पिछले अंक में आपने पढ़ा कि हम चतुरर्भुज हैं, और जितनी बार ये स्वमान को हम अन्दर में याद भी करते हैं उतनी बार हम उस संस्कार को जागृत करते हैं। और इस तरह से बाबा ने जब कहा कि स्वमान की माला दी है तो इस तरह से रोज़ स्वमान लेकर उसके स्वरूप बनो। अब आगे पढ़ेंगे…
तो जो देहभान के संस्कार हैं उसको सहजता से समाप्त कर सकेंगे। इसलिए अशरीरी के पहले विदेही बनना बहुत आवश्यक है। जब तक विदेही नहीं बनेंगे, रहना देह में ही है, कर्म भी सबकुछ करना है, भौतिकता के बीच में रहना है लेकिन विदेही। देही अभिमानी और विदेही में ये अंतर है कि देही अभिमानी आत्मा के सात गुणों की ऊर्जा को कर्म में लाना और विदेही माना कोई न कोई श्रेष्ठ स्वमान की ऊर्जा को व्यावहारिक रूप में ले आना। और उस रीति से जीवनमुक्त स्थिति, किसी के भी ऊपर हम आधारित न हों। इसके बिना काम नहीं चलेगा, सबके बिना काम चल सकता है। आज वो व्यक्ति है, कल शरीर छूट गया तो! भावार्थ ये है कि बाबा हम बच्चों को सबसे न्यारा कर देता है और सबका प्यारा भी। तो जितना न्यारा रहेंगे उतना प्यारा।
दादी सुनाती थीं कि बाबा के पास जाते थे बातें सुनाने, जब बाबा को सुनाते थे अपनी बात तो लगता था कि बाबा सुन नहीं रहा है। फिर जब पूछते थे तो बाबा बता देते थे कि ये बात थी तुम्हारी। मतलब बाबा सारी बात सुनने के बाद भी डिटैच रहते। क्योंकि बाबा अपने श्रेष्ठ स्वमान में रहते थे। बातों का प्रभाव उनके मन पर नहीं पड़ता था। और इसीलिए जीवनमुक्त स्थिति में रहे। तब जाकर डेड साइलेंस, यानी एक देह से डिटैच। अशरीरी। अशरीरी होकर परमधाम में साथ बैठकर वहाँ न कोई संकल्प-विकल्प चलते हैं, न कोई मन के अन्दर बात सूक्ष्म में भी स्थान रखती है। और बहुत सहज हम जैसे विकर्मों का विनाश करने का अनुभव करते हैं। ज्वाला जलती है और उस ज्वाला से आत्मा का शुद्धिकरण हो रहा है। उस बीज रूप बाबा से हम भी भरपूर हो रहे हैं। हमें भी ऐसी बाबा की सकाश प्राप्त हो रही है जिस सकाश से हम भरपूर हो रहे हैं अन्दर से। और भरपूर होकर सम्पन्न बनते जा रहे हैं, ये है अशरीरीपन की स्थिति।
बीज स्वरूप माना एक भरपूरता की अनुभूति। बीज के अन्दर जैसे सारा वृक्ष समाया हुआ है, इसी तरह हम आत्माएं भी भरपूरता की स्थिति में स्वयं को अनुभव करें। लेकिन शरीर के भान से एकदम न्यारे रहें। जैसे बाबा के लिए साकार में बताती हैं दादियां कि जब बाबा चलता था ना, या मम्मा भी जब चलती थी तो जैसे धरनी को भी तकलीफ नहीं होनी चाहिए, इतना दबे पाँव चलते थे। आज कई लोग चलते हैं तो धप-धप करके, आवाज़ करते चलते हैं। धरनी को कितना कष्ट देते हैं।
अब फरिश्ता अर्थात् लाइट। हर बात में लाइट रहो। अर्थात् दूसरे शब्दों में कहें तो हर बात में बिंदी लगाना आना चाहिए। किसी ने कुछ कहा बिंदी लगाओ, न्यारे हो जाओ। अशरीरी हो जाओ। जो ब्राह्मणों के स्वभाव-संस्कार में ये बात थी कि उसने कुछ कहा फीलिंग आ गई, दु:ख हो गया, वो बात अन्दर चलती रही, वो ब्राह्मणों का पार्ट अब पूरा हो गया यानी अब तक की जो हरकतें थी हमारी ये समाप्त हो गईं। अब परिपक्व स्थिति में आये। अब फरिश्ता स्वरूप लाइट। हर कर्म करो लेकिन लाइट। न मेरे द्वारा किसी को दु:ख प्राप्त हो और न किसी का दु:ख मैं लूं। हल्के होकर हर कर्म करो यही फरिश्ता बनना है। अगर यहाँ फरिश्ता नहीं बने और वही ब्राह्मण में रहे, वो ब्राह्मण माना जो संघर्ष है, कहाँ न कहाँ अपने संस्कारों के साथ संघर्ष कर रहे हैं। परिस्थितियों के साथ संघर्ष कर रहे हैं, व्यक्तियों के साथ संघर्ष हो रहा है। तो संघर्ष वाला कहाँ जायेगा? त्रेता में जायेगा ना! इसलिए ब्राह्मण सो फरिश्ता, फरिश्ता सो देवता। तो जो फरिश्ता बनेगा, वही देवता में जायेगा, सतयुग में जायेगा। अगर संघर्ष में रहे फरिश्ता नहीं बने तो सतयुग कैंसिल और सीधा त्रेता में। यानी दो करोड़ आत्मा के बाद हमारा नम्बर लगेगा। तो दो करोड़ के बाद, 1250साल के बाद मुझे नीचे उतरना होगा। कितने जन्म के बाद? 8 जन्म बाद होगा नीचे आना। मंजूर है?




