भगवान तो वायदा निभाता ही है… परंतु हम…

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जिसने भी बाबा को कहा, बाबा, मैं आपका साथ नहीं छोडूंगा और सचमुच उसको निभाने की कोशिश करता है तो उसको बाबा ने भी कभी नहीं छोड़ा, उसको पूरा साथ दिया और साथ देता भी है। ऐसे बहुत-से मिसाल हमने देखे हैं। जब हम बच्चे भगवान का हाथ और साथ नहीं छोड़ते तो वह सर्वशक्तिमान परमपिता अपने बच्चों का साथ और हाथ कैसे छोड़ेगा?

ब्रह्माकुमार-कुमारियों का आवाज़ है, बाबा, हम आपका साथ नहीं छोड़ेंगे। इसके उत्तर में बाबा ने क्या कहा होगा? जब आत्मा अपने पिता परमात्मा से कहती है कि बाबा हम आपका हाथ नहीं छोडूँगी, तो परमात्मा ने क्या कहा होगा? उसने भी कुछ कहा होगा ना! कुछ कारण बन जाता है तो मनुष्य हाथ और साथ दोनों छोड़ देते हैं। लेकिन बाबा, जो परमपिता परमात्मा है वो हमारी यह आवाज़ सुन रहा है। तो वो क्या कहते होंगे? उनका मुखारविंद कैसा दिखाई पड़ता होगा! वे भी कहते होंगे, हाँ बच्चे, मेरे मीठे बच्चे, मेरे सिकीलधे बच्चे, मैं भी आपका हाथ नहीं छोडूंगा। जब हम उसका साथ नहीं छोड़ेंगे तो वो कैसे हमारा साथ छोड़ सकता है? भक्तिमार्ग में हम उसको अर्जी डालते रहे, चि_ी लिखते रहे लेकिन उत्तर नहीं आता था। प्रार्थना करते रहे परन्तु कोई जवाब नहीं मिलता था। भगवान से प्रार्थना करना ही उसको अर्जी लिखना है। क्यों? क्योंकि उसका परिचय ही हमें नहीं था।
लेकिन अब संगमयुग में बाबा का तुरन्त उत्तर मिलता है। उसको सुनने की शक्ति चाहिए। आप उसकी तरफ ध्यान दो तो उसकी आवाज़ भी सुनायी पड़ती है कि मीठे बच्चे, मैं भी तुम्हारा साथ नहीं छोडूंगा। लेकिन उसकी आवाज़ सुनने की योग्यता चाहिए। बाबा तत्काल जवाब देते हैं कि बेटे, लाडले बच्चे, सिकीलधे बच्चे, मेरे विशेष बच्चे, सेवाधारी बच्चे, मैं भी आपका साथ नहीं छोडूंगा। आता है सुनने में? इसीलिए कहते हैं भीतर के पट्ट खोल। भीतर की आँख को तीसरा नेत्र कहते हैं। उस नेत्र को खोलना ही चाहिए। शिव बाबा का धाम, नाम, रूप क्या है- यह देख नहीं सकते। तीसरे नेत्र के साथ तीसरा कान भी खुलना चाहिए। लोग तीसरे नेत्र के बारे में कहते हैं लेकिन तीसरे कान के बारे में नहीं जानते। उस तीसरे कान से, भगवान क्या कह रहा है वो सुनाई पड़ता है। हमने तो रिसीवर ही बन्द करके रखा है। वह बच्चों को फोन पर कुछ बताना चाहता है, कुछ बात करना चाहता है कि मेरे बच्चे कठिनाई में हैं उनको उससे मुक्त होने की युक्ति बताऊँ। लेकिन बच्चों ने टेलिफोन के रिसीवर का स्विच ही बन्द करके रखा है। तो क्या करे? हम बच्चे कहते हैं, बाबा हमें मदद करो, हम मुश्किल में हैं। वह हमारी प्रार्थना सुन रहा है, वह जवाब देना भी चाहता है कि बच्चे क्या करें। लेकिन हमने अपने मन को व बुद्धि को उसकी तरफ नहीं रखा है। कहीं और व्यस्त हैं हम। अपने टेलिफोन को दूसरों को फोन करने में बिजी रखा है। लाइन फ्री नहीं रखी है तो जवाब कैसे मिलेगा? जब हम भी कहते हैं, बाबा, हम आपका साथ नहीं छोड़ेंगे और बाबा भी कहते हैं, बच्चे, मैं भी आपका साथ नहीं छोडूँगा तो इसका परिणाम क्या होगा? आप जानते हैं? जब भगवान किसी का साथ दे और वह भी भगवान का साथ न छोड़े तो उसका परिणाम क्या होगा? उस व्यक्ति की आश अथवा मनोकामना पूरी होगी।
साथ और हाथ न छोडऩे का और जोडऩे का अर्थ क्या है? साथ छोड़ा कैसे जाता है और जोड़ा कैसे जाता है? यह सब सूक्ष्म बातें हैं। यह स्थूल की बात नहीं। कहते हैं दो रामायण हैं। एक है रामायण और दूसरा है अध्यात्म रामायण। राम था, उसकी सीता थी, एक दिन रावण आया, सीता को उठाकर ले गया। राम-रावण की लड़ाई हुई आदि-यह है रामायण। संगमयुग में बाबा आकर बच्चों को बताता है कि राम कौन है, रावण कौन है, सीता कौन है, उनका आध्यात्मिक अर्थ क्या है- यह है अध्यात्म रामायण। इसी प्रकार, बाबा आकर हमें यह बताते हैं कि साथ छोडऩे का और साथ जोडऩे का आध्यात्मिक अर्थ क्या है। साथ चलना माना साथ-साथ चलना। एक के बगल में चलना। एक-दूसरे के पीछे भी नहीं चलना, साथ-साथ चलना। एक-दूसरे का मददगार होकर चलना। बाबा का साथ होगा तो हमारे ऊपर माया का वार नहीं होगा। अगर किसी के ऊपर वार हो भी जायेगा तो बाबा हमारे साथ है, वह बचायेगा, मदद करेगा। अगर कोई आत्मा किसी