मुख पृष्ठब्र. कु. दिलीप भाई, शांतिवन।शिक्षक ही समाज सुधारक एवं रक्षक है...

शिक्षक ही समाज सुधारक एवं रक्षक है…

सबसे पहले तो शिक्षक दिवस के पावन अवसर पर हम शिक्षकों को नमन, वंदन करते हैं कि जिन्होंने हमें हर प्रकार से लायक बनाया। चाहे वह प्यार से चाहे डॉट-डपट से चाहे छड़ी से, चाहे हमें मॉनिटर बनाके आगे बढ़ाया। इनकी दुरांदेशी बुद्धि भारत के बच्चों तथा युवा पीढ़ी को सही मार्गदर्शन देती है। इनकी छड़ी भी लाभकारी क्योंकि कहावत है कि छड़ी लगे छमाछम विद्या आये घमाघम…।

शिक्षक दिवस भारत के पूर्व राष्ट्रपति डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन जी के जन्म दिवस पर प्रतिवर्ष  भारत में 5 सितम्बर को मनाया जाता है। इस दिवस पर शिक्षकों का सम्मान प्रकट किया जाता है। शिक्षक का बच्चों  के लिए या हर किसी के जीवन में महत्व होता है। समाज में भी उनका एक विशिष्ट स्थान होता है, समाज उन्हें बहुत ऊँची नज़र से देखता है। डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन शिक्षा में बहुत विश्वास रखते थे।  वे एक महान दार्शनिक और शिक्षक थे। उन्हें अध्यापन से गहरा लगाव था। एक आदर्श शिक्षक के सभी गुण उनमें विद्यमान थे। इस दिन भारत सरकार द्वारा  समस्त देश में श्रेष्ठ शिक्षकों को पुरस्कृत भी किया जाता है।

गुरू-शिष्य परंपरा भारत की एक महान संस्कृति का पवित्र हिस्सा रही है। जिसके कई उदाहरण इतिहास के पन्नों पर मिल जायेंगे। शिक्षक एक माली के समान है, जो एक बगीचे को रंग-रूप के फूलों से सजाता है। कठीन परिस्थिति में भी, काँटों जैसी परिस्थिति में छात्रों के मुखमंडल पर मुस्कुराहट लाने के महान कार्यकर्ता शिक्षक होते हैं। आज शिक्षा को अधिक महत्व दिया जा रहा है कि घर घर में बेटी भी पढ़े इसपर जोर दिया जा रहा है। परंतु ऐसी परिस्थिति में आज के दौर में शिक्षक का पेशा भी व्यावसायिक हो गये हैं। गुरू-शिष्य की परम्परा कहीं ना कहीं लुप्त होते नज़र आ रही है। जो की पहले एक गुरू ही शिष्य में अच्छे चरित्र का बीजारोपन करता था। लेकिन आए दिन शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों एवं विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों के साथ दुर्व्यवहार की खबरें सुनने को मिलती है। इसे देखकर हमारी महान संस्कृति की धरोहर गुरू-शिष्य के पवित्र सम्बन्धों पर सवाल उत्पन्न होने लगे हैं। विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों का दायित्व है कि वे इस गुरू-शिष्य की महान परम्परा को दिल की गहराई से समझें और एक अच्छे समाज के निर्माता बनें।

शिक्षक भी कभी एक समय विद्यार्थी ही थे। और विद्यार्थी ही एक दिन शिक्षक भी बन सकता है इसलिए अपने अपने दायित्व  सम्पूर्ण रीति से समझ कर बेड़ा पार करते हैं तो भारत महान देश बनेगा। आजकल आत्मनिर्भर की बातें होती है इसलिए शिक्षक व विद्यार्थी को आत्मनिर्भर बनने पर जोर देना चाहिए। दरअसल हर तरफ व्यावसायिकरण हो रहा है और सभी लोग अपनी तरफ आकर्षित करने का प्रयास में लगे हुए है। अब अमीर लोग तो  अपने बच्चों की शिक्षा पैसे के दम पर कहीं भी करा देते हैं परंतु गरीब विद्यार्थियों पर क्या गुज़रती होगी इसका भी भान रखना चाहिए। यहाँ पर चरित्र उत्थान की, आत्मनिर्भर की बात कहीं भी नहीं आती केवल फॉर्मल एज्युकेशन ही मात्र थोपा जाता है।  इसलिए समय के चलते आत्मनिर्भर बनने की अति आवश्यकता है। जैसे शरीर की इम्युनिटी के लिए आज कल लोग कोरोना काल में सभी जागृत है, सभी अपने अपने प्रयासों में लगे हुए है। इसी तरह पढ़ाई की दिशा में भी आत्मनिर्भर बहुत जरूरी है, जो शिक्षक वा विद्यार्थी आत्मनिर्भर है वह  देश का भविष्य अवश्य है। क्योंकि उस व्यक्ति में चारित्रिक प्रगति, देशभाक्ति का जज्बा, बड़ों का सम्मान, सहनशिलता, मधुरता, शुद्धता, सहानुभूति, सहयोग करना आदि आदि गुण स्वाभाविक रूप से पनपते है। मुझे याद है जब मैं सातवीं- आठवीं कक्षा में पढ़ता था तो हमारे शिक्षक मुझे हर प्रकार की शिक्षा भी देते थे, गलती पर सजा भी फिर प्यार भी इसका परिणाम मैं भी एक इलेक्ट्रॉनिक्स निदेशक के रूप में आया और मेरे सारे विद्यार्थी जब फर्स्ट क्लास में पास हुए तब मैंने आध्यात्मिकता की ओर समर्पित कर दिया। आध्यात्मिकता ही एक ऐसी शिक्षा व दीक्षा है जो श्रेष्ठ शिक्षक, गुरू के साथ साथ महान छात्र भी बनता है। इसलिए प्राचिन काल में गुरूकुल हुआ करते थे और निशुल्क शिक्षा दीक्षा दी जाती थी। केवल गुरू ही सबकुछ हुआ करता था। गुरू की शिक्षा ही मानवता को गठीत करता था। उस शिक्षा में सभी प्रकार के विषयों में शिष्य निपुण होते थे।

मुझे गर्व अनुभव होता है कि मेरे लौकिक, अलौकिक और पारलौकिक गुरुजनों की अनुकम्पा और आशीर्वाद से मैंने भी  छ: साल आई. टी. आई. के छात्रों को इलेक्ट्रॉनिक्स पढ़ाया तथा आध्यात्मिकता से सभी को लाभ पहुंचाया। इस पावन दिन पर सभी शिक्षकों को और परमशिक्षक परमपिता परमात्मा को मेरा दिल से अभिनंदन तथा प्रणाम है। 

बी.के. दिलीप राजकुले, ओम शांति मीडिया शांतिवन ।

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