आज हम जिस-किसी भी मनुष्य के सम्पर्क-सम्बन्ध में आते हैं, हम देखते हैं कि उसे कई प्रकार की हथकडिय़ाँ लगी हुई हैं, उसकी टाँगों में कई प्रकार की बेडिय़ाँ पड़ी हुई हैं, इससे भी वह ज्य़ादा बन्धनों में पड़ा हुआ है क्योंकि हथकडिय़ों में पड़ा हुआ व्यक्ति यदि चाहे तो स्वतन्त्र चिन्तन तो कर ही सकता है परन्तु जिसके चिंतन को ही हथकडिय़ाँ लगी हुई हों, वैचारिक स्वतन्त्रता से रहित वह व्यक्ति तो ऐसा कैदी है कि जिसकी तुलना नहीं। आज मनुष्य की ऐसी ही स्थिति है। वह कई प्रकार के लगाव और झुकाव या मन-मुटाव की जंजीरों में जकड़ा हुआ है। उसके व्यवहार और उसकी बातचीत से यह स्पष्ट झलक मिलती है कि वह किसी बन्धन में बन्ध कर बातचीत या व्यवहार कर रहा है। मालूम होता है कि उसके दिमाग पर कोई सवार है, उसे गधा, घोड़ा, खच्चर या ऊंट बना कर चला रहा है। किसी का मन किसी वस्तु रूपी खूंटे से बंधा है और बंधा होने के कारण वह वहाँ से आगे नहीं चल सकता तो अन्य किसी देहधारी में उसका मन अटका हुआ है और वह भी उस दलदल से निकल नहीं पाता। कभी-कभी उसे क्षण-भर के लिये यह महसूस भी होता है कि क्रये सभी व्यर्थ ही के लगाव-झुकाव रूपी बन्धन हैं, इन्हें तोड़ देने में ही मेरी भलाई और मुक्ति हैञ्ज परन्तु फिर भी उसके मन पर जो व्यक्ति या वस्तु हावी है, वे उसे मीठी सलोनी पुचकार देकर अपने पाशों में बाँधे रखते हैं।
मनुष्य ने ‘नष्टोमोह:’ का आदेश-उपदेश सुन तो रखा है और विचारक, प्रचारक तथा सुधारक लोग दूसरों को इसका पाठ पढ़ाने में भी लगे रहते हैं परन्तु वास्तव में मनुष्य मोह-माया को नष्ट नहीं कर रहा बल्कि मोह-ममता उसे नष्ट कर रहे हैं। किसी में किसी व्यक्ति के प्रति मोह नहीं है तो महिमा और उपाधि में मोह है। अन्य किसी का घर और घर वालों में मोह नहीं है तो अपने आश्रम और अनुचरों में मोह है। राजा जनक के दरबार में एकत्रित सन्यासियों की तरह किसी का अपनी लंगोटी, सोटी या अंग वस्त्र और अंगोछे में मोह है। इस मोह ने तो मनुष्य के विवेक को नष्ट कर दिया है। इसके परिणामस्वरुप वह एक से पक्षपात और दूसरे से अन्याय करता है और बताने तथा समझाने पर भी मोह-ममता की फाँसी या फंदे को नहीं छोड़ता है।
आज क्रलोक-सेवाञ्ज का नाम लेकर भी लोग अपने स्वार्थ सिद्ध करने में लगे रहते हैं। वे धन-दौलत इक_ा न भी करें तब भी सत्ता, स्थान और यश-कीर्ति के प्रलोभन में तो पड़े ही रहते हैं। अधिकार के अहंकार में तो उन्हें मज़ा आता है जिसके परिणामस्वरुप वे दूसरों को मज़ा चखाने में लगे रहते हैं। तन, मन, धन से सहायता देने वाले, योग से सहयोग देने वाले, कर्मठ होकर ठोस सेवा करने वाले तो और लोग होते हैं परन्तु यश की इच्छा वाले व्यक्ति क्रलोक-सेवाञ्ज का नारा लगाकर, मान-शान और साधन-सामग्री के मोह की सीढ़ी से अहंकार पर पहुंचकर अन्धकार में पड़ जाते हैं। हर वर्ग में, हर कार्य-क्षेत्र में ऐसे बहुत से लोग होते हैं जो दूसरों से काम कराके और दाम दिलाकर नाम और इनाम अपने लिये बटोरते हैं और उन्हीं द्वारा सत्ता हथिया कर उन्हीं पर हुकूमत करते हैं।
इच्छाओं के गुलाम
