मुख पृष्ठब्र. कु. गंगाधरमहान व्यक्ति वो जो अपनी भीतरी परिवर्तन को हमेशा आगे रखता

महान व्यक्ति वो जो अपनी भीतरी परिवर्तन को हमेशा आगे रखता

हमने हर पल उसे निहारा, देखा कि कैसे उस महान आत्मा ने अपना जीवन जिया। मुझे भी सेवा हेतु उनका सानिध्य प्राप्त हुआ। जब इस ईश्वरीय यज्ञ का सबसे पहले और विशाल प्रोजेक्ट ज्ञानसरोवर का निर्माण करना तय हुआ तब दादी प्रकाशमणि जी ने मुझे कहा कि आपको इस कार्य को देखना है। मैंने बिना कुछ सोचे-समझे हाँ कर दी। जबकि मुझे कंस्ट्रक्शन के सम्बन्ध में कुछ भी ज्ञान नहीं था।

हमने देखा, उस समयकाल में यज्ञ का सबसे विशाल प्रोजेक्ट का निर्माण करना था तो सबकुछ चाहिए। लेकिन दादी ने बाबा के निर्देशानुसार सेवाओं के विस्तार को देखते हुए तय किया कि करना ही है।

दादी ने कुछ भी नहीं सोचा कैसे होगा, कब तैयार होगा? बस, बाबा का कहना और दादी जी का करना। दादी और बाबा के दिल का तार इतना जुड़ा हुआ था जैसे कि मोबाइल फोन करते ही हम बात करने लगते हैं।

दादी की बिना तार की बातचीत का नेटवर्क अटूट था, हॉट लाइन थी। दादी जी ने बाबा से हुई रूहरिहान क्लास में बताई कि बाबा के दो लाख बच्चे हैं तो हम सभी एक-एक रुपया रोज़ निर्माण के कार्य की भण्डारी में डालें तो कार्य हुआ ही पड़ा है।

दादी जी हमेशा मधुबन में रहने वाले सभी वरिष्ठ भाई-बहनों के सामने विचार रखती थीं और सबसे राय करके ही कोई भी कार्य करती थीं। ये उनके कार्य करने का तरीका बड़ा ही निराला था। दादी जी का सबके प्रति इतना रिगार्डऔर रिस्पेक्ट था, उतना ही सर्व ब्रह्मावत्सों का भी दादी जी के प्रति था। इसलिए दादी जो भी कहती वो हर एक ये समझता कि मेरा सौभाग्य है। तो इसी उमंग-उत्साह से हाँ जी कर सभी तन्मयता से जुट जाते थे। सबकी विशेषताओं की अंगुली लगने से विशाल कार्य का पर्वत समय पर ही सम्पन्न हो गया।

दादी जी, ज्ञान का मर्म बड़ी सरलता और सहजता से बताती जो सामान्य से सामान्य जिज्ञासु के दिल पर छप जाता और उनके दिल में उमंग-उत्साह का संचार हो जाता। वे उसे पूरा करने में अपने तन, मन, धन, समय, श्वास, शक्ति से लग जाता। दादी का विशाल हृदय वह सबके प्रति कल्याणमयी भावना के कारण हरेक की कमज़ोरी के संस्कार को कमाल में परिवर्तन कर देता। यही कारण रहा कि मुझे कुछ भी प्रोजेक्ट के सम्बन्ध में न ही ज्ञान था और न ही समझ थी फिर भी इतना बड़ा कार्य खेल-खेल में कैसे पूरा हो गया। जब आज मैं सोचता हूँ तो दादी जी का वो स्नेह नैनों से झलक आता है। दादी जी कभी भी कार्य का श्रेय अपने आप को नहीं देती। हमेशा कहतीं बाबा का कार्य है, करनकरावनहार बाबा है, हमें तो सिर्फ निमित्त बन करना है। जब कार्य ही उनका तो यश और कीर्ति भी उनकी ही होगी ना!

