एकांत का सौंदर्य क्या होता…!!

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दुनिया के अन्दर लोग एकांत में रहना नहीं चाहते हैं। पर अभी विशेष लॉकडाउन के समय तो हरेक ने महसूस किया कि एकांत माना वो समझने लगे अकेलापन। और उस अकेलापन में कई लोग डिप्रेशन में भी गये। दुनिया के अन्दर डिप्रेशन का आँकड़ा भरता गया,क्योंकि लोगों को जैसे कोई है नहीं, किसके साथ बात करें तो इसीलिए जो है एकांत भाता नहीं है। लेकिन हम बाबा के बच्चों को एकांत बहुत अच्छा लगता है। क्यों? क्योंकि इसमें हम अपनी जितनी उन्नति करना चाहें, जितनी अपनी प्रोग्रेस करना चाहें वो हम सहजता से कर सकते हैं। एकांत का मतलब क्या? जब कहते हैं एकांत का सौंदर्य। तो उसका सौंदर्य क्या है? ऐसे कई बार बाबा ने उसका अर्थ बताकर कहा है कि एकांत माना एक के अंत में खो जाना। लेकिन एक के अंत में खोने के लिए हमें सुन्दर विचार चाहिए। क्यों सुन्दर विचार चाहिए ताकि अन्दर में कहीं वो डिप्रेशन वाले, कमज़ोरी के विचार न आयें। जैसे डिप्रेशन में लोग जाते हैं तो वो सभी को अपने आप से दूर कर देते हैं। और एकांत में ही फिर निगेटिव सोचते रहते हैं। इसी कारण से वो डिप्रेशन में जाते हैं। और एकांत के सौंदर्य का अनुभव नहीं कर पाते।
एकांत का अनुभव करने के लिए बहुत सुंदर विचार चाहिए। और उसमें भी जब एक बाबा के अंत में खोना है तो खुशी में जैसे बाबा कहता है ना कि मनसा-वाचा-कर्मणा तीनों में खुश रहो, हल्के रहो। तो जितना अन्दर में खुशी होगी उतना एकांत बहुत अच्छा लगेगा। खुशी वाले संकल्प हों, और खुशी-खुशी से जब हम बाबा की याद में समाते हैं तो जैसे उसका आनंद अलौकिक होता है। इसीलिए ये एकांत का सौंदर्य अनुभव करने के लिए सबसे पहले खुशी के आधार पर आनंद की स्थिति में अपने आप को स्थित करना। उसी आनंद से नींद नहीं आयेगी, निगेटिव विचार नहीं चलेंगे और सहजता से हम उसमें समा जायेंगे। बाबा की याद में बहुत अन्दर में मज़ा आयेगा।
दुनिया में जब ऋषि-मुनियों ने एकांत का अनुभव किया, अगर उसका विज़न मैं आपके दिमाग में उत्पन्न करने के लिए कहूँ तो क्या अनुभव होगा? क्या विज़न बनेगा, क्या चित्र आपके सामने आयेगा। ऋषि-मुनि एकांत में बैठा है, कहाँ बैठा होता है? गुफा में बैठा होता है या हिमालय पर बैठा होता है ऐसे ही एक चित्र सामने आता है। इसीलिए हमें बाबा भी कहते हैं कि तुम्हें एकांत का अनुभव करने के लिए गुफा में बैठ जाना है, हमारी गुफा कौन-सी है? भीतर जाना। आत्मा की भृकुटि की ये गुफा है। इसीलिए हमें कहीं बाहर जाने की ज़रूरत नहीं है क्योंकि हमारा एकांत अन्दर में है। और जितना आत्मा के, उस भृकुटि के मध्य की गुफा में हम अपने आपको ले चलें और गुफा में बैठते हैं