धोखे से माया के वश हो भी जाये तो बाबा का भी फजऱ् बनता है कि अपने बच्चे की रक्षा करे, मदद करे। करता है, ज़रूर करता है और की है। माया के वश हुए उस बच्चे को बाबा ने पत्र लिखा, फोन किया, किसी-न-किसी बच्चे को उसके पास भेजकर अपने पास बुलाया, दुबारा ऊपर उठने के लिए उमंग-उत्साह भरा। बाबा ने उनको छोड़ा नहीं है। जिसने भी बाबा को कहा, बाबा, मैं आपका साथ नहीं छोडूंगा और सचमुच उसको निभाने की कोशिश करता है तो उसको बाबा ने भी कभी नहीं छोड़ा, उसको पूरा साथ दिया और साथ देता भी है। ऐसे बहुत-से मिसाल हमने देखे हैं। जब हम बच्चे भगवान का हाथ और साथ नहीं छोड़ते तो वह सर्वशक्तिमान परमपिता अपने बच्चों का साथ और हाथ कैसे छोड़ेगा? यह हमारा, भगवान के साथ का एग्रीमेन्ट(समझौता) है। यह सामान्य एग्रीमेन्ट नहीं है जो पेपर पर लिखा रहता है। वह तो कभी गुम भी हो जाता है। यह तो आत्मा और सर्वशक्तिमान परमात्मा के साथ का एग्रीमेन्ट है। यह अविनाशी आत्मा का अविनाशी परमात्मा के साथ का एग्रीमेन्ट है। इसको पूरा किया जायेगा और अन्त तक रहेगा अगर आपने दिल से कहा है तो।
वह धर्मराज है, अपना वायदा पूरा करके ही रहेगा।

लेकिन आपको अपने अन्दर के पट को खोलना पड़ेगा। यह अग्रीमेन्ट बहुत कीमती है। यह अग्रीमेन्ट करते ही आपकी त$कदीर बन गयी। आपके लिए स्वर्ग का द्वार खुल गया। आप सुख-चैन से जीओ क्योंकि आपका अग्रीमेन्ट हुआ है भगवान से तो हमें संभालने की सारी जि़म्मेवारी हो गयी भगवान की।
बाबा सदा कहते हैं, बच्चे, सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। फिर भी हम बाबा के महावाक्यों का अर्थ समझ नहीं पाते हैं। बाबा कहते हैं, सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है लेकिन हम सोचते हैं कि सफलता होगी या नहीं होगी। इस संस्सार में हर बात कोई-न-कोई शर्त अथवा स्थिति पर आधारित होती है। कोई कहता है, तीन महीने में एक इमारत खड़ी कर दूँगा। फिर खड़ी क्यों नहीं की? वह कहता है कि वर्षा पड़ी, मैं क्या करूँ? मार्केट में सीमेन्ट नहीं मिला तो कैसे बनाता? मज़दूर छुट्टी करके गाँव चले गये तो कैसे बनाता? उसके कहने का मनलब था कि जब सब परिस्थितियाँ अनुकूल हों तो मैं समय पर यह कार्य बनाके दूँगा अर्थात् यदि वर्षा न पड़ी, मार्केट में सब चीज़ समय पर मिलती रहीं, मज़दूर भी समय पर जितने चाहिएँ उतने मिलते रहे तो इमारत तीन महीने में तैयार हो जाएगी । यह सारी बातें उस शर्त में समाई हुई हैं। इसी प्रकार, सफलता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार समझकर आप आराम से झूले में झूलते रहो, कोई प्रयत्न न करो, अमृतवेले न उठो, सोये रहो, योग न लगाऊँ और समझ बैठो कि सफलता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है क्योंकि भगवान ने कहा है। सारा दिन टीवी देखता रहूँ, अख़्ाबार पढ़ता रहूँ तो भी सफलता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है। ऐसा करने से सफलता मिलेगी क्या? नहीं। सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है अगर आप इन शर्तों को पूरी करेंगे तो। अमृतवेले योग करना ही पड़ेगा । संसार में क्या देखें, क्या न देखें-बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो,बुरा मत बोलो…मब सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है अगर आप इन सब शर्तों अथवा नियमों का पालन कर रहा हूँ? जो करोगे सो पाओगे। जैसी बोओगे वैसी फसल काटोगे। यह कर्म का सिद्धान्त है। ये कर्म के अटल नियम हैं। नियमों को छोड़कर इस ड्रामा में कुछ नहीं मिलने वाला है। बाबा कहते हैं, सफलता आपका जन्मसिद्ध अधिकार है। अगर जैसा मैं कहूँगा वैसे करते जायेंगे तो। जैसा मैं कहूँगा वैसा करते हो तो-यह जो शर्त है इसके अनुसार आपको सफलता मिलेगी, यह राज़ उस बात मेंं छिपा हुआ है।
