मातेश्वरी जी का तपोबल उच्च स्तरीय और अलोप था। जब कभी उनके पास जाना होता था तो ऐसा महसूस होता था कि वे योग की शक्तिशाली स्टेज में स्थित होकर पवित्रता एवं दिव्यता की किरणें प्रकीर्ण कर रही हों। उनके नयन स्थिर, चेहरे पर मुस्कुराहट और मुखमंडल दिव्य आभा को लिए हुए होता था। वे केवल ज्ञान द्वारा ही जन-जन की सेवा नहीं करती थीं बल्कि अपने तपोबल से और अपनी स्थिति से आत्माओं में बल भरती थीं और अपनी शीतलता से आत्माओं को शीतल कर देती थीं। उनके जीवन में अनेक घटनाएं ऐसी हुईं जो भयावह एवं विकराल रूप धारण किए हुए होती थीं परंतु वे इस विविधता पूर्ण विश्व नाटक में अटल निश्चय होने के कारण सदा निश्चिंत रहती थीं। अन्यश्च, यदि बाबा ने उनको कोई ऐसा कार्य सौंप दिया जिसका उन्हें अनुभव न हो या वो बहुत कठिन हो तब भी उन्होंने कभी ऐसा नहीं कहा कि मैं इसे कैसे करूंगी! मैं तो इससे अपरिचित हूँ। बल्कि उन्होंने सदा जी बाबा ऐसा कहकर इस जि़म्मेवारी को स्वीकार किया और उसे सम्पन्न करके दिखाया।
श्रीमद्भगवद् गीता में कहा गया है कि परमपिता परमात्मा ने प्रजापिता ब्रह्मा के माध्यम से यज्ञ द्वारा सृष्टि रची। अनेक प्रकार के यज्ञों का उल्लेख करते हुए ये कहा गया है कि सब प्रकार के यज्ञों में से ज्ञान यज्ञ श्रेष्ठ है। नि:संदेह श्रेष्ठ अर्थात् सतयुगी दैवी सृष्टि की रचना के लिए परमात्मा ने ज्ञान यज्ञ की ही स्थापना की होगी। इसी बात को यों भी कहा जा सकता था कि परमात्मा ने ईश्वरीय विश्व विद्यालय की स्थापना की, परंतु ज्ञान शब्द के साथ यज्ञ शब्द को इसलिए जोड़ा गया क्योंकि ईश्वरीय ज्ञान सुनने वाले लोग काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार की तथा तन-मन-धन आदि की ज्ञान यज्ञ में आहुतियां देते हैं। यदि आहुतियां न दी जाएं तो ज्ञान को यज्ञ की संज्ञा नहीं दी जा सकती। यज्ञ वो है जिसमें कुछ न कुछ दिया जाता है। इसलिए ज्ञान यज्ञ शब्द विश्व विद्यालय शब्द से अधिक महत्वपूर्ण है।
सरस्वती का जन्म कैसे हुआ?
यज्ञ के प्रसंग में ये कहा जाता है कि महाभारत में वर्णित द्रोपदी का जन्म भी यज्ञ से हुआ था इसलिए द्रोपदी को यज्ञसैनी भी कहा जाता है। इसी प्रकार विद्या की देवी सरस्वती का जन्म भी यज्ञ से हुआ माना जाता है। सोचने की बात है कि अग्निकुंड वाले यज्ञ से तो किसी मानवीय देहधारी का जन्म हो ही नहीं सकता क्योंकि अग्नि तो शरीर को जला देती है। ज्ञान रूपी अग्नि ऐसी है जो शरीर को भस्म नहीं करती। इससे शरीर का लौकिक जन्म तो नहीं होता परंतु इससे संस्कार और स्वभाव पवित्र हो जाते हैं और उनके शुद्धिकरण करने से नया मानवीय जीवन आरम्भ होता है। उसे मरजीवा जन्म कहा जाता है। इसे अलौकिक अथवा दूसरा जन्म भी कहा जाता है। ब्राह्मणों को भी द्विज इसलिए कहा जाता है(द्विज, जिसका दूसरा जन्म होता है) क्योंकि ज्ञान द्वारा दूसरा जन्म होता है। इसी तरह ही जगदम्बा सरस्वती का भी जन्म हुआ। इसका भाव ये है कि परमात्मा ने प्रजापिता ब्रह्मा द्वारा ज्ञानशाला की स्थापना की। अत: वहाँ ज्ञान से उनको नया जन्म मिला। शारीरिक रूप से तो पहले ही से वे निर्मल थीं परंतु ज्ञान द्वारा इनका मन, वचन और कर्म निर्मल अथवा कमल समान बना। इसलिए चित्रकार उन्हें कमलपुष्प पर आसीन दिखाते हैं। परंतु आज कोई भी विद्वान ये नहीं बता सकता कि ज्ञान की देवी सरस्वती का जन्म कैसे हुआ और प्रजापिता ब्रह्मा से उनका क्या सम्बन्ध है।
ज्ञान यज्ञ की रचना करने वाले ब्रह्मा ही को यज्ञ पिता कहा जाता है, जिन्होंने उस ज्ञान से नया जीवन बनाया, उन्हें ब्रह्माकुमार और ब्रह्माकुमारियां कहते हैं। इस दृष्टिकोण से सरस्वती भी ब्रह्माकुमारी ही थीं, शास्त्रों में भी इसका गायन है।
मन-बुद्धि इत्यादि की बलि देने के कारण काली