तो एकदम साइलेंस। जैसे लोग हिमालय आदि पर चले जाते हैं तपस्या आदि करने के लिए, एकांत में बैठ जाते हैं। अर्थात् हर प्रकार के आवाज़ से दूर हो जाना। लेकिन अगर अन्दर में बहुत आवाज़ हो तो क्या करेंगे? अन्दर में ही व्यर्थ संकल्पों का आवाज़ हो तो क्या करेंगे कहाँ जायेगा व्यक्ति? इसीलिए बाबा कहते हैं कि तुम्हें शरीर से कहीं भी जाने की ज़रूरत नहीं है, कहीं हिमालय पर जाने की ज़रूरत नहीं है लेकिन हम अपने मन को भीतर ले जायें और उस भृकुटि की गुफा में साइलेंस बैठ जायें। लेकिन साइलेंस भी कैसी, खुशी वाली साइलेंस।
आनंद वाली साइलेंस जिसको कहा जाता है स्वीट साइलेंस। एक है डेड साइलेंस। हमें डेड साइलेंस में नहीं जाना है। हमें स्वीट साइलेंस में बैठना है। बहुत मीठी वो अवस्था हो अन्दर की, खुशी की अवस्था हो, आनंद की अवस्था हो उसको कहते हैं स्वीट साइलेंस। तो उस गुफा में अन्दर जाना है। उस समय मन को एकाग्र करना है बाबा के उस स्वरूप पर। याद आता है कि जब पहली बार शिव बाबा का अवतरण हुआ ब्रह्मा बाबा में, तो बाबा ने सबसे पहले अपने परिचय में क्या कहा? निजानंद स्वरूपम शिवोहम… शिवोहम… बाबा की अनंत महिमा है लेकिन उस समय में भी भगवान ने अपना परिचय दिया कि मैं निजानंद स्वरूप हूँ। मैं नित्यानंद स्वरूप हूँ और इसीलिए दुनिया में भी लोगों ने इसी को ही हाइएस्ट अचीवमेंट कहा। सर्वश्रेष्ठ अगर प्राप्ति है राजयोग की तो वो है निजानंद का अनुभव करना, क्योंकि उससे क्या होता है अतीन्द्रिय सुख जो आज तक मनुष्य इन्द्रियों के सुख के पीछे भागते रहे, उसका अनुभव करने के लिए भागते रहे, उसमें आनंद ढूंढते रहे, लेकिन जब आत्मा निजानंद के स्वरूप में हो तो अतिन्द्रिय सुख का अनुभव होगा और एकांत माना निरसता नहीं, अकेलापन नहीं, लेकिन एकांत माना अतिन्द्रिय सुख का अनुभव करना। इसीलिए निजानंद स्वरूप का भगवान ने जो परिचय दिया, इसीलिए बड़े-बड़े ऋषि मुनियों ने भी उसे अनुभव करना चाहा। आनंद को सर्वश्रेष्ठ क्यों माना गया है? क्योंकि आनंद का कोई अपोजिट नहीं है। जैसे सुख का अपोजिट दु:ख है, खुशी का अपोजिट उदासी है, हर एक चीज़ का अपोजिट मिलेगा। लेकिन आनंद का कोई अपोजिट नहीं,आनंद माना आनंद। तो इसीलिए वो सर्वश्रेष्ठ प्राप्ति मानी गई।
ब्रह्मा बाबा के कई ऐसे चित्र बने हुए हैं जो देखते हैं कि बाबा पहाड़ों पर ऐसे हाथ रखके बैठे हुए हैं, कैसे एक आनंद की स्थिति में खोए हुए हैं। 93 वर्ष की आयु में बाबा को कहीं झुटका आ गया हो ऐसा नहीं हुआ। क्यों? क्योंकि बाबा उस परम आनंद में रहते थे। मनसा-वाचा-कर्मणा खुशी में रहते थे। इसीलिए जब बैठते थे तो परमआंनद की स्थिति में सहजता से अन्दर चले जाते थे। ये है एकांत।