बाबा का साथ निभाना माना यह कोई स्थूल में साथ रहना नहीं है। साथ का अर्थ है उसकी श्रीमत के अनुसार चलना। उसको साथ में रखकर हर कर्म करना। बाबा अमृतवेले उठे रहते हैं या नहीं? उठे रहते हैं। तो बाबा अमृतवेले उठे रहते हैं और हम बिस्तर में सोये रहते हैं। तो यह कैसे साथ हूआ? आप रात को बैठकर टीवी देख रहे हैं, टीवी में भी वो कोई सिनेमा देख रहें हैं। क्या बाबा आपके साथ बैठकर सिनेमा देख रहा है? नहीं। वह तो वहाँ रहेगा नहीं। बाबा कहेगा अगर मुझे साथ रखना है तो ये टीवी सिनेमा आदि देखना बन्द करना पड़ेगा। यह उसकी शर्त है। जहाँ रावण है वहाँ राम नहीं है, जहाँ पाप है वहाँ बाप नहीं है। ये सब बातें कुछ शर्तों के अन्तर्गत हैं। आप कहेंगे, रात को नींद नहीं आयी इसलिए अमृतवेले उठ नहीं पाया। आप कहेंगे, रात को देरी से सोया तो अमृतवेले उठा तो था लेकिन योग में झुटका आ रहा था। अगर आप योग में ण्ुटके खा रहे हैं तो बाबा कैसे आपके साथ रहेगा? योग में बाबा को अपने साथ रखने के लिए चूस्त रहना पड़ेगा। आलस्य आ रहा है तो थोड़ा घुम-फिर आओ, मुँह धोकर आओ। आपको पता है, दीदी मनमोहिनी जी रोज़ अमृतवेले योग में आने से पहले स्नान करके आती थी। योग के बाद पूरी तरह तैयार होने के लिए दुबारा स्नान करके आती थी। इस प्रकार, आपको अपनी देह को ठीक ढंग से चलाने की कला पता होनी चाहिए। क्या करने से मेरा शरीर मुझे ठीक तरह से सहयोग देगा-उस विधि को जानना चाहिए। अगर आप अमृतवेले में ही योग नहीं करेंगे तो आपको सफलता कैसे मिलेगी? कई लोग कहते हैं, हमें सफलता तो मिलती है लेकिन जितनी मिलनी चाहिए उतनी नहीं मिल रही है। इसका अर्थ हुआ कि कहीं-न-कहीं लीकेज है। कोई-न-कोई नियम का उल्लंघन आप कर रहे हैं अर्थात् कोई-न-कोई शर्त आप पूरी नहीं कर रहे हैं। इसलिए बाबा कहते हैं कि उस लीकेज को बन्द करो, शर्त को पूरी करो, नियम का पालन करो।
हम योग लगा रहे हैं लेकिन साथ में हैं आलस्य और सुस्ती। हमें भगाना हे आलस्य और सुस्ती को लेकिन आलस्य और सुस्ती से योग को भगा रहे है। उल्टी माला फेर रहे हैं। माला तो फेर रहे हैं लेकिन उल्टी। कहते हैं, कुम्भकर्ण छह महीने सोता था। किसी ने पूछा कीर्तनकार से कि महाराज, कुम्भकर्ण छह महीने क्यों सोता था ? क्या उसको इतनी नींद आती थी? उसने उत्तर दिया कि कुम्भकर्ण को किसी ने कहा, इन्द्र की उपासना करो। इन्द्र की उपासना की। वह सुस्त आदमी तो था ही। वह इन्द्र, इन्द्र, इन्द्र कहते-कहते निंद्र, निंद्र, निंद्र कहने लगा और नींद करता रहा। जहाँ भी बैठता था वहाँ सोता था। इन्द्रियजीत को इन्द्र कहते हैं। अगर उसने इन्द्र की यथार्थ रीति से उपासना की तो वह इन्द्रियजीत बन जाता। इन्द्र के बदले उसने निद्रा की उपासना की तो वह इन्द्रियों का गुलाम असुन बन गया। इसी प्रकार, हमारा योग है परमात्मा के साथ बुद्धियोग लगाना है तो हमारी बुद्धि कि तनी चूस्त रहनी चाहिए। बाबा कहते हैं कि सबसे महान् कर्म है-योग करने का। योग करना-यह बहुत महीन पुरुषार्थ है। मन-बुद्धि बहुत अलर्ट रहने चाहिए। बाबा आँखे खोलकर योग लगाने के लिए क्यों कहते हैं? क्योंकि हमें निंद्रा न आ जाये, सुस्ती न आ जाये। अगर कोई व्यक्ति निंद्रा में जाना चाहता है तो पहले वह बिस्तर बिछायेगा, लाइट बन्द करेगा, आँख बन्द करेगा, उसके बाद नींद आने लगेगी। चलो, हम आँखे बन्द करना नहीं चाहते, फिर भी नींद आ जाती है योग में। क्यों ? क्योंकि योग के लिए आते समय हम नींद को साथ लेकर आये हैं। योग में बैठते ही अन्दर में बैठी हुई निद्रादेवी अपना अस्तित्व दिखाने लगेगी। इसी लिए कैसे भी करके योग में आलस्य और सुस्ती को भगाओ। ऐसे मत सोचो, चलो योग आज नहीं लगा तो कल लगेगा। ऐसे करके एक-एक दिन के हिसाब से अभी कितने दिन चले गये! इसलिए कल के बजाय आज ही अपने को चैक करो और चेंज करो। क्योंकि बाबा ने कहा है अन्तिम समय ऐसा होगा उस समय आप योग लगाने जाओगे तो योग लगेगा ही नहीं। चारों तर$फ हाहाकार की घटनायें और हाहाकार की बातें ही होंगी। इसलिए आप अभी ही योगबल का स्टॉक(संग्रह) करके रखो तो अन्तिम समय काम आयेगा। योग लगाने में, योग से बल प्राप्त करने में अलबेले मत बनो। कैसे भी करके अमृतवेले बुद्धियोग लगाना हमारे लिए अनिवार्य कर्म है। इसीलिए कैसे भी करो, यह अमृतवेले का योग ठीक करो, सफल करो क्योंकि यही हमारी फाउण्डेशन (नीव) है। इसके ऊपर ही हमारे पूरे दिन के कार्य-कलाप चलते हैं। कुछ भी हो, कैसे भी हो इस कार्य में अलबेले मत बनो।