ज्ञान यज्ञ में ब्रह्माकुमारों और ब्रह्माकुमारियों ने विकारों की आहुतियां डाली थीं और यथाशक्ति अपना तन-मन-धन दिया था। उससे ही वो यज्ञ चलता रहा और उससे अन्य ब्रह्माकुमारियां और ब्रह्माकुमार प्रगट होते रहे। तब वे नए ब्रह्मा-वत्स भी अपनी आहुतियां डालते रहे। तन और धन की आहुति डालना तो फिर भी सहज होता है परंतु मन की आहुति डालना अधिक कठिन होता है क्योंकि मन चंचल है। सरस्वती जी ने अपने मन की भी पूर्ण आहुति दी। उन्होंने अपना सर्वस्व प्रभु-अर्पण किया। मन और बुद्धि पूर्णत: परमात्मा को समर्पित कर दिए। इन दोनों की बलि के कारण वे काली कहलायीं। इस पुरुषार्थ में वे ब्रह्मा वत्सों में से अद्वितीय और अग्रगण्य थीं। इससे उनके मन, बुद्धि का संबंध पूर्णत: परमपिता परमात्मा से जुट गया और उनकी बुद्धि का मिलान परमपिता से हो गया। इसके फलस्वरूप उन्होंने अपने परिपक्व अनुभवों के द्वारा सभी यज्ञ-वत्सों को मातृवत रूप से ज्ञान की पालना दी। इसलिए वे यज्ञ माता कहलाईं। सभी नर-नारियों के प्रति उनके हृदय में वात्सल्य भरा था इसलिए उन्हें जगदम्बा कहा गया, वरना स्थूल रूप में तो कोई भी सारे जगत की अम्बा नहीं होती।
ओम की ध्वनि करने वाली ओम-राधे, ज्ञान-वीणा वादन करने वाली सरस्वती और ज्ञान लोरी देने वाली माता जगदम्बा
सरस्वती नाम पडऩे से पहले उनका नाम राधा था। जब ओम मंडली नाम से ज्ञान यज्ञ का प्रारम्भ हुआ तो वहाँ वे ओम की ध्वनि किया करती थीं। देह से न्यारा होकर वे ईश्वरीय स्मृति में ऐसे मग्न हो जाती थीं, जो उनकी रूहानियत भरी वाणी सुनने वालों को भी देह से न्यारा कर ईश्वरीय प्रेम के भाव से विभोर कर देती थीं। तब उनमें से कुछेक को दिव्य दृष्टि प्राप्त होती और वे श्रीकृष्ण का साक्षात्कार भी करते थे तब लोगों ने उन्हें राधा की बजाय ओम राधे का नाम दिया। उन दिनों जब कभी ब्रह्मा बाबा दूसरे नगर में चले जाते तो वहाँ से ज्ञान के पत्र लिखकर ओम राधे के पास भेजते थे तब वे उन पत्रों को ही पढ़कर ज्ञान सुनाया करती थीं। उनकी वे विस्तृत व्याख्या करती थीं। सुनने वालों को ऐसा लगता था कि वे ज्ञान की लोरी दे रही हैं अथवा ज्ञान गीत सुना रही हैं और वे उन्हें माता शब्द से संबोधित करने लगे या मम्मा कहने लगे।
पवित्रता के कारण हंगामा, मातेश्वरी द्वारा योग तपस्या से सामना
सब श्रोता उनके द्वारा सुनाये ज्ञान से इतने प्रभावित होते थे कि उनकी मधुर वाणी सुनने वालों ने प्याज, लहसुन, मांस, मछली, अंडे, शराब, सिगरेट, बीड़ी इत्यादि सब छोड़ दिए थे। इससे तब सिन्ध में काफी हलचल हुई थी। यहाँ तक कि लोगों ने एक बार पिकेटिंग भी कर दी थी परंतु मातेश्वरी सरस्वती जी ने सभी वत्सों को ऐसा अनुशासित किया था कि पिकेटिंग करने वाले भी प्रभावित हुए और उन्होंने अपना धरना उठा लिया। कुछ विरोधी तत्वों ने न्यायालय में भी अभियोग चला दिया परंतु वहाँ भी मातेश्वरी जी ने निर्भय, निश्चिंत, नि:स्वार्थ और निर्मल स्थिति के द्वारा सबका सामना किया। उस दौर में विश्व के इतिहास में उनके जैसी आयु वाली कोई और कन्या नहीं होगी, जिसने इस प्रकार की विषम परिस्थिति का सामना किया होगा। परमपिता परमात्मा द्वारा दिए गए ज्ञान में अनेकानेक नवीनताएं होने के कारण जगह-जगह स्वार्थी तत्वों ने उनका घोर विरोध किया और हल्ला भी किया परंतु मातेश्वरी सरस्वती निश्चिंत, निर्भय और नम्रचित्त नहीं रहीं। जिस किसी विरोधी ने उन्हें देख लिया या उनसे थोड़ी बातचीत की वे उनके प्रशंसक बनकर रह गए। इस प्रकार मातेश्वरी जी की स्थिति संसार के आकर्षणों से ऊंचा उठकर शिवबाबा के आकर्षण क्षेत्र में रहती थी। इसलिए उनका व्यक्तित्व बहुत प्रभावशाली और रूहानी आकर्षण से भरा था। उनकी वाणी में मधुरता थी और उनके बोल मन को शांत करने वाले तथा मन में शक्ति संचारित करने वाले होते थे।