मुझे याद है कि जब किसी ने कहा कि दादी, फलाने की ये आदत मुझे पंसद नहीं है, तो दादी ने कहा कि वो बात तो ठीक है, लेकिन उसकी आदत ठीक न हो और उसकी आदत के अनुरूप हमारी भावनाएं बदल जाती हो तो हम भी ज्ञानी तो नहीं ठहरे ना! यानी कि उनकी आदत का प्रभाव हमारे पर अगर पड़ता है तो हम उसे कैसे सुधार सकेंगे! हमें तो यह चेक करना है कि मेरे जीवन में भी ये आदतें तो नहीं हैं, उसे चेक कर बदलना है। किसी को बदलने में मेरे संस्कार रुकावट तो पैदा नहीं करते हैं! इसी के लिए तो हमें ज्ञान की शक्ति चाहिए।

हमने दादी को हमेशा बाप समान बनकर कर्म करते हुए देखा। उनके जीवन में हमने एक उत्तम ब्राह्मण की छवि देखी। वे हमेशा कहतीं कि हम ब्राह्मणों का आचरण ही है सबका सुनना, सबका समाना, सबका सहन करना और सबको स्नेह देना। सबको सहन कराना, ये हमारा आचरण नहीं है। सहन करना सीखो, सहन कराना नहीं। यह दादी के जीवन के इस मंत्र को हमने प्रत्यक्ष रूप में देखा। एक बार की बात है, दादी जी को सभी मिलते थे। एक भाई दादी के पास आकर बहुत ज़ोर-ज़ोर से बोलकर अपनी बात कहकर बाहर चला गया। उसके बाद मुझे दादी से मिलना था। जैसे ही मैं दादी जी के कक्ष में मिलने गया, दादी एकदम शांत और सौम्यता के साथ बैठी थीं जैसे कि कुछ हुआ ही नहीं हो। दादी ने प्यार से मेरी बात सुनी और उनका समाधान भी किया। मैं वापस चला गया। पर मेरे मन में वो बात सारे दिन चलती रही कि वो पहले वाला भाई जो ऊँचे आवाज़ से दादी को कहकर गया। लेकिन दूसरे दिन भी जब मैं दादी के पास कारोबार अर्थ गया तो दादी वैसी ही शांत और सौम्यता की मुद्रा में थीं। मुझे मन ही मन ये उत्तर मिल गया कि महान व्यक्ति के लक्षण क्या होते हैं। दादी किसी की कैसी भी बात अपने दिल में नहीं रखती थीं। दादी हमेशा कहती थीं कि या तो बातें अपनी दिल में रख सकती हूँ, या बाबा को, क्योंकि दिल तो एक ही है ना! ये हमने दादी के जीवन से हरपल अनुभव किया।

दूसरों के कल्याण के साथ-साथ स्व-उन्नति का ख्याल उनके जीवन से झलकता था। जो बाबा ने कहा, वही मुझे करना है, ये दादी के जीवन का महामंत्र रहा। दादी हमेशा कहती थीं कि कर्मातीत स्थिति का अनुभव अंत में थोड़े ही कर सकेंगे। अंत में तो उड़ ही जायेंगे। क्या उडऩे के बाद उस अनुभव का वर्णन करेंगे। कर्मातीत अवस्था का आनंद अगर शरीर छोडऩे समय अनुभव में आएगा तो उसका वर्णन कब और कैसे करेंगे? कोई पूछे, इस स्थिति का अनुभव क्या है? तो क्या हम उसको ये कहें कि जब शरीर छोडूँ तब कहना। मैं सदा उसी तख्त पर रहूँ जैसे आज ही कर्मातीत हूँ, कल नहीं होऊंगी। उडऩे के बाद तो मैं सुनाउंगी ही नहीं कि मैं कितनी ऊँची स्थिति में हूँ। इससे अच्छा तो मैं वो फल अभी खाऊँ। इसके लिए मैं आत्मा इतनी सम्पन्न रहूँ जो सर्व सम्बन्धों, सर्व गुणों, सर्व कलाओं का फल रोज़ खाऊँ। हमें तो इस स्थिति में बहुत मज़ा आता है। महान व्यक्ति अपने भीतरी परिवर्तन को हमेशा प्रथम रखता है और अपने जीवन से दूसरों को प्रशिक्षित करता है, ये हमने दादी में देखा। ऐसी दादी जी को विनम्रता से भावपूर्ण पुष्पाजंलि अर्पित।

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