अन्तर्मुखी होकर अपने को उस गुफा में ले जाते हैं। लोग दुनिया में अन्तर्मुखी क्यों नहीं हो पाते हैं,क्योंकि उन्हें बाह्यमुखता का रस बहुत है। इसीलिए अगर थोड़ी घड़ी के लिए भी उनको कहा जाये कि आज सारा दिन आप इस कोठरी में बैठो। तो क्या होता है उनको बहुत तकलीफ होती है।
एक बहुत सुन्दर कहानी मैं आपको बताती हूँ एक बार दो मित्र की आपस में शर्त लग गई कि अगर तुम एक महीना एक कमरे में तुमको खाना पहुंचा दिया जायेगा लेकिन एक महीना तुम्हें अकेले में रहना है, एकांत में रहना है और अगर तुम एक महीना रह गये तो तुम्हें 10 लाख रूपया इनाम में दूंगा। और अगर नहीं रह पायें तो तुम्हें मुझे देना होगा। तो कहा ठीक है तो पहले तू एक महीना रहकर दिखाओ और फिर एक महीना मैं रहकर दिखाऊंगा। दोनों की आपस में शर्त लग गई अब शर्त लगी तो कहा ठीक है। अब उसके हाथ से मोबाइल आदि भी ले लिया एकांत में रहना है ना तो मोबाइल का क्या करेंगे। 2-3 अच्छी किताबें पढऩे के लिए रख दिया। और बाकी भोजन आपको टाइम से पहुंच जायेगा बाकी आपको सारा दिन उस कमरे में ही रहना है। बाहर नहीं निकलना है। कमरा बहुत अच्छा हवादार आदि सबकुछ है लेकिन तुमको वहाँ रहना है अकेले। तो पहले दिन व्यक्ति को लगा कि कितना लम्बा दिन है ये तो रोज़ तो मेरा दिन कहाँ जाता पता ही नहीं चलता था। पहले दिन तो निकाल दिया और दूसरे दिन क्या करूँ-क्या करूँ, कुछ है नहीं। पढऩे का शोंक नहीं उसको। वो भी किताबें हैं दो तीन क्या पढ़ेंगे फिर अन्दर फस्ट्रेशन आने लगा। तो फिर खूब ज़ोर ज़ोर से चिल्लाने लगा। फिर कहा मेरी दो दिन में ही ये हालत हो रही है फिर आता कि नहीं नहीं मुझे दस लाख तो लेना है कैसे भी करके। 10 लाख की प्राप्ति जो है ना वो फिर चुप होकर बैठ जाता। कोई बात नहीं निकाल देंगे। लेकिन फिर उसे बहुत अन्दर में बेचैनी होने लगती, अपने कपड़े फाडऩा चालू कर दिया। कुछ तो इंसान करे। एकांत में बैठकर व्यक्ति क्या करेगा। एकांत व्यक्ति को भाता नहीं है। आखिर आठ दस दिन तो उसके बहुत मुश्किल गये औरउसको लगा नहीं चाहिए दस लाख, मैं ऐसे ही मर जाऊंगा मुझे दस लाख मिलने ही नहीं हैं। छोड़ दो। लेकिन फिश्र आता था कि नहीं नहीं जब दस दिन निकाल दिया और भी निकाल दूँगा। एक एक दिन गिनती करता गया। फिर दस दिन के बाद धीरे-धीरे उसका मन शांत होने लगा। एकदम। और शांत होते होते जैसे आत्म स्वरूप का अनुभव किया उसने। शांति में बैठ गया, भगवान को याद करूँ, ध्यान करूँ। ऐसे करके ध्यान करना शुरू किया। और एक ऐसी डिवाइन रियलाइज़ेशन उसको मिली। कि उसको फिर वो एकांत इतना भाने लगा, इतना भाने लगा। इतना अच्छा आनंद का अनुभव करने लगा क्योंकि व्यक्ति सोयेगा तो कितना सोयेगा। क्योंकि फिर तो नींद भी नहीं आती। तो धीरे धीरे वो खुशी में