हम सभी का जीवन, ईश्वरीय संतानों का जीवन, ब्राह्मण बनने के बाद का जीवन और उसका पैमाना, उसका मापदंड क्या हो सकता है? और क्या होना चाहिए? तो बहुत गहन दृष्टि से, गहन भाव से अगर उसको देखा जाये तो हम पायेंगे कि जो हमारा लक्ष्य ईश्वरीय जीवन मिलने के पहले नहीं था, जो ईश्वरीय जीवन मिलने के बाद हमको लक्ष्य मिला, उन दोनों के बीच में कितना गैप है, कितना बड़ा अंतर है। हम सभी यहाँ पर सबकुछ छोडऩा चाहते हैं, और कहा जाता है कि एक-एक चीज़ से लगाव हमारे दु:ख का कारण है और उसको छोडऩे का, हटाने का तरीका परमात्मा ने हमको सिखाया कि निमित्तपन का भाव लाओ। निमित्तपन की स्थिति बनाओ। लेकिन निमित्तपन का भाव, निमित्तपन की स्थिति लाने के लिए हम सबका जो अटेन्शन है वो बहुत कम है। कारण उसका एक है कि जो प्राप्तियां हमको अपनी उस जीवन में नहीं हुईं, वो यहाँ होने लगीं। होने लगीं तो हम धीरे-धीरे इस ज्ञान को उसमें यूज़ करने लगे, कि नहीं, जीने के लिए ये भी तो चाहिए, ये भी तो चाहिए, ये भी तो ज़रूरी है। क्योंकि अगर हम ऐसे नहीं रहेेंगे तो सेवा कैसे करेंगे? कार्य कैसे करेंगे? तो कहने का मतलब ये हुआ कि जो चीज़ हम करने आये थे उससे धीरे-धीरे हमारा मोह किसी ओर की तरफ मुड़ गया।
आप सोचो कि परमात्मा हमको कर्मातीत बनाना चाहते हैं। कर्म करके भूलना सिखाते हैं कि आप कर्म करके भूलोगे तो खुश रहोगे। इच्छाओं को कम करोगे तो समस्याएं ऐसे ही कम हो जायेंगी। बहुत सारी बातें ऐसी छोटी-छोटी बाबा हमको सिखाते हैं। लेकिन ये सारी बातें एक साइड में और उलझन बढ़ती जा रही है। और हम सबका जीवन भी ना डबल जीवन है, डबल जीवन का मतलब? क्योंकि एक टे्रनिंग तो मिल ही गई है कि हमको खुश रहना है सबके सामने। मुस्कुराहट के साथ बोलना है, मिठास के साथ बोलना है, ये एक टे्रनिंग है, उन्नति नहीं है। ये हमारा नेचर नहीं बना है। तभी तो हम बीच-बीच में काफी देर तक इस भाव को रख नहीं पाते। जब रख नहीं पाते तो दुबारा कहते हैं कि हमको पुरूषार्थ और करना है।
तो परमात्मा कहते हैं कि तपस्या इसी बात की तो है। ये कितना जड़ तक मैंने इन सारी चीज़ों को जीता है। तो हम सबको बैठ करके या खड़े होकर या चल-फिर कर या किसी भी तरह से मनन-चिंतन करके इन बातों से बाहर खुद को निकालना है कि हम सबके अन्दर निष्काम कर्मयोगी वाला भाव कब तक आयेगा? क्योंकि हम संगमयुग पर हर चीज़ परमात्मा से मांगते हैं कि हमारा ये अच्छा हो, ये अच्छा हो, ये अच्छा हो। और हमारे आत्मबल से वो अच्छा हो ही रहा है, हो जाता है। क्योंकि हम सब भी तो आत्माएं परमात्मा की संतान हैं, जो संकल्प करेंगे वो तो होना ही है। लेकिन जो संकल्प हमको करना चाहिए वो साइड में है। हमको ये करना है कि हम निष्काम कर्मयोगी बनें, कर्म करके भूलें, उन संकल्पों में तो एक बार भी ध्यान नहीं है। तो ये सिर्फ और सिर्फ खुद को तसल्ली देने के लिए लेकिन खुद पर काम करने के लिए ज़रूरी है कि हम थोड़ा जगें और थोड़ा बैठकर सोचें कि अभी तक वो सन्तुष्टि, वो खुशी क्यों नहीं है! क्योंकि जो चीज़ हमको करनी है, निष्काम कर्मयोगी वाली भावना लानी है, वो भूल गई है। छुपाना, ऊपर-नीचे करना, झूठ बोलना, इधर-उधर करना, सही किसी से नहीं रहना, डबल फेस, बहुत कुछ है जो दुनिया में भी है। वहाँ तो लोग अलर्ट हैं लेकिन यहाँ पर हम सबके आपस में अन्दर-अन्दर जो सोच है, संकल्प हैं वो मिलते नहीं हैं तो उसका रिज़न तो यही है, उसका कारण तो यही है कि अन्दर के वातावरण में बाहर के वातारण के साथ हार्मनी नहीं है। इसीलिए सबके साथ वो वाले सम्बन्ध नहीं हैं, सच्चे और साफ। हर कोई कमी महसूस कर रहा है।
तो इस बात की अगर तपस्या शुरू हो जाये कि हमको सच में निष्काम कर्मयोगी बनना है, सच में निमित्तपन के साथ जीना है, सच में कर्मातीत बनना है, सच में इन बातों से बाहर निकलना है तो वही रियल तपस्या होगी। और यही तपस्या यज्ञवत्सों ने की जो शुरू में आदि रतन बने परमात्म के बच्चे। तो चलो इन भट्टियों में इन सारी बातों से बाहर निकलने के लिए कुछ पुरूषार्थ की चीज़ों को अपने जीवन में अपनाते हैं…
दिनचर्या में अटेन्शन रखें –
- वाणी में संयमता और मधुरता हो।
- जो चाहते हैं उसे अपने जीवन से जोड़ें।
- सच्चाई-सफाई और सादगी को लक्ष्य बनायें।
- इस अमूल्य जीवन को मूल्यवान बनायें।