मुझे इस प्रसंग में एक याद आती है। जब मधुबन में सम्मेलन होते थे तब जस्टिस कृष्ण अय्यर मधुबन आते थे। वे इन्द्रप्रस्थ में ठहरा करते थे। मैं भी उनके बगल वाले कमरे में रहता था। वे रोज़ सुबह 2 , 2:30 बजे उठ जाते थे। उठकर वे लिखा करते थे। उन्होंने कई पुस्तकें लिखी हैं। जब सांस्कृतिक कार्यक्रम होते थे तो कई लोग उन्हें कहते थे कि चलिए कार्यक्रम देखने। वो कहते थे, कृपया मुझे छोड़ दीजिये, मैं नहीं आ सक ता, कुझे मा$फ कीजिये। कोई ऐसे व्यक्ति भी होते थे जो कहते थे कि दादी जी ने कहा है, आपको आना ही है। जब दादी जी का नाम सुनते थे तो वे मज़बुरी से जाते थे। जाकर पाँच-छह मिनट बैठकर उठकर अपने कमरे में आ जाते थे। मैं भी दो बजे उठता था और देखता था कि उनके कमरे में लाइट जल रही है और वे लिखने का अपना काम कर रहे हैं। उनको पता हैं कि मुझे रोज़ 2 बजे उठकर अपना लिखने का काम करना है, मन को, बुद्धि को अलर्ट रखना है तो क्या-क्या करना है- वह सोच कर रखा है, टाइम-टेबल बनाकर रखा है। उसके अनुसार ही वे चलते हैं। उसी प्रकार, हमें भी अपना टाइम-टेबल सैट करके रखना चाहिए। बाबा ने कहा है कि किसी भी हालत में रात 10 बजे तक सो जाओ। कितने भी कार्य हो उनको उस समय के अन्दर ही पूरा करने की कोशिश करो। जल्दी सोओ और जल्दी उठ जाओ। सोने के समय सोओ, पढऩे के समय पढ़ो, सेवा करने के समय सेवा करो। यही जीवन में सुख से जीने का तरीका है। जिनको समय का महत्व नहीं है वो सफलता कैसे प्राप्त करेंगे? यह समय का प्रबन्धन है। इसलिए अमृतवेले योग में सफल की विधि को हमें कैसे भी करके अपनाना चाहिए। यह तो ठीक है, अमृतवेले जो बिस्तर पर सोये रहते हैं उनसे हम अच्छे हैं। नियम का पालन तो किया है। ठीक है, लेकिन अमृतवेला है अमृत प्राप्त करने का समय। उस अमृत से ही हम अमर बनेंगे, अमरपुरी का वर्सा पायेंगे। इसलिए योगी के लिए अमृतवेला सफल करना बहुत जरूरी है। जब हम अमृतवेले योग में प्राप्ति स्वरूप होंगे अर्थात् बाबा को हमारे साथ रखेंगे तो सफलता हमारा जन्मसिद्ध अधिकार है।
इसी प्रकार, बुरा मत सुनो, बुरा मत देखो, बुरा मत सोचो, बुरा मत बोलो, बुरा मत करो-इस नियम का भी हमें अनुसरण करना पड़ेगा तब ही हमें सफलता मिलेगी। सारे दिन में हमारे पास कई लोग आते हैं। आकर तरह-तरह की व्यर्थ बातें करेंगे, व्यर्थ बातें हमारे से सुनना चाहेंगे। लेकिन बाबा कहते हैं, सब व्यर्थ को छोड़ो। व्यर्थ को छोड़ेंगे तो समर्थ बनेंगे। व्यर्थ माना ही बुरा। जिस प्रकार व्यर्थ सुनना और सुनाना बुरा है वैसे व्यर्थ देखना और करना भी बुरा है। जैसे टीवी देखना है। कई लोग कहते हैं कि टाइम पास करने के लिए हम टीवी देखते हैं। हम तो रिटायर्ड (सेवा-निवृत्त) हुए हैं, घर में खाली बैठे रहते हैं इसलिए टीवी देखना, रेडिओ सुनना आदि करते हैं, हमें कोई आसक्ति नहीं है, टाईम पास करने के लिए ऐसे करते हैं। संगमयुग की एक-एक घड़ी अत्यन्त अमूल्य है। दुनिया में बहुत सारी क्रियेटिव चीज़े हैं। यह आप पर निर्भर करता है कि समय कैसे सफल करें। आप हमारे से पूछिये, हम बतायेंगे आप कैसे समय सफल कर सकते हैं। टीवी खोलकर बैठें और सब कुछ देखते रहें-यह ठीक नहीं है। टीवी देखना एक अडिक्शन (लत,व्यसन) है। जैसे शराब पीने की आदत पड़ जाती है और उसे छोडऩा मुश्किल हो जाता है। टीवी देखने से क्या बुरा हो रहा है वो अमेरिकन माँ-बाप से पूछकर देखिये। अमेरिका में बच्चे पढ़ते ही नहीं हैं। उनके माँ-बाप कहते हैं, वे सदा टीवी के सामने बैठे रहते हैं। यहाँ तक कि उन्हें एक अप्लिकेशन (अर्जी-पत्र) लिखना भी नहीं आता। टीवी के सामने ही बैठकर चाकलेट खाते हैं, वो ख़्ात्म हुआ तो चाय पीते है, और चाय पूरी हुई तो काफी पीजे हैं, काफी पूरी हुई तो कोको-कोला पीते हैं। इस प्रकार, सबकुछ टीवी के सामने ही होता रहता है। सारा दिन बैठे रहते हैं, खुब खाते-पीते रहते हैं, इससे आँखें खराब हो रही हैं और शरीर मोटे होते जा रहे हैं। मोटापा वहाँ की बहुत बड़ी कीमारी हो गयी है। आप टीवी में देेखेंगे क्या? एक कार का दूसरी कार पीछा करती रहती है, पीछे वाला भी उतनी ही तेजी से उसका पीछा करती रहती है। पीछे वाली कार में कुछ गुण्डे हैं। आगे वाला बहुत तेजी से भगा रहा है, पीछे वाला भी उतनी ही तेजी से उसका पीछा कर रहो है। उस समय आप अपनी दिल की धड़कन को चैक कीजिये। उसको देखते-देखते आपके मन में क्या होता रहता है? दिल की धड़कन नार्मल (सामान्य) नहीं रहती। जब हार्ट बीटिंग नार्मल नहीं है तो उसका असर शरीर पर नहीं होगा?