रहकरके क्योंकि उसका सारा फ्रस्ट्रेशन का फेज जो था वो सारा खत्म हो गया। उस फेज़ से गुज़र गया और उस फेज़ के बाद जो है उसके बाद उसको लगा कि नहीं मुझे ध्यान करना है। ध्यान करना आरम्भ किया। और धीरे धीरे उसमें आनंद की स्थिति का अनुभव करने लगा। सारा दिन कोई काम नहीं होता था तो नींद जल्दी खुल जाती थी तो जैसे ब्रह्ममुहूर्त में उठता था, कमरा तो हवादार था ही, खिड़की आदि खोल देता था। और सुबह सुबह ध्यान करता था। उसका मन इतना शांत हो गया। खुशी का अनुभव होने लगा। उसे ऐसे लगा जैसे वो उड़ रहा है। पच्चीसवें दिन उसे अनुभव होने लगा कि इतनी अनमोल चीज़ मैंने प्राप्त की है। इतना अनमोल अनुभव मैंने जीवन में प्राप्त किया। तो इसके आगे दस लाख क्या हैं? कुछ भी नहीं हैं। और 29वें दिन उसने अपने मित्र को पत्र लिखा कि तुमने मुझे जो ये शर्त में भले दस लाख एक लालच देकर तुमने मुझे इतना अनमोल अनुभव दिया है कि मुझे लगता नहीं है कि मैं उस संसार में वापिस जाऊं लेकिन मैं इसी आनंद की अनुभूति में रहना चाहता हूँ इसीलिए मुझे वो पैसे भी नहीं चाहिए। वो तुम रख लेना। और मैं जा रहा हूँ आगे इसी स्थिति में जीवन गुज़ारने के लिए। इतनी अनमोल चीज़ होती है ये। उसका मित्र इतनी टेंशन में क्योंकि उसके पास दस लाख थे ही नहीं। उसको इका कैसे करूँ, उसको कैसे दूँ। क्या उसको दूँ इस टेंशन में था।लेकिन जब वो 30वें दिन आया तो वो घर खाली करके वो चला गया था और चिी वहाँ रखकर गया था कि तुमने दस लाख से भी अधिक अनमोल चीज़ मुझे दे दिया। इसके आगे मुझे और कुछ नहीं चाहिए। बाबा भी हम बच्चों से ये अनुभव करवाना चाहते हैं और उसके लिए आवश्यकता है इसलिए कहा जाता है कि एकांत अकेला नहीं होता है। एकांत के आगे तीन चीज़ें और होती हैं। और तीन चीज़ें कौन सी? तो पहली है इकोनॉमी, फिर है एकनामी, तीसरी है एकाग्रता। और चौथी है एकांतप्रिय। तो पहली जो इकॉनोमी है वो है हम अपने व्यर्थ के विचारों की इकॉनोमी करें। व्यर्थ के विचारो ंको समाप्त करें। अपने विचारों को वेस्ट न जानें दें। इतना सुंदर खज़ाना बाबा ने हमें संकल्पों का दिया है। ये संकल्पों के खज़ाने की इकॉनोमी चाहिए। और जो ये वेस्ट इकॉनोमी कर सकता है। वेस्ट वाचा, वेस्ट संकल्प, वेस्ट एनर्जी जो हमारी जा रही है। कलियुग के अन्दर तो मनुष्य की बहुत वेस्ट जाती है। लेकिन ब्राह्मण बनने के बावजूद भी कभी कभी वो पुराने संस्कार इस तरह से इमर्ज होने लगते हैं कि रियलाइज़ नहीं होते। और जब रियलाइज़ होने लगते हैं तो अपने आपको सावधान कर देते हैं। तो पहले पहले चाहिए कि अपनी जो एनर्जी है, उसका हम बचत करते जायेंगे। उसकी हम इकॉनोमी करें। संकल्पों के खज़ाने की, एनर्जी की, हमारी जो ऊर्जा है उस ऊर्जा को