तपस्या का अर्थ ही है मन की एकाग्रता। शरीर की भी एकाग्रता और मन की भी एकाग्रता। कुछ भी हो मेरा मन नीचे न आये। हम सबको अभी कर्मक्षेत्र पर रहते कर्मातीत स्थिति का अनुभव बढ़ाना है। कर्मातीत का अर्थ यह नहीं कि कर्म से अतीत व न्यारे हो जायेंगे, इन्द्रियां हैं तो कर्म तो करना ही है। बैठना भी कर्म है, आँख खोलना, याद करना… यह सब कर्म ही तो है। यह कर्म तो करना ही पड़ेगा, हम कर्म से अतीत नहीं हो सकते लेकिन कर्म हमको अपनी तरफ खींचे नहीं। जैसे पेन कीलर का इंजेक्शन लगाने से पेन खत्म हो जाता है। दर्द अपनी तरफ खींचता नहीं है। ऐसे ही कर्मातीत स्थिति अर्थात् कोई भी कर्म के फल स्वरूप जो संस्कार हमारे बने हैं। वो संस्कार और यह संसार अथवा कोई भी कर्म का बन्धन अपनी तरफ खींचे नहीं – इसको कहते हैं कर्मातीत स्थिति। तो हम सबका लक्ष्य तो यही है। पाण्डवों में नम्बरवन अर्जुन को दिखाते हैं, उसने विजय प्राप्त की। चाहे मेहनत बहुत ली लेकिन आखिर तो विजयी नम्बरवन बना। तो यह जो संगठन है, निमित्त हैं, तो निमित्त बनने वालों को सदा हर संस्कार पर विजय ज़रूर प्राप्त करनी है तभी वन नम्बर अर्जुन बन सकते हैं। संस्कार तो हर एक में अपने-अपने हैं। किसके पास दो मुख्य संस्कार होंगे, बाकी बाल-बच्चे होंगे। किसके पास ज्य़ादा होंगे, किसके पास कम हो सकते हैं। लेकिन हर प्रकार के कमज़ोर संस्कार को विन करना यही वन नम्बर अर्जुन बनना है। बाबा ने हम लोगों को गोल्डन चांस दिया है, हम बहुत अच्छे-अच्छे संकल्प भी करते हैं परन्तु उसको निभाने में थोड़ा फर्क पड़ जाता है। बाबा के प्यार का सब दिल से रिटर्न देने की प्रतिज्ञा तो करते हैं क्योंकि रिटर्न नहीं देंगे तो बाबा के साथ रिटर्न कैसे चलेंगे? हमारी रिटर्न जर्नी भी तो है ना। तो रिटर्न जर्नी के लिए पहले बापदादा ने जो प्यार दिया है उसका रिटर्न करना है। रिटर्न में बापदादा क्या चाहता है? जो भी निमित्त बच्चे हैं वो एक-एक विश्व राज्य का अधिकार प्राप्त करें, यही बाबा की शुभ आशायें हैं। तो जो निमित्त हैं, वो सोचें कि हम वल्र्ड की स्टेज के हीरो एक्टर हैं। बाबा ने कुछ तो विशेषता देखी है ना! ऐसे ही थोड़े ही निमित्त बना दिया। लेकिन वो विशेषता हम कहाँ तक कायम, अविनाशी रखते हैं, वो हमारे ऊपर है। यह विशेषतायें भी प्रभु प्रसाद हैं, इससे हम निमित्त बनने के साथ निर्मान व निरहंकारी भी बन जायेंगे क्योंकि कोई भी विशेषता है, उसको अगर हम अपनी समझ लेते हैं तो बहुत नुकसान है। मेरी तो है ही नहीं क्योंकि मरजीवे जीवन में बाबा ने जन्म लेते ही हमको वरदान में विशेषता दी है। तो उस हिसाब से हम विशेषता को यूज़ करें और सदा निमित्त भाव याद रहे। गुल्ज़ार दादी जी हमको बीच-बीच में बार बार अशरीरी बनने का अभ्यास ज़रूर करना है। यह बहुतकाल का अभ्यास चाहिए। समय के अनुसार सभी साधारणता बिल्कुल खत्म हो जानी चाहिए। जो यहाँ बहुतकाल स्वराज्य अधिकारी बनते हैं वही वहाँ बहुतकाल के राज्य अधिकारी बनते हैं। सर्विस तो हो भी रही है और होती भी रहेगी लेकिन यह विदेहीपन की स्टेज का