टीवी अथवा सिनेमा देखने का प्रभाव बच्चों पर कितनी हद तक होता है उसका एक उदाहरण आपको यहाँ हम सुना देते हैं। अमेरिका के एक होस्टेल में रह रहे विद्यार्थी ने अपने कमरे के बगल के कमरे का बोल्ट खोलकर वहाँ सो रही एक लड़की पर अत्याचार किया। जब मेजिस्ट्रेट ने उनसे पूछा तो उन्होंने कहा कि हम अच्छे खानदान के बच्चे हैं। हमारे माँ-बाप समाज में अच्छे स्थान-मान वाले हैं, चाहें तो आप इसका पता कर सकते हैं। हम भी अच्छें लडके ही हैं, हम भी स्कूल में होशियार बच्चे हैं। लेकिन हमने एक दिन एक सिनेमा देखा, उसमें यह दिखाया गया था कि कैसे दरवाज़े का बोल्ट खोला जाता है और एक लड़की को रेप किया जाता है। उसको देखकर हमने भी ऐसे ही कॉपी करके यह अपराध किया। हम तो अपराधी हैं, सजा के लिए ह$कदार हैं लेकिन हमें सिखाया किसने? हमने वह सिनेमा देखकर किया, उस सिनेमा निर्माता को आप सजा क्यों नहीं देते? इस प्रकार, बच्चे हो या बुढ़े, खराब चीजें कहाँ से सीखने हैं? टीवी से, सिनेमा से। कई लोग कहते हैं क्रक्रअजी, सिनेमा-टीवी देखने से हमें कोई असर नहीं होता।ञ्जञ्ज मैं कहता हूँ, यह बिल्कुल $गलत है। हमने देखा है, आज उसका असर नहीं होता है लेकिन धीरे-धीरे एक महीने के बाद, दो महीने के बाद उसका असर क र्म के रूप में ज़रूर व्यक्त होगा। आप देखते समय अथवा देखने के बाद कुछ-न-कुछ सोचते हैं। सोचने के बाद वो विचार अन्दर तो रहा । वह अन्दर रह गया माना कुछ-न-कुछ काम करेगा। एक कार का एक्सीडेंट हुआ। सामें जो व्यक्ति था उसके अन्दर शीशे के कई टुकड़े चले गये। डॉक्टर ने सर्जरी करके उनको निकाला। एक मामूली सा शीशे का कण सिर में रह गया। डॉक्टर ने समझा कि हमने सब टुकड़े निकाल दिये, उस व्यक्ति को हमने ठीक कर दिया। कुछ दिनों के बाद वो व्यक्ति बार-बार कहने लगा कि मेरे सिर में दर्द हो रहा है। वह बहुत परेशान होने लगा। हर प्रकार के डॉक्टर को उसने दिखाया। हरेक ने तरह-तरह की दवाइयाँ दी। फिर भी उसका दर्द न जायें। लेकिन वास्तविकता यह थी कि कार के शीशे का जो एक टुकड़ा था उसका एक छोटा-सा कण उसके सिर की नस में जाकर बैठ गया था तो उसक ो सिर में दर्द होता था। उसको इरिटेशन (उत्तेजना) होती थी। इससे उसका नर्वस सिस्टम ठीक नहीं रहा था। वो तो शीशे का एक स्थूल कण था उसको सर्जिकल साधनों द्वारा भी निकाल सकते हैं। लेकिन यह जो विचार अथवा संकल्प है यह तो बहुत सूक्ष्म-चीज़ है । कोई डॉक्टर से कहो, डॉक्टर साहब मेरे अन्दर में यह विचार हैं इसको ऑपरेशन करके निकाल दो। ऐसा कोई इनस्ट्रूमेन्ट तो नहीं निकाला है कि विचार को काटकर फेंक दो। विचार को विचार से निकाल सकते हैं।
एक बार किसी ने एक से पूछा, प्याज़, लहसुन खाते हो? उसने कहा अरे-अरे। अरे-अरे माना दो अर्थ निकलते हैं– एक तो अरे, दसरा हरे। जैसे विष्णु और शंकर को हरी-हर कहते हैं। एक होता है अरे-अरे यह क्या पूछ रहे हो? मैं कैसे खा सकता हूँ! दूसरा यह भी होता है कि हम हरे-हरे खाते हैं। सूखाकर नहीं, हरे-हरे खाते हैं। कहते हैं ना कि किसी युगल ने ज्योतिषी के पास जाकर पूछा, महाराज जी, हमें बच्ची होगी या बच्चा। ज्योतिषी ने कहा, पुत्री न पुत्र:। उन माता-पिता को पुत्र चाहिए था, उन्होंने सोचा पुत्र होगा। ज्योतिषी की बात सुनकर वे खुश हुए और उसको खूब दक्षिणा देकर चले गये। उनको हुई पुत्री । तब वे आकर ज्योतिषी से कहने लगे, आपने कहा था पुत्र होगा लेकिन उन्हें हुई पुत्री। तब ज्योतिष ने कहा, मैंने कहा था – पुत्री, न पुत्र:। आपको पुत्री होगी, न कि पुत्र।अगर माता-पिता को पुत्री चाहिए होती और उनका पुत्र हुआ होता तो वो कह लेता कि मैंने कहा था, पुत्री न, पुत्र:। उसी प्रकार, उसने भी बोला अरे-अरे। किसी ने एक व्यक्ति से पूछा, अरे भाई शराब पीते हो? उसने कहा राम-राम! उसने कहा था रम ही रम पीता हूँ। वैसे ही कुछ लोग कहते हैं अजी, हम सिनेमा नहीं देखते। तो क्या देखते हो? टीवी देखते हैं। फिर यह टीवी में जो सीरियल आता है वो क्या है? सिनेमा तो है! अगर आप समाचार देखते हैं, संस्था के कार्यक्र म की वीडियो देखते हैं उसके लिए छूट है लेकिन आप टीवी खोलकर उसमें जो भी आता है उसको सारा दिन देखते रहते हैं तो इसके लिए बाबा की छुट्टी नहंीं है। टीवी देखकर आप अपना मानसिक प्रदुषण बढ़ा रहे हो। बाबा कहते हैं, वायुमंडल के प्रदूषण का कारण मानसिक प्रदूषण भी है, उसक ो रोको। लेकिन टीवी देख-देख कर आप ही मानसिक प्रदूषण कैसे फैला रहे हो! अपने आपको देखिये-हमारी दृष्टि,वृत्ति, व्यवहार कैसे होने चाहिएँ! ब्राह्मणों के लक्षण हैं? इसका परिणम क्या होगा? बाबा ने कहा है, यह जो टीवी है, टीबी है, एक खतरनाक बीमारी है। आजकल वो टीबी तो ठीक इलाज़ करने से और ठीक ढंग से दवाई करने से दूर हो जाती है परन्तु यह टीवी की टीबी जल्दी खत्म नहीं होती। हम मन को बहलाने के लिए अथवा समय को पास करने के बदलें नापास होंगे। हम टाइम पास ता करेंगे लेकिन खुद हम कल्प-कल्पान्तर की बाज़ी में नापास हो जायेंगे। ऐसी-ऐसी छोटी-छोटी बातों के बारे में सोचना चाहिए और ईश्वरीय नियमों का पालन करना चाहिए। देखने में, कहने में ये छोटी-छोटी बातें होने पर भी ज़हर के समान हैं। ज़हर की मात्रा छोटी हो या बड़ी लेकिन वह ज़हर ही है। जीवन समाप्त करने के लिए वह बहुत है। टीवी देखना यह मीठा ज़हर है, बहुत मीठा लगता है लेकिन प्राण के लिए खतरा है। हमें बाबा के वारिस बच्चे बनना है। वारिस बनना है तो बाबा ने करके दिखाया वैसे करना हैं। क्या बाबा ने ऐसा किया जैसा हम आज़ कर रहे हैं?
