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ईश्वरीय शक्ति के आगे कोई न टिक पाया…

यज्ञ की शुरुआत में बाबा ने कईयों को बन्धन से छुड़ाकर उन्हें शिवशक्ति स्वरूपा बनाया। ईश्वरीय ज्ञान में वो चुम्बक था जो हम एक मिनट भी उसके बिना रह नहीं पाते थे। रोज़ ईश्वरीय ज्ञान ना सुनें तो जैसे ऐसे लगता कि शरीर से प्राण ही निकल गया हो! जहाँ ये ईश्वरीय ज्ञान नया होने के कारण समाज में विरोध तो था लेकिन बाबा की शक्ति और हमारी लगन के आगे सबकुछ फीका हो जाता, वो विरोध, विरोध ही नहीं लगता बल्कि और ही हम शक्तिशाली अनुभव करते।

जो ज्ञान भगवान ने अर्जुन को सुनाया, वो ज्ञान उस वक्त बाबा ने हमें भी थोड़ा-थोड़ा सुनाया। बाबा का ज्ञान मुझे इतना अच्छा लगा कि मन में ख्याल आया कि यह ज्ञान हमारे अपने लौकिक मात-पिता और परिवार के पास भी हो ताकि उनका दु:ख भी खत्म हो जाए और वो सुखी हो जाएं। ये बात मैंने बाबा को बताई तो बाबा ने कहा बच्ची मैं माताओं का सर्वेन्ट हूँ, चलो मैं भी चलता हूँ। बाबा हाथ पकड़कर मेरे साथ-साथ चले। इतना बड़ा बाबा निराकार-निरंहकारी बनकर चले। कदम-कदम में हमने बाबा का चरित्र देखा। बाबा जब माता से मिले तो वो रो रही थी क्योंकि उनके बच्चे की मृत्यु का दु:ख था। बाबा ने कहा कि बच्ची ये कपड़े को बदल दो क्योंकि इससे ये बच्चा याद आयेगा और आप ये नया वस्त्र पहन लो जिससे आपको श्रीकृष्ण जैसा बच्चा मिलेगा, तो दु:ख तो नहीं होगा ना! और माता को कहा कि कल सत्संग में आना। जब वो बाबा के पास आई तो माता को बाबा का साक्षात्कार हुआ और बहुत अच्छा अनुभव भी हुआ। उसे देखकर उसके माँ-बाप और परिवार जोकि अय्याशी घर के थे मांस, अण्डा, शराब आदि का सेवन करते थे। परिवार वालों ने भी जब देखा कि इन्हों को सुख मिल रहा है तो वो भी बाबा के पास मिलने आये। तो बाबा ने कहा कि इनको पहले मम्मा से मिलाओ। जैसे ही मम्मा को उन्होंने पहली बार देखा तो उनको श्रीलक्ष्मी का साक्षात्कार हुआ और वो भी ज्ञान में चल पड़े।

ऐसे धीरे-धीरे बाबा के पास सतसंग में बहुत अच्छे-अच्छे बड़े घरों की माताएं और कन्याएं आने लगीं। उस वक्त ब्रिटिश का राज होने के कारण उनके पति विदेश में धन्धा अर्थ जाते थे और एक-दो मास के लिए घर आते थे। लेकिन जब आते थे तो माताओं ने उनको पवित्रता के बारे में बताया तो वे समझ ही नहीं सके इसके कारण बहुत हंगामा हुआ। लेकिन माताओं ने पवित्रता के व्रत के साथ कोई समझौता नहीं किया। ये बात तो हिस्ट्री में हम सबने सुना ही है ना, इसीलिए इसको आगे नहीं बताती हूँ।

दादी कहती हैं कि बाबा में एक चुम्बक था। जिस कारण हम एक मिनट भी बाबा से बिछड़े नहीं। एक बार मैंने बाबा से कहा कि मैं स्कूल छोड़ दूँ? तो बाबा ने कहा, नहीं बच्ची। आपके स्कूल जाने से कई बच्चे और टीचर में भी ज्ञान की जागृति आएगी। मैं धक्के खाकर तो जाती थी स्कूल में, लेकिन लगन मेरी बाबा के पास ही थी। मैंने देखा कि कई माताएं पवित्रता के बन्धन के कारण यहाँ आ नहीं सकती थी। लेकिन बाबा को वें अन्दर ही अन्दर याद करती और बाबा को कहती मैं ज्ञान अमृत के बिना कैसे रह सकेंगी! जब तक हम ज्ञान अमृत न पिएं तो हमारा प्राण ही निकल जाएगा। ये मन की भीतरी लगन की आवाज़ बाबा तक पहूँचती था।

फिर जब बहुत बच्चे आने लगे तो बाबा ने हॉस्टल खोला जिसमें बाबा ने मुझे टीचर बन पढ़ाने की जि़म्मेवारी दी। बाबा ने हॉस्टल के बच्चों की दिनचर्या सेट करके दिया और मैं उन बच्चों को पढ़ाने लगी। उनकी दिनचर्या सुबह साढ़े तीन बजे उठाना, नहलवाना फिर उन सबको बगीचे में ले जाना। उस समय ही बाबा ने सभी बच्चों को सफेद डे्रस पहनाना शुरू कर दी। बच्चे बहुत रॉयल, सफाई वाले बहुत अच्छे, भोजन बहुत अच्छा, इकठ्ठा बैठकर खाना, बच्चे की अच्छे से खातिरी करना जैसे कि एक राजकुमार-राजकुमारी हो। हॉस्टल में मुख्य चार पीरियड होते थे। उन्हें अंकगणित, सिंधी इतिहास और भूगोल पढ़ाया जाता था।

हम चार बहनें थीं। एक-एक पीरियड लेते थे। बाबा आकर के चेक करते थे कि हम क्या और कैसे पढ़ाते हैं। रोज़ रात्रि को सारे दिन की दिनचर्या हम बाबा को बताते थे। ये भी हमारा बहुत बड़ा सौभाग्य था जो शुरू से ही बाबा के साथ-साथ हमें रहने का भाग्य मिला।

मैं रोज़ दु:खी माताओं को ईश्वरीय ज्ञान सुनाकर सेवा करती थी। बाबा ने इस तरह हमको तैयार किया और बाबा ने मुझे शुरू में ही तुम शिवशक्ति हो ये वरदान दिया था, इसलिए मुझे कभी भी डर या भय नहीं लगता था। बाबा मुझे बांधेलियों के पास भेजते थे और इतने विरोध के बावजूद भी मैं बाबा का सन्देश लेकर उनके घर जाती थी और बाबा का संदेश सुनते ही बहुत ही खुश होती थी। मैं उनकी बातों को सुनकर बाबा के पास जाकर बताती थी। बाबा बहुत ही उन्हें सकाश देते थे।

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