मन के अन्दर जो अनेक प्रकार के व्यर्थ चल रहे हैं, साधारण संकल्प चल रहे हैं उस व्यर्थ और साधारण से हम अपने आप को परिवर्तन करें और समर्थ संकल्प या शक्तिशाली संकल्प में ले आएं।
बाबा हम बच्चों को यही ज्ञान के महावाक्य सुनाते हुए हमारी स्थिति को परिपक्व कर रहे हैं ताकि अन्तिम समय जो पेपर है उसमें पास होने का अभ्यास यही अशरीरीपन है। परंतु ये अभ्यास एक सेकंड का होना चाहिए। और ये एक सेकंड में हम सहज ही देह और देह भान से न्यारे हो जायें, या न्यारे हो सकें उसके लिए बाबा ने हम बच्चों को कई प्रकार की ड्रिल कराई है। जब भी बाबा की अव्यक्त मुरली चलती थी तो मैं समझती हूँ 2007 से ही बाबा ने हर मुरली के बाद ड्रिल कराई और बाबा की ड्रिल के पीछे यही फोकस था कि बच्चे एक सेकंड में डिटैच हो जाओ। क्या इतना हमारा अपनी कर्मेन्द्रियों के ऊपर, अपनी स्थिति के ऊपर अधिकार है? जो हम एक सेकंड में न्यारे हो सकें। ये अशरीरीपन की स्थिति को समझने के लिए अच्छी तरह से साइलेंस की परिभाषा को समझना ज़रूरी है।
जो साइलेंस की स्टेजेस हैं उसमें पहली स्टेज है- साइलेंस। दूसरी स्टेज है- स्वीट साइलेंस। तीसरी स्टेज है- डीप साइलेंस। और चौथी स्टेज है- डेड साइलेंस। तो अशरीरीपन का अभ्यास इन साइलेंस की जो विभिन्न स्टेजेस हैं उसके माध्यम से हम अपने जीवन के अन्दर डेवलप कर सकते हैं। जब कहते हैं कि साइलेंस में स्थित हो जाओ। पहली स्टेज- तो उस समय भाव यही है कि मन के अन्दर जो अनेक प्रकार के व्यर्थ चल रहे हैं, साधारण संकल्प चल रहे हैं उस व्यर्थ और साधारण से हम अपने आप को परिवर्तन करें और समर्थ संकल्प या शक्तिशाली संकल्प में ले आएं। क्योंकि साइलेंस माना कोई निल अवस्था में नहीं ले जाना है। शून्य अवस्था में नहीं ले जाना है। क्योंकि मन कभी शून्य हो ही नहीं सकता है। जब हम उसको दबाव डाल करके करें तो वो भी कुछ क्षणों के लिए ही मन निसर्कंल्प हो सकता है। लेकिन भाव यही है जो बाबा ने मुरली में भी बताया कि व्यर्थ संकल्पों से हम कितना फ्री हैं। या अभी भी व्यर्थ चल रहा है। तो जो व्यर्थ है या साधारणता के संकल्प हैं उसको परिवर्तन करना, और परिवर्तन करते हुए वे उसको श्रेष्ठ शक्तिशाली समर्थ में लगाना जितना उसको एक श्रेष्ठ दिशा दे देते हैं। तो नैचुरल है वो संकल्पों की गति धीमी हो जाती है। जिस तरह से निगेटिव संकल्प की गति फास्ट हो जाती है, एक सेकंड में पता नहीं कितने विचार चलते हैं! व्यर्थ संकल्पों में भी गति बहुत तीव्र हो जाती है। तो जैसे ही हम उसको श्रेष्ठ दिशा में मोड़ते हैं तो गति अपने आप स्लो होने लगती है। और कहा जाता है कि जितना ये स्लो वेव्स होते हैं मन के, उतने वो पॉवरफुल होते हैं, शक्तिशाली होते हैं। इसीलिए उसको शक्तिशाली बनाना है। और शक्तिशाली जब स्लो होते जाते हैं तो धीरे-धीरे कोई न कोई स्थिति में जाकर स्थित हो जाते हैं। तो उस स्थिति का अनुभव करना सहज हो जाता है।
दूसरा कहें तो जिसको कहेंगे आत्मभिमानी स्थिति में स्थित करना, तो साइलेंस माना जैसे खुद को अन्तर्मुखी कर देना, बाह्यमुखता से भीतर ले जाओ। और भीतर ले जा करके आत्मभिमानी स्थिति में स्थित कर देना। अर्थात् ये देह और देह के भान से अपने आपको डिटैच किया और आत्मभिमानी स्थिति में स्थित करना मतलब कि आत्मा के जो सातों गुण हैं उन गुणों का स्वरूप बन जाना। और एक-एक गुणों की महसूसता में मन को ले जाना। तो इसीलिए कहा कि अशरीरी तो फाइनल स्टेज है। लेकिन प्रथम जब तक हमने ये आत्मभिमानी स्थिति का अभ्यास नहीं किया है तब तक अशरीरी होना बहुत मुश्किल है। क्योंकि बार-बार देह भान हमें खींचता है। नीचे ले आता है। क्योंकि कर्मयोगी जीवन है तो कर्मयोगी जीवन होने के कारण कर्म तो छोडऩा नहीं है। अंत तक जैसे ब्रह्मा बाबा ने भी कर्म किए, कोई भी सेवा नहीं छोड़ी, ऐसे हमें भी कोई सेवा छोडऩी नहीं है। ना कर्म छोडऩा है। लेकिन हर कर्म करते हुए ये स्थिति का अभ्यास करना है। तो अशरीरी बनने के लिए तो ये पहला कदम है कि आत्मभिमानी स्थिति में या स्वरूप में स्थित हो जाओ, इसको कहेंगे साइलेंस।
जब बाह्य कर्मेन्द्रियों को समेट लिए, अन्तर्मुखी हो गये, भीतर चले गए और भीतर जाकर उस आनन्द का, क्योंकि ये सारी चीज़ है, अगर ये भरपूरता आई तो इसका फाइनल रिज़ल्ट क्या है? आनंद। उसका फाइनल रिज़ल्ट है कि योग में अतीन्द्रिय सुख या आनंद की अनुभूति होना। जो बाहर की कोई भी चीज़ मन को विचलित नहीं कर सके, ये है साइलेंस।