हमने देखा है, एक बार बाबा को सुगर की मात्रा बहुत बढ़ गयी थी और ब्लड प्रैशर भी था। डॉक्टर ने कहा कि बाबा बहुत जल्दी उठते हैं, दिन में रेस्ट (विश्राम) भी करते नहीं, आप इनको रेस्ट दिया करो, इनको रेस्ट लेने के लिए कहो। मुझे याद है उस समय मैं मधुबन में ही था। दीदी मनमोहिनी जी और दो-चार भाई-बहनों ने मिलकर बाबा से कहा कि क्रक्रबाबा आप अमृतवेले योग में नहीं आइये। आप तो रात को देरी से सोते हैं और विश्वसेवा के बारे में सोचते रहते हैं। जब भी हम आपके कमरे में आते हैं आप जागते रहते हैं। आप सारा दिन-रात योग तो लगाते ही हैं। इसलिए थोड़े दिनों के लिए कृपया अमृतवेले योग में मत आइये।ञ्जञ्ज बाबा ने कहा, क्रक्रबच्ची, तुम क्या कहती हो? अमृतवेले न उठँू? यह कैसे हो सकता हैं? उस आलमाइटी बाबा ने हमारे लिये समय दे रखा है, उसको कैसे छोडूँ? उन्होंने बाबा से फिर बहुत विनती की कि बाबा डॉक्टर कहते हैं, आपको विश्राम लेना बहुत ज़रूरी है। बाबा ने कहा, क्रक्रबच्ची, मैं किस डॉक्टर की बात सुनूँ? यह डॉक्टर कहता है, अमृतवेले रेस्ट करो, वो सुप्रीम डॉक्टर कहता है, अमृतवेले उठ कर मुझे याद करो। मैं किसकी बात मानूँ? मुझे सुप्रीम डॉक्टर की बात ही माननी पड़ेगी ना? इसलिए मैॅ अमृतवेले रेस्ट नहीं कर सकताञ्जञ्ज, ऐसे कह कर बाबा ने उनकी बात को इनकार कर दिया। दीदी जी ने नहीं माना । उन्होंने कहा कि बाबा डॉक्टर ने बहुत कहा है इसलिए आप कम-से-कम दो-तीन दिन मत आओ। हमारी यह बात आपको माननी ही पड़ेगी । बहुत जिद्द करने के बाद बाबा ने कहा, क्रक्रअच्छा बच्ची, सोचूँगा।ञ्जञ्ज जब रोज़ के मुआफिक हम अमृतवेले जाकर योग में बैठे तो बाबा भी चुपके से आकर योग में बैठ गयेें। देखिये बाबा ने अपनी जि़न्दगी में एक दिन भी अमृतवेले का योग मिस नहीं किया। कैसी भी बीमारी हो, कितनी भी उम्र हो उन्होंने ईश्वरीय नियमों का उल्लघन नहीं किया।
जो नियमों का रेग्युलर पालन करता है उसे फल प्राप्त होना ही चाहिए। नहीं प्राप्त होता हो- यह असंभव है। आप में कोई टीचिंग लाइन (शिक्षा विभाग)
के होंगे। जो टीचर होता है उसक ी जि़म्मेवारियाँ क्या होती हैं वे जानते हैं। कोई विद्यार्थी कितना भी डल बुद्धि वाला हो, क्लास में रोज़ आता है, रेग्युलर है, पंक्चुअल है तो उसको पास होना ही है। पास नहीं हुआ माना इसमें टीचर की कोई गलती है। यह देखा गया है कि विद्यार्थी कितना ही मन्दबुद्धि वाला हो अगर पढ़ाई में रेग्युलर है तो उसको पास होना ही है। अगर रोज़ अमृतवेले ठीक योग में बैठते हैं और हम पास विद् ऑनर नहीं होंगे — क्या यह सवाल पैदा हो सकता है? नहीं। पास विद् ऑनर हो ही जायेंगे। धर्मराज बाप कहता है, तुम रोज़ अमृतवेले योग करो, तुम्हारे सारे पाप दग्ध होंगे, तुम सजा़ओं से दुर रहोगे। हम उसके ये नियम रोज़ अनुसरण करते रहें, फिर भी हम धर्मराज की सज़ा खायें-यह हो नहीं सकता। अगर ऐसे हुआ तो इसके लिए धर्मराज ही जिंम्मेवार है। आप धर्मराज़ से पूछ सकते हो कि हमारे टीचर ने कहा, रोज़ नियमित रूप से पढ़ाई करो, अमृतवेले ठीक तरह से योग करो तो तुम्हें मैं पास कर दुँगा अर्थात् पापों से मुक्त कर दूँगा। मैंने तो अपने टीचर की आज्ञा अनुसार पढ़ाई ठीक ढंग से की है, तो मुझे क्यों सज़ा? मेरे टीचर से पूछो। लेकिन यहाँ तो टीचर के कहने के अनुसार रोज़ अमृतवेले उठते तो हैं, योग में बैठते भी हैं लेकिन ठीक रीति से योग करते नहीं। उस सर्वशक्तिवान से बुद्धियोग जोड़ते नहीं हैं। तो पाप कैसे दग्ध होंगे?