इसी प्रकार, व्यक्ति के मन में अनगिनत इच्छायें और तृष्णायें हैं। उनके कारण वह ख्याली पुलाव बनाता रहता है। वह यों ही उन इच्छाओं का गुलाम बनकर स्वयं को छका देता है और अपने जीवन के मूल्यवान क्षण रुपी हीरे-मोती गंवा देता है और अन्त में जब उसका शरीर चेतना-विहीन होकर लकड़ी की अर्थी (किंवा अर्थी) पर पड़ा होता है, तब लोग जो जीवन-भर अपने स्वार्थ के खेल-तमाशे करते रहते थे और उसे हैरान, परेशान, नादान और बेवफूफ बनाने में लगे रहते थे, क्रक्रराम नाम सत्य है; सत्य बोलो गति हैञ्जञ्ज कहकर दिखावे को विलाप करते हैं। इच्छाओं रुपी बे-लगाम घोड़ों पर चढऩा तो मनुष्य तब भी नहीं छोड़ता।
लफड़ों से आज़ाद
धन्य हैं वे थोड़े से व्यक्ति जिनकी बुद्धि इन बातों या लफड़ों से आज़ाद होती है। उनका ही जीवन बड़ा हल्का और सुखमय होता है। वे ही सभी प्रकार की गुलामी की जंजीरों से छूटे हुए होते हैं। वे किसी के दबाव, लगाव, झुकाव और धमकाव में न आकर अपनी वैचारिक स्वतन्त्रता के धनी होते हैं और स्वयं प्रभु द्वारा बताये मार्ग पर बे-खटके चलते हैं। उनका जीवन सच्चे अर्थ में क्रअन्त: सुखायञ्ज और क्रबहुजन हितायञ्ज होता है।
परन्तु प्रश्न उठता है कि हमारा जीवन इन सभी लफड़ों से फारिग कैसे हो? हम उधेड़बुन के धन्धे से छूटें कैसे? गुलामी, सलामी, गुमनामी, नीलामी और बदनामी के चक्कर-फेर से हम निकलें कैसे? दलदल के दाग-घावों को धोकर हम नये-नवेले बनें कैसे? खुद-मस्ती में, नारायणी नशे में, ईश्वरीय आनन्द में झूमें और झूलें कैसे? राहत के साँस और सच्चे सुख का साधन पायें कैसे?
अब घर चलना है
ज्ञान तो अथाह है परन्तु इसके चार शब्दों में इसका सार भरा हुआ है – क्रक्रअब घर चलना हैञ्जञ्ज — इनमें से क्रअबञ्ज शब्द समय का, क्रघरञ्ज शब्द क्रस्थानञ्ज अथवा ठिकाने का, क्रचलनाञ्ज शब्द पुरुषार्थ का अथवा लक्ष्य का तथा गति का और क्रहैञ्ज शब्द स्मृति, स्वीकृति, निश्चय और अस्तित्व का वाचक है। क्रघरञ्ज वह है जहाँ शिवबाबा रहते हैं और जहाँ से यह आत्मा इस परदेस में आई है। अत: इस शब्द से आत्मा, परमात्मा और परलोक की स्मृति आयेगी। शिवबाबा की याद कायम होगी, निराकारी स्थिति होगी, पाँव पृथ्वी के ऊपर उड़ जायेंगे और आत्मा फरिश्ता बन उड़ती कला में चली जायेगी तथा स्वयं को प्रकाश के लोक में लाइट अनुभव करेगी। इससे उसकी स्थिति कर्मातीत हो जायेगी। क्रअबञ्ज शब्द की स्मृति से बीती को बीता समझेंगे और क्रघरञ्ज शब्द से विकारी दुनिया को क्रन जीतीञ्ज समझेंगे। क्रअबञ्ज शब्द के प्रभाव से पिछले संस्कारों को एक ओर रख, अब हमें जो कुछ करना है, उसकी बात सोचेंगे। क्रअबञ्ज शब्द की याद आने से हम टाल-मटोल छोड़ देंगे और आज की बात कल पर नहीं छोड़ेंगे बल्कि इसी क्षण से ही आगे बढऩा शुरू कर देंगे। क्रचलना हैञ्ज शब्दों से क्रआलस्य और अलबेलापनञ्ज भाग जायेगा। हम कत्र्तव्य कर्म करने में लग जायेंगे और समय रूपी धन को व्यर्थ न गंवा कर हम ज्ञान-धन और योग-बल को अर्जित करने में लग जायेंगे। क्रहैञ्ज शब्द से हम निश्चय-बुद्धि बनेंगे और क्रक्रकरना है जो अभी कर लो यह वक्त जा रहा हैञ्जञ्ज — इस उक्ति के अनुसार वर्तमानकाल में पुरुषार्थ करने लग जायेंगे। इस प्रकार के निरन्तर पुरुषार्थ से हमारी अवस्था कर्मातीत, बिन्दु स्वरूप अथवा बीजरूप हो जायेगी और शक्तिशाली बन जायेगी।