प्रकृति के मालिक बनें न कि उनके सेवक

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मनुष्य जब धरा पर आता तो सबसे पहले वो पदार्थों का सेवन करता, जैसे ही वो बड़ा होता तो उसके सम्बन्ध व्यक्ति, प्रकृति से बनते हैं। ये सब व्यक्ति के लिए आवश्यक है किंतु हम उसे भोगते हैं। परमात्मा का कहना है कि आप सबकुछ करते उससे अनासक्त रहें तब पुण्य और श्रेष्ठ बनने की दिशा में आगे बढ़ते हैं। अन्यथा तो हम उसके सेवक बन जाते, हमें मालिक बनकर इन सब चीज़ों का सेवन और उपयोग करना है। तभी हम सफल हो सकेंगे।

मनुष्य- परमात्मा की न्यायी, अजन्मा और अभोक्ता तो है नहीं; वह तो माता के गर्भ से जन्म लेता है और जन्म लेते ही वह इस संसार के जलवायु, दुग्ध तथा हवा का सेवन अथवा भोग करने लगता है और निरपवाद(बिना अपवाद का) रूप से अपने दैहिक माता-पिता और उनके द्वारा दूसरों से उसके सम्बन्ध भी स्थापित हो ही जाते हैं। कोई भी मनुष्य इनसे बच नहीं सकता क्योंकि शरीर के विकास के लिए और उसे सशक्त बनाये रखने के लिए उसे भक्ष्य और पेय या भोजन और पदार्थ तो चाहिए ही और प्रारंभ ही से, शिशु अवस्था से, उसका लालन-पालन, शिक्षण-प्रशिक्षण करने के लिए सम्बन्धी भी चाहिए ही। इस प्रकार उसे सम्बन्ध और समाज की तथा भोग्य और पदार्थों की आवश्यकता तो होती ही है।
अब देखने की बात यह है मनुष्य की इच्छायें-तृष्णायें, उसके संकल्प-विकल्प, उसके कार्य-कलाप और कर्म-विकर्म, उसके मन, वचन और कृत्य-अकृत्य भी या तो भोग्य पदार्थों से या सम्बन्धों से जुटे होते हैं। इनको छोड़कर वह और किसी विषय पर यदि चिंतन करता भी है तो उस चिंतन में इन सम्बन्धों की पुट तो होती ही है। वास्तव में मनुष्य का सुख-दु:ख, सुविधा-असुविधा, साहित्य-कला सब इन्हीं दो से- भोग्य पदार्थों और दैहिक-सम्बन्धों से ही जुटे होते हैं। उसकी आशा-निराशा, स्वप्न-स्मृतियां सभी इसी धुरी पर घूमती हैं। इनका प्रारंभ तो बहुत सरल, स्वाभाविक और सहज तरीके से होता है। परंतु आगे चलकर यही जटिल, बंधनकारी, बोझिल और दु:खोत्पादक बनते जाते हैं।
इसलिए ही ईश्वरीय ज्ञान, योग, दिव्यगुणों की धारणा तथा सेवा की आवश्यकता होती है ताकि ये सम्बन्ध और पदार्थों का भोग हमारे लिए रोग-शोक, कष्ट-क्लेश, दु:ख और बंधनों का कारण न बनें। मनुष्य मुक्ति और जीवनमुक्ति की जो कामना करता है, वह इन्हीं भोगों और सम्बन्धों ही से पैदा होने वाले दु:खों से छुटकारा पाने की इच्छा को लेकर होता है। वह परमात्मा से योग इसलिए लगाता है कि इन भोगों और सम्बन्धों के संसर्ग(प्रेम) से उत्पन्न विकर्मों और विकारों का नाश कर सके। वह दिव्यगुणों की धारणा भी इसलिए ही करना चाहता है कि वह भोग-विलास से ऊपर उठकर और सम्बन्धों को सद्गुण-युक्त बनाकर, सुखकर बनाये और उनमें दुर्गुण रूप जो दु:ख का कांटा है, उसे निकाल फेंके। वह सेवा वृत्ति, सेवा भावना और सेवा रूप कर्म को भी इसलिए अपनाना चाहता है कि उसके सम्बन्ध केवल सेवा-भाव पर टिके हों और वह उनके जाल में फंस न जायें। इस प्रकार, अध्यात्म की भी सारी चर्चा ही इन भोगों और सम्बन्धों की बात को ठीक करने के लक्ष्य ही से हैं।
इसी संदर्भ में यहाँ कुछेक बातों का उल्लेख उपयोगी होगा। यद्यपि वे सामान्य एवं साधारण श्रेणी की ही लगती हैं परंतु सत्य और उन पर ध्यान देकर उन्हें आचरण में लाना है भी आवश्यक और लाभप्रद। उनमें से पहले हम भोग्य-पदार्थों की बात को लेते हैं।