बाबा ने कहा हुआ है कि यह राजयोग है। राजयोग के कई अर्थ बाबा ने हमें बताये हैं। यह राजयोग मन का योग है। मन इन्द्रियों का राजा है। इस योग से मन इन्द्रियों का कन्ट्रोल करने लगता है। इसेलिए यह योग समस्त योगों से श्रेष्ठ है। जो राजयोग सीखता है उसमें रूलिंग और कन्ट्रोलिंग पॉवर आ जाती हैं। राजा को अंग्रेजी में रूलर कहते हैं, अरबी में हुकमाराम कहते हैं, हिन्दी में प्रशासक कहते हैं। राजयोगी बनकर यदि हम इन्द्रियों पर राज्य नहीं करते, मन की प्रवृत्तियों को कन्ट्रोल नहीं करते, तो हम क्या राजयोग करते हैं? राजयोग मुख्यत: क्या करता है? इन्द्रियों को अपने वश करता है, उन पर शासन चलाता है। मनुष्य को यही इन्द्रियाँ भटकाती है। आज मनुष्य कोई-न-कोई इन्द्रिय का गुलाम हुआ पड़ा है। इन इन्द्रियों की $गुलामी से आज़ाद होने की युक्ति बाबा इस राजयोग द्वारा सिखाता है। इसको हमें अभी ही करना चाहिए, अभी नहीं तो कभी नहीं। हम बाबा के पास पुस्तक लिखकर ले जाते थे पास कराने के लिए। उसको देखने के बाद बाबा हमेशा यही कहते थे कि लास्ट में यह लिखो-क्रक्रअभी नहीं तो कभी नहीं। क्रक्रअंत: राजयोग से ही हम स्वराज्य अधिकारी बन सकते हैं, वारिस बन सकते हैं और विश्व को पवित्रता, सुख, शान्ति, समृद्धि से सम्पन्न स्वर्ग बना सकते हैं।
मैंने अपने जीवनभर यह स्लोगन – क्रअभी नहीं तो कभी नहींञ्ज – याद रखा और उसके अनुसार चलने की पूरी कोशिश की। मुझे अपने अलौकिक जीवन की शुरूआत में कई कठिनाइयाँ आयीं। क्वालिफाइड होने के बाद मेरी ट्रान्सफर हो गयी सोनीपत में, जो दिल्ली से 25 मील दूर है। वहाँ पर मेरी जि़म्मेवारीयाँ बहुत थीं। वहाँ पर मैं हॉस्टेल का अधीक्षक भी था और टीचर्स ट्रेनिंग कॉलेज का प्रिन्सीपल भी। इनके अलावा कुछ और भी जि़म्मेवारीयाँ थीं। मुझे वह जगह छोडकर रोज़ कहीं जाने की अनुमति नहीं थी। लेकिन रोज़ बाबा की क्लास मे मुझे जाना ही था। इस के लिए मुझे बहुत कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। बहनों को चि_ी लिखता था कि मैं कल नहीं आऊँगा, फलाने दिन नहीं आऊँगा, क्योंकि आज मेरे पास शिक्षा मंत्री आने वाले हैं,आज मेरे पास शिक्षा निर्देशक आने वाले हैं। मैंने एक एज्युकेशन म्युजियम बताया था। उस समय वह भारत में उस तरह का प्रथम म्युजियम था। इसलिए कई प्रान्तों से उसको देखने कई एज्युकेशन मिनिस्टर्स, एज्युकेशन डायरेक्टर्स आते थे। उनको देखना, खिलाना, पिलाना, घुमाना यह सब मुझे ही करना पड़ता था। ऐसे समय पर मैं मुख्यालय में नहीं होता तो अच्छा भी नहीं, सभ्यता भी नहीं। मैं बहनों को पत्र तो लिखता था लेकिन एक बात तो मुझे ज़रूर याद आती थी कि क्रक्रबाबा परमधाम से आये होंगे, मुरली चलायी होगी और वो मुरली मैं मिस कर रहा हूँ। यह मैं कल्प-कल्प मिस करुँगा।ञ्जञ्ज जब ऐसे मैं सोचता था तो मुझे बहुत फिल होता था, क्या मुझे हर कल्प उस मुरली को मिस करना हैं? बाबा की जीवन-कहानी सुनी थी, उसमें आता है कि जब बाबा का पूजा का समय होता था और उस समय कोई भी , कितना भी बड़ा मेहमान आने वाला होता था, चाहे नेपाल का महाराजा भी हो फिर भी स्टेशन पर स्वागत करने के लिए बाबा और किसी को भेजते थे। कहते थे कि पहले मैं अपनी पूजा आदि करूँगा बाद में उनसे मिलूगाँ क्योंकि मेरा यह समय परमात्मा के लिए रखा हुआ है। राजा हो या अधिकारी, वह तो मुझे नोट देता है, भगवान मुझे सब कुछ देता है। इस प्रकार, बाबा अपने धार्मिक कार्यक्रम को पहला महत्व देते थे।
ट्रेन से ही मैं सोनीपत से दिल्ली जाता था। स्टेशन के सामने ही हमारा आफिस था। जब गाड़ी आती थी तो उसकी आवाज़ से मुझे पता पड़ता था कि गाड़ी आ गयी क्योंकि उस समय कोयले से गाड़ीयाँ चलती थीं। ऐसे ही एक बार मेरी गाड़ी मिस हो गयी। उस दिन मैं इतना व्यस्त था कि गाड़ी कब आयी मुझे पता ही नहीं पड़ा। जब चलते की शीटी बजी तो मुझे पता पड़ा कि गाड़ी जा रही है। जल्दी-जल्दी आफिस बन्द करके मैं स्टेशन पर पहुँचा लेकिन गाड़ी काफि दूर निकल गयी थी। गाड़ी स्पीड में थी, मैं उसको पकड़ नहीं पाया। उस समय मेरे ऊपर क्या गुजरी होगी! मेरे मन में वही चलने लगा कि शिव बाबा परमधाम से आये होंगे, मुरली चला रहे होंगे, उसको आज मिस किया माना कल्प-कल्प मुझे मिस करना होगा। मैं तो सिर्फ 25 मील दूर रहता हूँ, बाबा परमधाम से आते हैं! परमधाम कितना दूर हैं! बाबा इतनी दूर से मेरे लिए, मुझे पढ़ाने के लिए, मेरे ही कल्याण के लिए आते हैं। इतनी बड़ी अथॉरिटी मुझे शिक्षा देने के लिए इतनी दूर से आते हैं! वो करूणा के सागर, दया के सागर, कृपा के सागर अभी वहाँ आये होंगे। वह इतने बड़े शिक्षक और सद्गुरु मेरे लिए आये हुए हैं। उनके सामने मैं कुछ भी नहीं, फिर भी मैं नहीं जा पा रहा हूँ! वो आये होंगे मुरली सुना रहे होंगे! अरे, मैं इतना दुर्र्भाग्यशाली हूँ कि मैं मुरली सुनने जा नहीं सकता!
