मैं आत्मा हूँ यह याद आने से परमात्मा अवश्य याद आयेगा। क्योंकि हमारे बाबा और हममें समानता है। जो उनमें शक्तियां हैं वो ही उनका प्रतिबिंब हम आत्मा में भी है। वो खुशियों का सागर है और हम भी खुश स्वरूप हैं। तब भला डिप्रैशन आने की मार्जिन ही कहाँ!
आत्म विश्वास है आत्मा में विश्वास, मैं आत्मा हूँ। अगर ”मैं आत्मा हूँ” यह याद आया तो पिता परमात्मा ज़रूर याद आयेगा। जब यह विश्वास रहता है तो ठीक रहते हैं। जब यह भूल जाते हैं तो क्या नतीजा निकलता है? निराश, उदास हो जाते हैं। डिसअपाइंटमेंट(निराशा) क्यों होती है? क्योंकि हम आत्मा जो प्वाइंट हैं, उसको भूल जाते हैं। इसलिए बाबा कहते हैं, बच्चे, निराश मत होवो, हताश मत होवो। जैसे बच्चा मुरझा जाता है, दु:खी हो जाता है तो उसके माँ-बाप कहते हैं, तुम तो लाडले हो, देखो, हमारी कितनी मिलकियत है! तुम ही तो मेरे वारिस हो। ये सब चीज़ें तुम्हारी हैं, वो चीज़ तुम्हारी, सब कुछ तुम्हारा है। इस प्रकार बच्चे का क्या-क्या है- यह याद दिलाकर उसको खुशी में लाते हैं।
बाबा भी हमें बताते हैं कि तुम क्या-क्या हो। क्या-क्या वर्सा तुम्हें मिल रहा है। अगर कोई व्यक्ति अपनी सम्पत्ति को तिजोरी में या लॉकर्स में बन्द करके रखे और बहुत दिनों तक देखे ही नहीं तो उसको भूल जाता है। अगर वह खोलकर बार-बार देखता रहे तो उसको खुशी भी होती है और नशा भी चढ़ता है कि मेरे पास यह भी है, वह भी है, मोती भी हैं, रत्न भी हैं। बाबा हमें याद दिलाता है कि तुम्हारे पास क्या खज़ाने हैं। हमें डिप्रैशन(उदास) में आने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि हम हैं ईश्वरीय सन्तान, परमात्मा की औलाद। हम और डिप्रैशन- यह कैसे हो सकता है?
नेपोलियन कहता था कि ‘असंभव’ शब्द हमारे शब्दकोष में नहीं, मूर्खों के शब्दकोष में होता है। इसी प्रकार, डिप्रैशन शब्द ज्ञानियों के शब्दकोष में नहीं, अज्ञानियों के शब्दकोष में होता है। डिप्रैशन का कारण ईष्र्या भी होती है। किसी को देखा कि यह मेरे साथ का है, यह क्या से क्या बन गया! मैं जैसे था वैसे ही रह गया। ऐसे जब सोचता है तो व्यक्ति को डिप्रैशन होता है कि मैं पिछड़ गया। लेकिन बाबा क्या कहता है? अपने को देखो, दूसरों को मत देखो। हमें अनुसरण करना है बाबा-मम्मा का। हम दूसरों के अनुयायी हैं क्या? हरेक का इस ड्रामा में अपना-अपना पार्ट है। अपनी-अपनी तकदीर है, अपना-अपना भाग्य है। यह वैरायटी ड्रामा है। एक न मिले दूसरे से। इसलिए, हम किसी से मुकाबला नहीं कर सकते और करना भी नहीं चाहिए।
बाबा कहते हैं, भले रेस करो लेकिन रीस नहीं करो। जब हम रीस अर्थात् ईष्र्या करना शुरू करते हैं तो उसकी आग में जलते रहते हैं। तब डिप्रैशन आ जाता है। इन चीज़ों को हमें छोडऩा चाहिए। एक इच्छा पूरी हो जाती है तो दूसरी इच्छा पैदा हो जाती है। वो पूरी हो जाती है तो तीसरी पैदा हो जाती है। इच्छाओं का अन्त है ही नहीं। किसी ने कहा कि दुनिया मनुष्य की इच्छाएं हैं। वे सब पूरी हो जायें तो भी उसकी इच्छाएं पूरी नहीं होती क्योंकि फिर नयी इच्छाएं पैदा हो जाती हैं। ”हज़ारों ख्वाइशे ऐसी कि हर ख्वाइश में दम निकले। बहुत निकले मेरे अरमान, फिर भी कम निकले।” आदमी की ख्वाइशें पूरी होने वाली नहीं हैं। कितनी बड़ी-बड़ी ख्वाइशें हैं! वे सब छोड़ देनी चाहिए। मुझे कोई इच्छा नहीं, बाबा मिल गया तो सब मिल गया। मैं भरपूर हो गया। बाबा ने मेरी झोली भर दी। बाबा ही मेरा जहान है। ये सारी बातें बाबा ने हमको बताई हैं। हमारे डिप्रैशन के दिन समाप्त हो गये।
अगर कोई व्यक्ति अपनी सम्पति को तिजोरी में या लॉकर्स में बन्द करके रखे और बहुत दिनों तक देखे ही नहीं तो उसको भूल जाता है। अगर वह खोलकर बार-बार देखता रहे तो उसको खुशी भी होती है और नशा भी चढ़ता है कि मेरे पास यह भी है, वह भी है, मोती भी हैं, रत्न भी हैं। बाबा हमें याद दिलाता है कि तुम्हारे पास क्या खज़ाने हैं। हमें डिप्रैशन(उदास) में आने की ज़रूरत नहीं है। क्योंकि हम हैं ईश्वरीय सन्तान, परमात्मा के बच्चे। जब ये हमारे कॉन्शियस में गहरा बैठ जाता है तब भला डिप्रैशन का क्या स्थान रहेगा!