एकत्रित करें। दूसरा एकनामी अर्थात् एक परमात्मा से ही सर्व सम्बन्धों का अनुभव करना। इसीलिए एकांत के साथ सदा एकांतप्रिय। प्रिय कब होते हैं जब हमारे सर्व सम्बन्ध बाबा के साथ एक के प्रिय होंगे हम, एक शिव बाबा के प्रिय बन जायें हम। तो एकनामी। तो बुद्धि का जो भटकाव है बाहर की दुनिया के अन्दर वहाँ से उसको मोड़ करके एकनामी फोकस बहुत ज़रूरी है। और जब ऐसा हम बाह्य तरफ से बुद्धि को समेट करके एक बाबा में एकाग्र करते हैं, एकाग्रता धीरे-धीरे बढऩे लगती है और उस एकाग्रता से वो एकांतप्रिय, वो इतनी सुंदर अवस्था होने लगती है। जिस अवस्था में व्यक्ति समाये रहना चाहता है। इसलिए एकांत से पहले ये तीन स्टेज जो है उसको पार करते ही हम एकांतप्रिय हो सकते हैं। अगर हमें अपने संकल्पों का बचाव, इकॉनोमी करना नहीं आया तो वो एकांत का अनुभव नहीं कर सकते। साथ ही साथ उसका मन एकाग्र नहीं होगा। इसीलिए ये तीन स्टेज बहुत ज़रूरी है। तब जाकर उस एकांत में बैठकर उस अन्तर्मुखता की गुफा में चले जायेंगे और उस आनंद का अनुभव करेंगे। दूसरा जैसे बाबा हमें कहते हैं कि कोई भी व्यक्ति को एकांत का अनुभव करना है तो अंडरग्राउंड होना ज़रूरी है। बाहर की दुनिया से डिटैच करने के लिए अंडरग्राउंड चले जाओ। जितना अंडरग्राउंड चले जायेंगे तो सुन्दर विचार मन के अन्दर आरम्भ होंगे। जैसे कोई भी साइंटिस्ट, वो नई इन्वेंशन करनी होती है तो वो अंडरग्राउंड चला जाता है अगर वो बाहर के लोगों से मिलता रहा तो वो उसकी स्थिति बनेगी ही नहीं, विचारों को एकाग्र नहीं कर पायेगा। इसीलिए उसको अंडरग्राउंड जाना ही पड़ता है। तब एकाग्रचित्त होकर उसके अन्दर जो डेवलपमेंट उसको करनी है, इन्वेंशन उसको करनी है उसके लिए उसे जो विचार चाहिए वो विचारों को सहज निर्मित कर सकता है अपने अन्दर, क्रियेट कर सकता है। तो ठीक इसी तरह हमें भी अंडरग्राउंड होना बहुत ज़रूरी है। तो बाहर के बातों को, विचारों को फुल स्टॉप करना आसान हो जायेगा। तब जाकर मन की एकाग्रता से उस एक के अंत में शिव बाबा का अंत पाना मुश्किल है। क्योंकि उसका अंत कहाँ है पता ही नहीं है जिस तरह समुद्र का, धरती का या आकाश का अंत पाना मुश्किल है पता ही नहीं है इसका अंत कहाँ है। ठीक इसी तरह शिव बाबा का अंत पाना भी मुश्किल है। लेकिन उस अनंत में अपने मन को ले जाते हुए एक क्षण ऐसी आती है जब उस शिव बाबा के विशाल स्वरूप है, जो तेज है उस तेज में हम अपने आपको जैसे बाबा के प्रेम में अपने आपको समा सकते हैं। तो एकांतप्रिय होने के लिए उस प्रेम के सागर में बाबा के साथ इतना गहरा प्यार हमारा हो तब उस एकांतप्रिय हम सहजता से बन सकते हैं और उसका सहजता से अनुभव कर सकते हैं।
