहा है। उस बीज रूप बाबा से हम भी भरपूर हो रहे हैं। हम भी ऐसी बाबा की सकाश प्राप्त हो रही है जिस सकाश से हम भरपूर हो रहे हैं अन्दर से। और भरपूर होकर सम्पन् नबनते जा रहे हैं ये है अशरीरी पन की स्थिति। जहाँ कोई भी संकल्प नहीं। कोई चाहना की बात नहीं लेकिन एक दम उससे भी डिटैच, एक अनुभव की स्थिति में। बीज स्वरूप माना एक भरपूरता की अनुभूति। बीज के अन्दर जैसे सारा वृक्ष समाया हुआ है।इसी तरह हम आत्मायें भी भरपूरता की स्थिति में स्वयं को अनुभव करें। लेकिन शरीर के भान से एकदम न्यारे रहें। जैसे बाबा के लिए साकार में बताती हैं दादियां कि जब बाबा चलता था ना, या मम्मा भी जब चलती थी तो जैसे धरनी को भी तकलीफ नहीं होनी चाहिए। इतना जैसे दबे पाँव चले जाते थे। जैसे एक बादल वहाँ से पास हो गया। धरनी को भी कभी तकलीफ नहीं दिया। आज कई लोग चलते हैं तो धप,धप करके, आवाज़ करते चलते हैं। धरनी को कितना कष्ट देते हैं। नहीं न्यारा एकदम, हल्का होकर। एक बार आदरणीय बृजमोहन भाई जी से ऐसे ही ज्ञान चर्चा हो रही थी तो उन्होंने एक बहुत अच्छी बात सुनाई कि अब ब्राह्मणों का पार्ट पूरा हो गया। बहुत ध्यान देने की बात है। तो हमने पूछा कि भाई साहब कैसे हो गया? तो ब्राह्मण माना शिक्षायें ग्रहण करना, ज्ञान का ग्रहण करना। तो ज्ञान का पार्ट अभी समाप्त हो गया। कहा ये जाता है कि ब्राह्मण सो फरिश्ता, फरिश्ता सो देवता। अब फरिश्तापन का पार्ट शुरू हुआ। यहाँ ही फरिश्ता बनना है, ऊपर जाकर नहीं। तो ब्राह्मणों की शिक्षा हमने ली, ब्राह्मणों का पार्ट पूरा हुआ। अब फरिश्ता अर्थात् लाइट। हर बात में लाइट रहो। अर्थात् दूसरे शब्दों में कहें तो हर बात में बिंदी लगाना आना चाहिए। किसी ने कुछ कहा बिंदी लगाओ, न्यारे हो जाओ। अशरीरी हो जाओ। जो ब्राह्मणों के स्वभाव-संस्कार में ये बात थी कि उसने कुछ कहा फीलिंग आ गई, दु:ख हो गया, वो बात अन्दर चलती रही। तो फरिश्ता कब बनेंगे? इसीलिए ब्राह्मणों का पार्ट पूरा हो गया यानी अब तक की जो हरकतें थी हमारी ये समाप्त हो गई। अब परिपक्व स्थिति में आये। अब फरिश्ता स्वरूप लाइट। हर कर्म करो लेकिन लाइट। न मेरे द्वारा किसी को दु:ख प्राप्त हो और न किसी का दु:ख मैं लूं। ये फरिश्ता, लाइट रहो, हल्के रहो। हल्के होकर हर कर्म करो यही फरिश्ता बनना है। अगर यहाँ फरिश्ता नहीं बने और वही ब्राह्मण में रहे, वो ब्राह्मण माना जो संघर्ष है। कहां न कहां अपने संस्कारों के साथ संघर्ष कर रहे हैं। परिस्थितियों के साथ संघर्ष कर रहे हैं, व्यक्तियों के साथ संघर्ष हो रहा है। तो संघर्ष वाला कहाँ जायेगा? त्रेता में जायेगा ना।इसलिए ब्राह्मण सो फरिश्ता, फरिश्ता सो देवता। तो जो फरिश्ता बनेगा वही देवता में जायेगा। सतयुग में जायेगा। अगर संघर्ष में रहे फरिश्ता नहीं बने तो सीधा सतयुग कैंसिल और सीधा त्रेता में। यानी दो करोड़ आत्मा के बाद हमारा नम्बर लगेगा। त्रेता के शुरूआत की जनसंख्या कितनी है? दो करोड़ है ना! तो दो करोड़ के बाद, 1250साल के बाद मुझे नीचे उतरना होगा। कितने जन्म के बाद? आठ जन्म बाद होगा नीचे आना। मंजूर है? आजतक कहते थे, जब भी पूछते थे कि लक्ष्मी नारायण बनना है, रामसीता बनना है तो क्या कहा लक्ष्मी नारायण। लेकिन अभी तक फरिश्ता नहीं बनेंगे, अभी बाकी का जो समय रहा है फरिश्ता। फरिश्ता अनुभव यहीं करना है। तभी जाकर देवता बनेंगे नहीं तो कहाँ जायेंगे? त्रेता में? सतयुग में जाना है? तो क्या करना पड़े? लाइट। हर कर्म करते स्थिति लाइटनेस वाली हो।

RELATED ARTICLES

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

Most Popular

Recent Comments