अनुभव अभी बढ़ाना चाहिए। जब हम इस अभ्यास में सम्पूर्ण और सम्पन्नता की ओर आगे बढ़ेंगे तब हम बड़े हैं, निमित्त हैं। तो हर एक विन करके वन नम्बर अर्जुन बने, यही उम्मीद बापदादा ने रखी है। तो इस उम्मीद को पूरा करेंगे ना? करनी ही है। हम बापदादा के दिल की आशाओं के दीपक नहीं करेंगे तो और कौन करेंगे? करेंगे नहीं, गे, गे… खत्म। संकल्प मात्र भी ऐसे संकल्प नहीं लाना है। बाबा की सब उम्मीदें हमें पूरी करनी हैं। स्व को देखें, स्व का दर्शन करें, स्वमान में रहें। निमित्त होने कारण सभी हमको कई बातें सुनायेंगे ज़रूर, फिर भी उस व्यर्थ वायब्रेशन में न आ करके, किसी के कमज़ोर संस्कार का प्रभाव हमारे ऊपर न पड़े। शुभ भावना सम्पन्न रहें। बाबा हमेशा याद दिलाते हैं कि बच्चे यहाँ धर्म और राज्य दोनों स्थापन हो रहे हैं इसलिए हमको सदैव सर्व के प्रति शुभ भावना रखनी है। भले कोई कैसा भी है, है तो बाबा का बच्चा, आया तो यज्ञ वत्स होके है इसलिए हर एक के प्रति शुभ भावना शुभ कामना रखकर, उनको सहयोग दे करके आगे बढ़ाना है। शिवबाबा समान फूलों से भी प्यार तो कांटों से भी प्यार रखना है। किसी के साथ ज्य़ादा लगाव भी न हो लेकिन एक सद्भावना से उसका कल्याण करने की भावना ज़रूर हो, तो उसका फल ज़रूर मिलता है। हम निमित्त हैं तो निमित्त वालों को थोड़ा विशेष अटेन्शन देना ही पड़ेगा। नहीं तो और भी हमें देख हमारे जैसा ही करते रहेंगे क्योंकि हम निमित्त हैं इसलिए व्यर्थ, निगेटिव, साधारण संकल्पों से स्वयं को बचाना ज़रूर पड़े क्योंकि संगठन हमारा बढ़ता ही जायेगा और सब जगह पर बातें भी ऐसी नई-नई सुनने में आती हैं, जो समझ में ही नहीं आता है, कौन बोलने वाला है और कहाँ से बातें आ रही हैं? यह हैं हमारे पेपर। जैसे साइडसीन में सब तरह की चीज़ें आती जाती रहती हैं। तो ये जो भी पेपर व तूफान आते हैं उसको एक तोहफा समझकर पास करें, क्योंकि यह सब अनुभवी बनाके आगे बढ़ाते रहते हैं। और ऐसे समय पर बुद्धि रूपी विमान से परमधाम में सर्वशक्तिवान बाबा के साथ बैठ जाओ तो उसके आगे कोई बड़ी बात नहीं है। तो हमारा ऐसा अभ्यास होना चाहिए, जो भी अपने को निमित्त समझते हैं वह अपनी जि़म्मेवारी पूरी निभायें। दो बोल अपनी डिक्शनरी से तो क्या पर सोच से, वृत्ति से भी निकाल दो कि – क्या होगा? कैसे होगा? क्योंकि इससे उदासी आती है। भगवान के बच्चे और ऐसे सोच में चले जाने से तो न कभी स्वमान में रहेंगे, और बाबा से जो मिला है वह हमारी जीवन में दिखाई भी नहीं देगा। दूसरे को भी प्राप्ति नहीं होगी। अकेले हैं या सबके बीच में हैं लेकिन हमें तो सारा जहान देख रहा है। एक तरफ बाबा देख रहा है, दूसरा परिवार देख रहा है तो सोचो हमें स्वयं को कैसे देखना चाहिए? कई ऐसी अच्छी-अच्छी, ऊंची-ऊंची बातें जो हैं वो स्मृति में रखने से अपने ऊपर अटेन्शन रहता है और वही सिमरण करने से स्व सहित सर्व को प्राप्ति होती रहेगी। हम आत्मा भी निमित्त हैं परमात्मा से मिलाने के लिए, ऐसी सोच हो तो और किसी प्रकार का रिंचक मात्र भी हमारे अन्दर संकल्प आ नहीं सकता है।