परिस्थिति को लेकर शोक करना, सुखी-दु:खी होना मूर्खता से कम नहीं

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संसार में मात्र दो चीज़ें हैं- सत् और असत्, शरीरी और शरीर इन दोनों में शरीरी तो अविनाशी है और शरीर विनाशी है। ये दोनों ही असोच्य हैं। अविनाशी का कभी विनाश नहीं होता, इसलिए उसके लिये शोक करना बनता ही नहीं और विनाशी का विनाश होता ही है, वह एक क्षण भी स्थायी रूप से नहीं रहता, इसलिए उसके लिए भी शोक करना नहीं बनता। तात्पर्य ये हुआ कि शोक करना न तो शरीर को लेकर बन सकता है और न शरीरी को लेकर ही बन सकता है। शोक के होने में तो केवल अविवेक(मूर्खता) ही कारण है।
मनुष्य के सामने जन्म-मरन, लाभ-हानि आदि के रूप में जो कुछ परिस्थिति आती है, वह प्रालब्ध का अर्थात् अपने किये हुए कर्मों का ही फल है। उस अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थितियों को लेकर शोक करना, सुखी-दु:खी होना केवल मूर्खता ही है। कारण ये कि परिस्थिति चाहे अनुकूल हो, चाहे प्रतिकूल, उसका आरंभ और अंत होता है अर्थात् परिस्थिति पहले भी नहीं थी और अंत में भी नहीं रहेगी। जो परिस्थिति आदि में और अंत में नहीं होती, वह बीच में एक क्षण भी स्थायी नहीं होती। अगर स्थाई होती तो मिटती कैसे? और मिटती है तो स्थाई कैसे? ऐसी प्रतिक्षण मिटने वाली अनुकूल-प्रतिकूल परिस्थिति को लेकर हर्ष-शोक करना, सुखी-दु:खी होना केवल मूर्खता है।
गीता में कहा है क्रप्रसावादांश्च भाषनेञ्ज एक तरफ तो तू पंडिताई(विद्वान) की बातें बघार रहा है और दूसरी तरफ शोक भी कर रहा है। अत: तू केवल बातें ही बनाता है। वास्तव में तू पंडित नहीं है, क्योंकि जो पंडित होते हैं, वे किसी के लिये भी कभी शोक नहीं करते।
कुल का नाश होने तक कुल-धर्म नष्ट हो जायेगा। धर्म के नष्ट होने से स्त्रियां दूषित हो जायेंगी, जिससे वर्णसंकट पैदा होगा। वह वर्णसंकट कुलघातियों को और उनके कुल को नरक में ले जाने वाला होगा। पिण्ड और पानी न मिलने से उनके पितरों का भी पतन हो जायेगा।
ऐसी तेरी पंडिताई की बातों से भी यही सिद्ध होता है कि शरीर नाश्वान् है और शरीरी अविनाशी है। अगर शरीरी स्वयं अविनाशी न होता, तो कुलघात और कुल के नरक में जाने का भय नहीं होता, पितरों का पतन होने की चिंता नहीं होती। अगर तूझे कुल की और पितरों की चिंता होती है, उनका पतन होने का भय होता है, तो इससे सिद्ध होता है कि शरीर नाश्वान् है और उसमें रहने वाला शरीरी नित्य है। अत: शरीरों के नाश को लेकर तेरा शोक करना अनुचित है।
क्रगतासुनगतासुंश्चञ्ज सबके पिण्ड-प्राण का वियोग अवश्यंभावी है। उनमें से किसी पिण्ड-प्राण का वियोग हो गया है, और किसी का होने वाला है। अत: उनके लिये शोक नहीं करना चाहिए। तुमने शोक किया है, यह तुम्हारी गलती है।
जो मर गये हैं, उनके लिये शोक करना तो महान गलती है। कारण ये कि मरे हुए प्राणियों के लिये शोक करने से उन प्राणियों को दु:ख भोगना पड़ता है। जैसे मृतात्मा के लिये पिण्ड और जल दिया जाता है वह उसको परलोक में मिल जाता है, ऐसे ही मृतात्मा के लिये जो करते हैं और आँसू बहाते हैं, तो मृतात्मा को परवश होकर खाना-पीना पड़ता है। जो भी जी रहे हैं, उनके लिये भी शोक नहीं करना चाहिए, उनका तो पालन-पोषण करना चाहिए, प्रबंध करना चाहिए। उनक ी क्या दशा होगी! उनका भरण-पोषण कैसे होगा! उनकी सहायता कौन करेगा! चिंता-शोक कभी नहीं करना चाहिए। क्योंकि चिंता-शोक करने से कोई लाभ नहीं।
मेरे शरीर के अंग शिथिल हो रहे हैं, मुख सूख रहा है आदि विकारों के पैदा होने के मूल कारण हैं- शरीर के साथ एकता मानना। शरीर के साथ एकता मानने से ही शरीर का पालन-पोषण करने वालों के साथ अपनापन हो जाता है, और उस अपनेपन के कारण ही कुटुम्बियों के मरने की आशंका से अर्जुन के मन में चिंता-शोक हो रहे हैं, तथा चिंता-शोक से ही अर्जुन के शरीर में उपर्युक्त विकार प्रकट हो रहे हैंं। तो गीता में ये अर्जुन और भगवान के सवांद में रोग और शोक के होने वाले कारण को स्पष्ट किया, तभी वे महान कत्र्तव्य के लिए तैयार हुए।

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