तीसरी बात कि एकांतप्रिय होने के लिए आवश्यकता है बेहद की वैराग्य वृत्ति। जितना बेहद की वैराग्य वृत्ति है तभी एक रियल तपस्या की दृढ़ता जो है वो आरंभ होती है। इसीलिए बाबा कहते तुम बच्चों को तपस्या करनी है, तपस्या का आधार है बेहद की वैराग्य वृत्ति। बिना बेहद की वैराग्य वृत्ति के तपस्या हो ही नहीं सकती। रियल तपस्या नहीं है। भले कोई भ_ी में बैठ जाये सारा दिन भी बैठ जाये लेकिन अगर मन से वैराग्य नहीं होगा तो मन से दुनिया में घूमता रहेगा। तो इसके लिए बेहद की वैराग्य वृत्ति ऐसी चाहिए कि उस बेहद की वैराग्य वृत्ति से ही हम उस एकांतप्रिय, बाबा के प्यार में सहजता से समा सकते हैं।उस प्रिय के अंत को भी पाना सहज हो जायेगा। जो न पाने वाली असम्भव है उसको पाना भी सहज हो जायेगा। इसलिए बाबा हमारा बार-बार उस ओर ध्यान खिंचवाते हुए कहते हैं कि बच्चे तुम्हें उस बेहद की वैराग्य वृत्ति को ले आना होगा।
एक बार हमारी आदरणीय गुल्ज़ार दादी से ऐसे ही चिटचैट हो रही थी। दादी से हमने कहा कि दादी बाबा तो कहते हैं कि समय आपके लिए रूका हुआ है क्योंकि हम बच्चे तैयार नहीं है इसलिए समय विनाश ज्वाला प्रज्वलित नहीं हो रही है, समय रूका हुआ है और दूसरी ओर हम ब्राह्मणों को देखते हैं, इस ब्राह्मण संसार को देखते हैं वहाँ ऐसा नज़र आता है कि ब्राह्मणों की चाल जिस तरह से है सतोप्रधानता की तरफ जाने की बजाय कभी कभी लगता है दुनिया के आकर्षणों में जा रहा है तो क्या कभी विनाश होगा ही नहीं! अगर समय हमारे लिए रूका हुआ है लेकिन हम तैयार होने के बजाय हम दूसरी ओर जा रहे हैं तो क्या विनाश होगा ही नहीं। क्योंकि मैंने दादी से कहा कि जब बाबा साकार में थे और आप सभी ने जो तपस्या की है वो सतोप्रधानता तपस्या थी वो समय को जल्दी ले आती। लेकिन अब वो तपस्या कहाँ है?ब्राह्मणों के जीवन में तपस्या कहाँ है? तो दादी मुस्कुराकर कहने लगी कि समय तो आयेगा और ब्राह्मण ही लायेंगे। लेकिन कोई धर्म को चार अवस्था से गुजरना पड़ता है ब्राह्मण भी धर्म है। ब्राह्मणों का घराना नहीं कहा जाता है। घराना राजाई को कहा जाता है। तो ब्राह्मणों का घराना नहीं है ब्राह्मणों का कुल है। ब्राह्मण एक धर्म है। तो कोई भीधर्म को चार स्टेजेस से गुजरना पड़ता है। जैसे देवी-देवता धर्म वाली आत्मायें भी चारों अवस्थाओं से गुजरी। इसी तरह ब्राह्मण भी धर्म है। इसीलिए बाबा के समय भी वो सतोप्रधानता थी, फिर धीरे धीरे सतो आई, फिर रजो आई, और अब तमो और अब और भी कुछ देखना बाकी है दादी ने कहा। अभी तो तमोप्रधानता भी देखेंगे ब्राह्मण धर्म में। जो कभी सोचा नहीं होगा, ऐसा होगा। मैंने कहा फिर दादी, फिर दादी ने कहा कि दो प्रकार के बच्चे हो जायेंगे एक हैं जिसको लगेगा इससे तो दुनिया अच्छी यहाँ जो हो