हम आदत को चला रहे हैं या आदत हमें

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पहली बार मैंने किसी ओर के बारे में निंदा की। ये आलोचना का पहला चिन्ह था। मुझे उस व्यक्ति से परेशानी, असुविधा तो थी ही, साथ ही बहुतों को भी उससे परेशानी हो रही थी। मुझे आस-पास के लोगों ने कहा कि ये तो स्वाभाविक है, मुझे तो ये आदमी पसंद ही नहीं है, ये तो है ही ऐसा। तो हमने उस परेशानी, असुविधा को स्वाभाविक कह दिया। जैसे आपने कहा कि गाड़ी का दरवाज़ा थोड़ा-सा आवाज़ कर रहा था। अगर उसको हमने सहज स्वीकार कर लिया कि गाड़ी का इतना आवाज़ करना तो स्वाभाविक है तो हमने उसको ठीक नहीं किया, हम उसके साथ चलते रहे। लेकिन धीरे-धीरे वो जो असुविधा है वो बढ़ती जायेगी। तो शुरु हुआ होगा पहली बार गुस्सा, पहली बार चिंता, पहली बार डर, बेचैनी, हमने उसका कुछ नहीं किया। वो धीरे-धीरे बढ़ता गया। आज हमने टेन्शन(चिंता) शब्द को छोड़ दिया, हमने कहा स्टे्रस(तनाव), मैं बहुत तनाव में हूँ, तनाव के साथ भी चलते रहे, क्योंकि समाज ने कहा तनाव स्वाभाविक है। जब ये हुआ और तनाव के स्तर पर भी हमने ठीक नहीं किया तो आज हम कहते हैं, मैं आज खुद को डिप्रेशन(उदासी, अवसाद) में महसूस कर रहा हूँ। पहले था आज मैं चिंतित हूँ, फिर हुआ आज मैं तनाव में हूँ, तो असुविधा, बेचैनी धीरे-धीरे क्या होती गयी, बढ़ती गयी। आज जब हम इतने भाई-बहनों से मिलते हैं, संस्कारों को बदलने,

आदतों को बदलने की बात करते हैं तो सबकी सबसे पहली मान्यता ये होती है कि ये बहुत मुश्किल है। सब बात करने के बाद, सारी विधि बताने के बाद उनसे पूछो कि आप ये करेंगे? कहते, कोशिश करके देखते हैं। उन्हें इस बात पर विश्वास ही नहीं होता कि संस्कार भी बदल सकते हैं।
जो चीज़ हमने की नहीं कभी वो हमें लगता है कि बहुत मुश्किल है। हम मिलते हैं वैज्ञानिक से, इंजीनियर से, एडमिनिस्ट्रेटर से, डॉक्टर से, बिज़नेसमैन से, जो बड़े-बड़े काम कर रहे हैं। बड़ा-बड़ा योगदान देश को दे रहे हैं। इतनी उन्होंने सालों की पढ़ाई की है। इतने आविष्कार किये हैं, इतनी कमाल करके दिखा दी है बाहर की दुनिया में! मतलब ये वो आत्मायें हैं जो कमाल कर सकती हैं। लेकिन जब इतनी छोटी-सी बात आती है कि अपने संस्कार को बदल लें तो वो मुश्किल लगता है। क्योंकि उसपर हमने कभी वर्क किया ही नहीं। जो डॉक्टर रोज़ सर्जरी कर रहे हैं, उनके लिए सर्जरी करना बहुत आसान है। वो तो नींद से उठेंगे, पहुंचेंगे हॉस्पिटल में और कर देंगे सर्जरी। लेकिन जिसने कभी नहीं की है उसके लिए तो वो असंभव है।
कोई भी अगर पढ़ेगा, सीखेगा, करेगा तो कर लेगा। लेकिन अगर हमने सबसे पहले अपने आपको कह दिया कि ये नहीं हो सकता, तो मैंने तो करने की शुरुआत भी नहीं की। सबसे बड़ी मान्यता जो हमारे परिवर्तन में बाधक है, वो है संस्कार को बदलना मुश्किल है। क्योंकि सालों से उस आदत को यूज़ करते, करते, करते हम अनुभव करना शुरु करते हैं कि यही हमारी आदत है। हम सोचते हैं कि गुस्से की रचना हम करते हैं, उस आदत को हम यूज़ कर रहे हैं, ये हमारी पसंद है। लेकिन जिस दिन हमें महसूस होगा कि गुस्सा हम करते नहीं हैं, वो तो अपने आप आ जाता है। मेरा मन, बुद्धि, शरीर अपने आप उस चीज़ की तरफ चला जाता है, मतलब हम उस आदत को यूज़ नहीं कर रहे, वो आदत हमें चला रही है। और जब हम महसूस कर रहे हैं कि वो आदत हमें चला रही है, मतलब हम उस आदत के गुलाम हो गये। लेकिन अब हमें इस गुलामी से छूटना है। अब और गुलामी नहीं।

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