राजयोगी, राजऋषि सदा प्रभु का प्यारा है। उन्हें एक बाबा ही प्यारा है। संगमयुग पर हम सबका उद्देश्य है- राजयोगी बनना। हमारा कुल ब्राह्मण है, लक्ष्य है देवता बनना। हम सभी राजयोगी सो राजऋषि हैं। ऋषि अर्थात् ब्रह्माचारी, गृहस्थी नहीं। हम ब्रह्मचारी सो ब्रह्माचारी हैं। हमारे सर्व सम्बन्ध एक बाप से हैं। हम उस सच्चे माशूक के आशिक हैं, हम सभी उस सच्चे माशूक के इश्क को जानते हैं।
एक बाबा की लगन कितनी प्यारी, मीठी, सुखदाई है। ऐसी लगन में मगन रहने वाले कभी किसी दूसरे की लगन में नहीं जायेंगे। अगर किसी की आपस में बहुत-बहुत प्रीत होती है तो उसे तोडऩा मुश्किल होता है। ऐसे जब बाप से हमारी पूरी लगन है, प्रीत है तो यह भी गुप्त खुशी व नशा रहता है कि हमने तो उसी बाप को पाया है। सारी दुनिया कुछ भी नहीं है, एक तू इतना प्यारा है। हम उसी प्यार के समुंद्र की नदियां हैं। इसी को ही हम कहते हैं निरन्तर योग में रहना, यह मस्ती बड़ी निराली है। बाबा के प्यार का अनुभव करते उसी मस्ती में रहो तो दूसरी कोई भी बात सामने आ नहीं सकती। यह पुरूषार्थ की बहुत सहज विधि है।
कई योग लगाते, मेहनत करते हैं लेकिन अनुभव नहीं होता। कहते हैं मेरा एक बाबा दूसरा न कोई। यही पुरूषार्थ करते हैं कि मैं आत्मा हूँ, मेरा बाबा प्यारा शिवबाबा है, मुझे बाबा की सेवा में तत्पर रहना है। जितना समय बाबा की सेवा में जायें उतना अच्छा है। लेकिन अनुभव हो कि मैं आत्मा इस शरीर से अलग हूँ, मैं आत्मा सुनती हूँ, यह मेरा शरीर है…। यह अभ्यास कम है। जब हमने कहा- मैं आत्मा आपकी हूँ, तो मेरा सब कुछ आपका है अर्थात् मैं बाबा को ही समर्पित हूँ। आप आत्मा एक बाबा पर समर्पित हो जाओ तो यह जो संकल्प व बुद्धि इधर-उधर भटकती है, यह भी समर्पण हो जायेगी। फिर यह कम्पलेन खत्म हो जायेगी कि क्या करूं मन भटकता है। विचार शक्ति, बुद्धि की शक्ति को समर्पण कर दो। फिर यह भी नहीं कह सकते कि यह मेरे संस्कार हैं
। कभी किसी ने यह नहीं कहा कि बाबा का संस्कार ऐसा है, बाबा ने भी कभी नहीं कहा कि क्या करूं मेरा यह संस्कार है… तो हमें अगर बाबा के समान बनना है तो संस्कारों के वश होकर के नहीं चलना है। यह संस्कार भी बाबा के हो गये। जैसा बाप वैसी मैं… यही मेरा पुरूषार्थ है। फिर यह जो कहते कि मेरा स्वभाव, मेरे संस्कार- ऐसी अनेक प्रकार की जो माया है वह समाप्त हो जाती है। बाबा भी कहते बच्चे मोहब्बत में रहो तो मेहनत से छूट जायेंगे। जब कोई माया से युद्ध करते हैं तो तरस पड़ता है। रावण के एक-एक शीश को कब तक काटते रहेंगे! एक मूल शीश को ही काट दो तो दसों कट जायेंगे।
बाबा कहते तुम सब हो कठपुतलियां और तुम कठपुतलियों को मैंने दी है श्रीमत की चाबी। तो बाबा ने जो श्रीमत की चाबी दी है उसी अनुसार बेफिकर बादशाह बन निश्चिंत हो खेल करो। लेकिन सदा समझो हम राजऋषि, राजयोगी हैं। अपना आक्यूपेशन नहीं भूलो। योगी के लिए मूल चाहिए ज्ञान से पुरानी दुनिया का वैराग्य। हम हैं योगी लोग, न कोई अपना न कोई पराया। हमें कौन जानें!
हे आत्मा तू बाबा के सामने मन बुद्धि सहित स्वाहा हो जाओ। जब सब स्वाहा हो जायेगा तब पुरानी दुनिया से बेहद का वैराग्य आयेगा। पुरानी दुनिया तब तक खींचती है जब तक समर्पण नहीं हुए हैं।