  1. सेवक सेव्य सम्बन्ध
    जैसे पहले बताया कि शरीर को स्वस्थ, सशक्त और समर्थ बनाये रखने के लिए खान-पान की आवश्यकता होती है। ऐसे ही दूसरी इन्द्रियों के भी अपने विषय हैं। आँखों द्वारा हम हरियाली और रंग-बिरंगे फूल देखते हैं, झरने और नील गगन में तारे देखते हैं, नदी और पर्वत को देखते हुए ठंडी हवा के झोंकों में झूमने का सुख अनुभव करते हैं, इन्द्र धनुष और तितली की रंगीनियों को देखकर चकित भाव से विभोर हो उठते हैं, मोर के नाच और मंदिर की मूर्ति कला से प्रभावित होते हैं, कोयल की कू-कू और हर पशु-पंछी की बोली सुनकर लुभायमान होते हैं, जिभा से आम जैसे फलों के रस और पानी की प्यास बुझाने की शक्ति का लाभ लेते हैं, जड़ी-बूटी भी, गंगा का शीतल जल भी, खनिज पदार्थ, धातु आदि भी हैं और हीरे-मोती भी। ये सब हमारे लिए ही तो हैं। परंतु कष्ट और क्लेश तब पैदा होता है जब हम इनमें आसक्त हो जाते हैं, इनके आकर्षण-डोरों में बंध जाते हैं और इनके गुलाम होकर रहने लगते हैं या तो इनको प्राप्त करने के लिए आतुर-व्याकुल हो उठते हैं। कुदरत ने इन्हें दिया है हमारी सेवा के लिए परंतु हम इन्हें अपना स्वामी बना देते हैं। मन में यही छाये रहते हैं। इनकी ही कृपा को पाने की हम हर कोशिश करते हैं। किसी ने कहा है कि क्रक्रखाना इंसान के लिए बना है, इन्सान खाने के लिए नहीं।ञ्जञ्ज ठीक वैसे ही जितने भी भोग्य पदार्थ हैं, वे हमारे लिए बने हैं, हम उनके लिए नहीं। परंतु जब मनुष्य इसके विपरित भाव पर अपना जीवन जीने लगता है तब उसमें विकार उत्पन्न होते हैं। विषय-आसक्त होकर, वह विषय-आकुल और विषय-लोलुप बन जाता है। और विषयों का सेवक होकर जीवन जीने लगता है। विषयों के प्रति सेवक भाव रखने तथा उनमें आसक्त न होने में ही जीवन की सफलता है।
  2. वज्र्य सम्बन्ध
    संसार में कुछेक पदार्थ ऐसे भी हैं जो हमारे खान-पान के लिए नहीं हैं। उदाहरण के तौर पर तम्बाकू या उससे बने हुए सिगरेट-बीड़ी, चिल्लम-हुक्का, अफीम या उससे बने हुए नशीले पदार्थ आदि – ये मनुष्य के लिए भक्ष्य पेय या सेव्य नहीं हैं। ये वर्जित हैं। इनका सेवन ठीक नहीं है।
  3. पदार्थों से सम्बन्ध-परिवर्तन
    जन्म होते ही अनेकानेक पदार्थों से हमारे सम्बन्ध तो हो ही जाते हैं। परंतु उन सम्बन्धों में हमारी मनोवृत्ति ही से बहुत अंतर पड़ता है। यदि हम आसक्ति, इच्छा, तृष्णा, विषय-लोलुप्ता, इत्यादि से कोई पदार्थ लेते हैं तो उससे एक तो हमारी वह वृत्ति दिनोंदिन दृढ़ होती जाती है और हमें अपना दास बना लेती है, दूसरे वस्तु के आधिक्य, असमय सेवन इत्यादि के कारण स्वास्थ्य को हानि पहुंचती है और धन का भी अपव्यय होता है तथा संसार में अनाचार फैलाने के निमित्त बनते हैं। यदि हम उनको बाहुल्यता से और वैभव-प्राप्ति की वृत्ति से प्रयोग करते हैं तो हम विलासिता की ओर बढ़ते हैं और ऐश के बंदी बन जाते हैं। इसके विपरित यदि हम उनके प्रति सात्विकता, संतुलन और संयम को बनाये रखते हैं और उन्हें सेवा भाव से या क्रनिष्कामञ्ज वृत्ति से प्रयोग करते हैं तो हम हानि-लाभ, प्राप्ति-अप्राप्ति इत्यादि हर अवस्था में संतुष्ट और सुखी रहते हैं। यदि हम त्याग भावना और सादगी को महत्व देते हैं तो हमारे आचरण और अतीन्द्रिय सुख में उत्कर्ष होता है और फिर यदि उन्हें प्रभु-समर्पण करते हैं तो हमारा नैतिक बल बढ़ता है, आत्मा पवित्र होती है और हम पाप अथवा संताप से बचते हैं।