रहा है इससे तो दुनिया अच्छी। वो दुनिया में चले जायेंगे माया उनको खींच लेगी। जो अंतिम दाव है माया का तो वो खींच लेगी। और दुनिया तो अच्छी ही होगी ना। क्योंकि ये आत्मायें तो पूरे 84जन्म साथ रही हैं। तो जो सबसे ज्य़ादा सतोप्रधान है वो सबसे ज्य़ादा तमोप्रधान भी तो बनेगी कि नहीं बनेगी। दुनिया पीछे से आई तो उनकी तमोप्रधानता भी तो कम है क्योंकि उनकी सतोप्रधानता भी ऐसी नहीं थी। इसलिए दुनिया तो अच्छी ही होगी। यहाँ जो देखने को मिलेगा वो वहाँ भी नहीं मिलेगा ऐसा भी होगा, ऐसा दादी ने कहा। जब मैंने ये सवाल पूछा था तो दादी ने कहा अभी तो ये कुछ नहीं है। लेकिन आगे चलकर ऐसा ऐसा दृश्य देखेंगे तो दो प्रकार बच्चे जो हो जायेंगे उसमें से एक होगा जो कहेंगे इससे तो दुनिया अच्छी, वो दुनिया की तरफ वापिस मुड़ जायेंगे। और जो दूसरी प्रकार के बच्चे हैं जो निश्चयबु8ि हैं जिन्होंने भगवान को देखकर अपने को बनाया है उनके अन्दर बेहद का वैराग्य आयेगा। और इतना वैराग्य आयेगा कि उसको लगेगा कि छोड़ो सब बातें अभी। अब तपस्या ही करो। और उस बेहद के वैराग्य से जो तपस्या आरम्भ होगी वो रियल तपस्या होगी। अभी जो योग कर रहे हैं वो तपस्या नहीं है दादी ने कहा। हाँ इतनी देर विकर्म नहीं कर रहे हैं लेकिन जो विकर्म भस्म होना चाहिए वो वाला योग भी नहीं है। वो तपस्या नहीं है क्योंकि तपस्या रियल उसको कहा जाता है बेहद की वैराग्य वृत्ति से तपस्या आरम्भ हो। अभी हम जो कर रहे हैं हाँ विकर्म बनता नहीं है लेकिन जो विकर्म दग्ध होना चाहिए वो भी नहीं है। ठीक है समय सफल हो रहा है, बाबा को याद करने बैठे हैं और इसीलिए याद साधारण होती है कभी पॉवरफुल होती है, कभी साधारण होती है, कभी नींद भी आ जाती है, झुटका भी आ जाता है। सब होता है इसमें। इसलिए इसको तपस्या शब्द नहीं कहेंगे, तपस्या तो तब होगी जब रियल में बेहद का वैराग्य देखने के बाद ये हो रहा है, ऐसा भी होता है, दादी ने कहा ये सब होगा। लेकिन अन्दर में वही एक वैराग्य क्रियेट करेगा कि बस अभी सब बातें छोड़ो बाबा को याद करो। और उस समय जो एकदम बेहद की वैराग्य वृत्ति से जो याद में बैठेेंगे तो एकटिक हो जायेंगे, एकाग्र हो जायेंगे। और उस स्थिति से समय को ले आयेंगे। वो आत्मायें विनाश ज्वाला को प्रज्वलित करेंगी। अभी जिस तरीके से चल रहे हैं ये कोई विनाश ज्वाला को प्रज्वलित नहीं करती है। इसीलिए ये सब होना है औश्र उसके लिए तैयार, मानसिक तैयारी चाहिए क्योंकि अगर नहीं होगी तो क्या होगा माया खींच कर दुनिया में ले जायेगी वापिस। इसीलिए ये तपस्या के लिए बेहद की वैराग्य वृत्ति बहुत ज़रूरी है। अभी से उसका अभ्यास ज़रूर करना है।

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