परंपराओं की फहरिस्त में शामिल मुख्य त्योहारों में नवरात्रि का पर्व सभी के जीवन में एक अहम भूमिका निभाता है। पर्व की महत्ता इस हद तक है कि लोग नौ दिन तक सम्पूर्ण पवित्र रहते, सम्पूर्ण सात्विक भोजन करते और घर में अशुद्धि का पूर्णतया बहिष्कार करते हैं। अब एक पत्थर की देवी को हम पूजते हैं और हम सभी इतने सक्षम हैं, पॉवरफुल हैं कि उसके लिए हम इतने सारे त्याग-तपस्या करने को तैयार हैं। जिसमें पूरे साल अशुद्ध खान-पान वाले भी मीट-मांस से लेकर प्याज-लहसुन आदि तक का सेवन सम्पूर्णतया वर्जित करते हैं। निश्चित ही कितना महत्त्वपूर्ण त्योहार इसको माना जा सकता है जो जीवन परिवर्तनीय है। आप अपने जीवनशैली में एक चीज़ हमेशा शामिल कर रहे हैं लेकिन वो सिर्फ नौ दिन ही क्यों कर रहे हैं, इसका रहस्य हमें समझ में नहीं आया। जब हम एक ऐसे मंदिर में जा रहे हैं जहाँ कोई चैतन्य देवी नहीं है, एक जड़ मूर्ति है और उस जड़ मूर्ति के सामने जाने से पहले हम अपने आप को कितना तैयार कर रहे हैं! मतलब खानपान भी शुद्ध रखना है, पवित्र भी रहना है। जब आप एक जड़ मूर्ति को देवी का स्वरूप मानकर उसके लिए सबकुछ छोडऩे को तैयार हैं, तो क्या शराब, सिगरेट, अशुद्ध खानपान खाकर आप अपने चैतन्य घर में जा सकते हैं? लेकिन जाते हैं! जहाँ पर एक छोटी चैतन्य देवी है, एक चैतन्य देवता है, घर में लक्ष्मी है, उनके सामने हम इस अवस्था में जाते हैं, जो निरंतर आपके इस स्वभाव के साथ लड़ रहे हैं, आपको समा रहे हैं, आपके साथ एडजस्ट कर रहे हैं, सहन कर रहे हैं। किसी से कह नहीं रहे। उन चैतन्य देव-देवियों का क्या? कैसा लग रहा होगा और उनके दिल से कैसी दुआएं निकल रही होंगी कि बाहर जो नहीं बोलता है उसके सामने इतना दिखावा और जो निरंतर आपकी पालना कर रहा है, आपमें शक्ति भर रहा है, उसे दरकिनार करना कहां का न्याय है! न्याय तो तब है जब हम इन चैतन्य देवी और देवताओं को जो घर में हैं उनको सम्मान दें, उनसे सम्मान से बात करें, उनको हमेशा ऊपर उठायें, ये दुआ और ये आशीर्वाद आपको जो मिलेगा वो ही सत्य होगा। ये आपको भी पता है कि मूर्तियों में ताकत नहीं है, आपकी भावना में ताकत है, आपके भाव में ताकत है, आपके संकल्पों में ताकत है, जिसने मूर्तियों में जान डाल दी। और उसी भाव के चलते आपके कार्य जब पूर्ण होते हैं तो आपको लगता है कि ये देवी कर रही है। लेकिन कर आप स्वयं रहे हैं। लेकिन जब एक छोटी बच्ची का दिल करुण क्रंदन करता है, जिसे देवी का एक भक्त ही उसे उस कुदृष्टि से देखता है जिससे वो सहम जाती है। क्या होगी वो करुणा, कहां गई वो मानवता, अब वो देवी चैतन्य रूप में भष्मासुर और महिषासुर का वध करने प्रकट होगी क्या! एक बार इन सारे सोचनीय प्रश्नों पर आप अपना ध्यान अवश्य लगायें कि बच्चों से, परिवार से मिलने वाली दुआ ज्य़ादा ज़रूरी है या पत्थरों की देवियों को पूजना ज्य़ादा ज़रूरी है, वो भी एक परंपरा वश! समाज अब जागृति की ओर बढ़ रहा है, इसीलिए नव-रात्रि कहा गया। नव का मतलब नवीन दुनिया की ओर अग्रसर होना और इस कलियुगी रूपी रात्रि में खुद को जगाने से ही और अपनी शक्तियों को जगाने से ही हम उस देवी स्वरूप दुर्गा, काली, गायत्री, कात्यायिनी, चंद्रघंटा आदि माताओं के जैसा बन पायेंगे। आपने अगर ध्यान से पढ़ा हो तो जितनी भी देवियों के नाम हैं सारे, ये या तो गुणवाचक हैं या कत्र्तव्यवाचक हैं। किसी न किसी गुण व विशेषता के आधार से उस देवी का नामकरण किया गया है। वो विशेषताएं सारी आपकी हैं, वो परिस्थितियां सारी आपकी हैं। वैसे भी कहीं से भी ये संभव नहीं है कि कोई देवी पाँच हाथ की हो, आठ हाथ की हो। ये सिर्फ और सिर्फ गुणों की महिमा है। ये आपको भी पता है। इसलिए महिमामंडन करने के बजाय आप वैसा खुद को बनाइये। नहीं तो आने वाले समय में ये सारी परंपराएं तो खत्म हो जायेंगी लेकिन आपने इस परंपरा के नाम से जो भी कर्म किये हैं वो सारे कर्म आपको बार-बार सतायेंगे। नव-जागरण को अर्थात् नई जागृति या अवेयरनेस को दिखाने का एक माध्यम है नवरात्रि। जिसमें व्यक्ति अपने आप को पहचानता है, अपने स्वरूप को जानने की कोशिश करता है, उसपर काम करता है और परिस्थितियों के बीच में उसको यूज़ करता है। जब वो चीज़ पूरी तरह से हमारे अंदर आ जाती है तो हम एक साधारण मनुष्य से देवी-देवता कहलाते हैं। इसीलिए जबतक लोगों का सम्मान हम नहीं करेंगे, लोगों से प्यार से बात नहीं करेंगे, लोगों को ऊपर नहीं उठायेंगे, तब तक हम इस नवरात्रि के साथ न्याय नहीं कर पायेंगे और ये पर्व हमेशा के लिए यादगार नहीं बन पायेगा। समय उस ओर जा रहा है जहाँ कोई भी ऐसा मिलने वाला नहीं है जो इन सारी बातों को समझा सके। तो समय रहते इसे समझ कर यदि तैयारी कर लेंगे तो निश्चित ही हम महिषासुर(काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार) से बच पायेंगे और ये चीज़ निरंतर अगर हमारे जीवन में आ जाये तो हम एक सम्पूर्ण मानव के रूप में उभर कर सामने आयेंगे। तो इस नवरात्रि पर ऐसा संकल्प लेकर कि हमें नौ दुर्गा के रूप में अपने आप को देखना है, तो वो सारे संस्कार और विशेषताएं हमारी हो जायेंगी।