  4. व्यक्तियों से अपने सम्बन्धों का दिव्यीकरण
    जो बात हमने पदार्थों के सम्बन्ध में कही वही व्यक्तियों के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है। देह के सम्बन्धियों से जब हम व्यवहार करते हैं तो लेन-देन के कारण कर्मों का लेखा-जोखा तो बनता ही है। फिर उसी हिसाब-किताब के कारण पुन: हम सुख-दु:ख के भागीदार बनते रहते हैं। अत: आवश्यकता इस बात की है कि हम इन सम्बन्धों में भी वृत्ति और दृष्टि का परिवर्तन करें। जब तक हम इन सम्बन्धों को लौकिक एवं साधारण बनाये रखेंगे तब तक हमारे कर्मों का खाता चलता रहेगा। कोई व्यक्ति ज्ञानी या योगी ही क्यों न हो, उससे भी यदि हम लौकिक रीति से सम्बन्ध, व्यवहार या लेन-देन बनायें रखेंगे तब तक हम कर्मों की ज़ंजीरों में जकड़े रहेंगे। अत: आवश्यकता इस बात की है कि उस दृष्टि और वृत्ति को बदलकर उन सम्बन्धों को अलौकिक, योगानुकूल, मर्यादा-युक्त, सेवा-निमित्त तथा आत्मिक दृष्टि पर आधृत बनायें। वैसे ही किन्हीं प्रकार के व्यक्तियों से भी हमारा सम्बन्ध वज्र्य है। उनका संग हमारे लिए क्रकुसंगञ्ज है। वे हमारे मन एवं चरित्र को वैसे ही दूषित करते हैं जैसे वज्र्य पदार्थों के भोग से शरीर को हानि पहुंचती है। वे हमारी चेष्टाओं को बिगाड़ते हैं, हमारे संकल्पों को निकृष्ट बनाते हैं और हमारे विचारों को नकारात्मक बनाते हैं। वज्र्य भोग-पदार्थों से तो एक जन्म के लिए हानि होती है परंतु वज्र्य सम्बन्धों से मन एवं संस्कारों के दूषित होने से जन्म-जन्मांतर की हानि होती है।
  5. सम्बन्धों में जितेन्द्रियता और मनोजय
    सम्बन्धों में इन्द्रिय संयम की भी विशेष आवश्यकता होती है। इन्द्रियों पर नियंत्रण न होने से हमारे सम्बन्ध कलुषित एवं विकृत हो जाते हैं। हमारे प्राय: व्यवहार और हाव-भाव अभिव्यक्त तो इन्द्रियों ही के क्षरा होते हैं। अत: जितेन्द्रियता को सद्गुणों में मुख्य स्थान प्राप्त है। हाँ, जितेन्द्रियता के लिए मनोजय की आवश्यकता है परंतु मन में यदि कोई दूषित विचार भी आ जाए तो उसे ऐन्द्रिय-अभिव्यक्ति से रोक लेना भी जितेन्द्रियता ही में सम्मिलित है। इस प्रकार की जितेन्द्रियता आगे चलकर संस्कार-परिवर्तन और मनोजय में सहायक होती है।
  6. इन्द्रियों द्वारा वज्र्य अभिव्यक्तियाँ
    ऊपर जैसे भोजन या पेय पदार्थों की बात कही गई है, वैसी ही बात हरेक इन्द्रिय के विषय में कही जा सकती है। आँखों द्वारा किन्हीं प्रकार के दृश्यों, चित्रों या चलचित्रों को देखना, कानों द्वारा किन्हीं प्रकार के गीतों, संवादों, वार्तालापों या बातों को सुनना भी वज्र्य है। मुख द्वारा भी किन्हीें बातों को कहना वज्र्य है, जिन्हें ‘गाली’, ‘निंदा’, ‘चुगली’, ‘असत्य’, ‘कटुवचन’, ‘कर्कश शब्द’, ‘अभद्र एवं अशिष्ट शब्द’ की संज्ञा दी गई है। इसलिए ही कहा गया है कि -बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, बुरा मत करो, ‘कटुवचन’, ‘कर्कश शब्द’, ‘अभद्र एंव अशिष्ट शब्दञ्ज की संज्ञा दी गई है। इसलिए ही कहा गया है कि -बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, बुरा मत बोलो, बुरा मत करो इत्यादि।
    इस प्रकार जबकि जन्म लेने के बाद सम्बन्धों में हम आ ही गये हैं तो अब इनकी दलदल से बचने के लिए उपरोक्त कुछेक विधि-विधान हैं।

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