वहाँ एक मालगाड़ी खड़ी थी, वो जाने की तैयारी में थी। वहाँ स्टेशन मास्टर खड़ा था। मैंने उससे कहा, मुझे दिल्ली जाना है, बस का समय भी खत्म हो गया, मुझे इस मालगाड़ी में भेज दो। वो स्टेशन मास्टर मुझे पहचानता था। उस समय सोनीपत उतना बड़ा शहर नहीं था। प्रिन्सीपाल का पद तो बड़ा होता है। वहाँ सब आफीसर्स कोई-न-कोई कार्यक्रम में, मीटिंग में एक-दूसरे से मिलते रहते थे। वह मुझ से मजाक करने लगा कि आप कोई माल थोड़े ही हो मालगाड़ी में भेजने के लिए? आप तो इन्सान हो। मैंने कहा, आप मज़ाक छोड़ दो, मुझे अर्जेन्ट दिल्ली जाना है। वहाँ सब मुझे कहते थे-यह क्रमिस्टर अर्जेटञ्ज है, क्रमिस्टर इम्पोर्टेन्टञ्ज है। उस समय भी मैं यही कहा करता था कि यह बहुत अर्जेन्ट काम है। इसीलिए उसने समझा यह हरेक काम बहुत ही अर्जेन्ट ही बताता है, इसकी नेचर है। मैंने फिर कहा, हाँ, मैं सच बोल रहा हूँ, मुझे अर्जेन्ट जाना है, मुझे इम्पोर्टेन्ट काम है, कैसे भी मुझे इस मालगाड़ी में भेज दो। वह कहता है, क्रक्रअजी, आपको मेरी यह वर्दी उतारनी हो, मुझे नौकरी से निकालना हो तो आप इसमें चले जाओ। आप तो मेरे दोस्त हो, मैं तो भेज भी दूँगा, लेकिन मेरी नौकरी $खत्म।ञ्जञ्ज मैंने कहा, क्रक्रऐसी बात नहीं है। ऐसा कोई $कानून भी होगा कि किसी एमर्जेंसी में प्रेसिडेन्ट आदि किसी बड़े को अर्जेन्ट जाना होता है तो। क्योंकि हर बात में एक एक्सेप्शन (अपवाद) होता है। ऐसा कोई नियम है तो देख लो।ञ्जञ्ज वह मेरे से पूछने लगा, कौनसा प्रेसिडेन्ट बीमार पड़ा है? कौन-सी लड़ाई चल रही है जिसमेंं आपक ो जाना है? कौन-सा आपतकाल आ पड़ा है जो आपको वहाँ जाना है? वह मज़ाक करता रहा। फिर मैंने गंभीर होकर कहा कि यह मज़ाक छोड़ो, यह गाड़ी भी निकल जायेंगी, आप मेरी टिकट बनवा लो। फिर वह भी परिस्थिति को समझा और टिकट वाले को कहा कि इसकी एक एमर्जेन्सी टिकट बना लो, मेरे से हस्ताक्षर करा लो। टिकट बन रही थी, उतने में मालगाड़ी चल पड़ी। मैं गाड़ी के पीछे भागा। सबसे पीछे गार्ड का डि़ब्बा होता है। मैं उसमें चढ़ गया। गार्ड़ मुझे कहता है, क्रक्रभाई साहब, यह क्या कर रहे हो? गाड़ी क्यो चढ़े? यह पैसेन्जर गाड़ी है क्या? यह गार्ड का डिब्बा है, उतरिये।ञ्जञ्ज मैं भी गाड़ी की जिम्मेवारी को समझता था। वहाँ पैसेन्जर को प्रवेश की अनुमति नहीं होती। मैं उसकी बात सुनकर उतर गया। फिर मैंने कहा, भई, मैं तो टिकट वना रहा था, आप उतने में चल पड़े। आप दो मिनट रुको, मैं टिकट बना के ले आता हूँ। उसने पूछा, टिकट कौन बना रहा था? मैंने कहा, स्टेशन मास्टर। गार्ड कहता है, पागल है। वो $खुद डिसमिस होगा और मुझे भी डिसमिस करायेगा। आप टिकट की बात छोडिय़े। ऐसा नहीं होता, आप इस गाड़ी में आने की आशा छोड़ दीजिये। वह नहीं माना ता फिर मैं उतर गया। उतने में फिर मन में आया – शिव बाबा परमधाम से आया होगा…मुरली चला रहा होगा… हर कल्प मुझे इस मुरली को मिस करना पड़ेगा…। फिर मैं भाग कर गार्ड़ के डि़ब्बे में चढ़ पड़ा। वह कहने लगा, अरे भाई,तुमको क्या हुआ है, मेरी बात मानता क्यों नहीं है? गाड़ी तेज होती जा रही है, जब मैंने तुमको समझाया था तब उतर गया था, फिर क्या हो गया, गाड़ी में फिर से चढ़ा? उतर जाओ भाई, मैं तुमको लेकर नहीं जा सकता।ञ्जञ्ज मैंने कहा, क्रक्रभाई बहुत जरुरी काम है।ञ्जञ्ज उसने कहा क्रक्रमैं समझता हूँ तुम्हारा बहुत ज़रूरी काम है, उतरा।ञ्जञ्ज वह इतना कह रहा था तो मैं उतर गया। फिर मुझे वही ख्याल आया – शिव बाबा आया होगा…। मैंने बाबा से कहा, बाबा, मुझे क्लास में आना है, यह गाड़ी चढऩे नहीं दे रहा है, आप मुझे मदद करो। फिर मैं गाड़ी

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