परमात्म प्रीति से जीवन परिवर्तन

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आप देखेंगे कि जीवन को पतित से पावन, विकारी से निर्विकारी तथा भोगी से योगी बनाने का जो पुरुषार्थ है वह बहुत हद तक प्रभु प्रीति पर आधारित है। उसके लिए प्राय: यह कहा जाता है कि मनुष्य अपने जीवन में त्याग की भावना लाये। परंतु मनुष्य त्याग तो प्यार के आधार पर ही करता है। जब प्रभु की प्रीति में उसका मन जुट जाता है, तभी तो वह लोक-लाज, कलियुग की कुल मर्यादायें(आसुरी मर्यादायें), मान-अपमान का विचार, फैशन, चस्के और स्वाद का त्याग करता है। जैसे मीरा को प्रभु से प्रीत हो गई तो भव्य राजदरबार भी उसे फीका लगने लगा और उसका त्याग हो गया।
अन्य लोग कहते हैं, ईश्वरीय मार्ग में दृष्टि और वृत्ति को पवित्र करना ज़रूरी है, परंतु दृष्टि-वृत्ति तो तभी विकृत होती है जब मनुष्य का प्यार विकृत होता है। अर्थात् जब उसका प्यार काम, क्रोध, लोभ या मोह का रूप धारण कर लेता है। अत: यदि मनुष्य की प्रभु से प्रीति होती है तो स्वाभाविक है कि मनुष्य से भी उसका शुद्ध प्यार होता है। इसका भाव यह हुआ कि उसकी दृष्टि-वृत्ति भी शुद्ध हो जाती है। यानी कि उनका व्यवहार विनाशी वस्तु व विनाशी देह से ऊपर उठकर अविनाशी व सुखदायी होता है।
कई बार यह भी कहा जाता है कि निराकार, निरहंकार और निर्विकार स्थिति ही पुरुषार्थ का सार है। किंतु काम, क्रोध आदि सभी विकार तथा अहंकार दैहिक प्रेम से पैदा होते हैं और प्रभु प्रीति से ही ये विकार शांत होते हैं। फिर चूंकि परमात्मा निराकार है, अत: उनकी प्रीति तथा स्मृति में हमारी स्थिति निर्विकार और अतिरिक्त निराकार अर्थात् विदेही स्थिति होती है। उसका देह एक लाइट के समान होता है यानी कि इस संसार में रहते भी संसार से उपराम होता है और ईश्वरीय प्रेम के कारण वो ईश्वर के प्रति समर्पित रहता है। परमात्मा के आदेश, उपदेश व संदेश में ही उसका जीवन समर्पित होता है। ये सब परमात्म प्रेम के कारण ही त्याग हो जाता है।
ऐसा भी कहा जा सकता है कि क्रमरजीवा जन्मञ्ज लेने से ही मनुष्य के जीवन में परिवर्तन आता है। परंतु क्रमरजीवा जन्मञ्ज लेने का भाव भी तो यही है कि देह के सर्व सम्बंधों में से प्रीति को निकाल कर एक परमात्मा, परम सखा, परम सद्गुरु परमात्मा ही से सर्व सम्बंध जोड़े जायें। अर्थात् सर्व सम्बंधों में होने वाली प्रीति एक ईश्वर ही पर केन्द्रित हो। इन सांसारिक सम्बंध, सम्पर्क से उनकी बुद्धि उपराम हो जाती और वही सम्बंधों का रस वो प्रभु से पाता है। रहेगा तो यहीं, परंतु परमात्मा के शुद्ध अलौकिक आकर्षण में ही उसकी प्रीत जुटी होगी। तो परमात्म प्रेम ही जीवन परिवर्तन का आधार हो जाता है।
आप देखेंगे कि आध्यात्मिक पुरुषार्थ में मनुष्य के मार्ग में जो विघ्न आते हैं, वे भी प्रीति ही से सम्बंधित होते हैं। मनुष्य जब प्रभु से प्रीत लगाता है तो उसके नातेदार, रिश्तेदार सोचते हैं कि शायद ये हमें छोड़ देगा, इसीलिए वे रुकावटें डालने लगते हैं या तो मनुष्य का अपना मन पिछली प्रीतियों यानी काम वाले सम्बंध अथवा मोह वाले सम्बंधों के प्रति पुन: आकर्षण अनुभव करता है। या ऐसा भी होता है कि उसका अपनी देह से प्यार(लगाव) होता है और उसके रोग अथवा अन्य किसी कठिनाइयों के कारण वह योग इत्यादि में विघ्न अनुभव करता है। एक तरह से उसके मन में द्वन्द्व चलता है। सांसारिक आकर्षण की प्रीतियों व ईश्वरीय आकर्षण की प्रीतियों के बीच युद्ध जैसी स्थिति अनुभव करता है।
इस तरह से अगर देखा जाये तो जीवन परिवर्तन परमात्म प्रीति के आधार पर ही होता है। जहाँ प्यार है वहाँ सब न्यौछावर हो जाता है। जैसे माँ का बच्चों के प्रति प्यार कई कुर्बानियाँ करा देता है। जीवन परिवर्तन प्रभु प्रेम पर ही टिका है। अन्यथा तो हम न इधर के, न उधर के रह जाते हैं। अत: शुद्ध प्रेम में किये गये पुरुषार्थ द्वारा ही जीवन परिवर्तन होता है।

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