दादी महीन पुरुषार्थ से बनीं महान

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एक फुटबॉल टीम के बच्चे गुफा में फंस गये। वे प्रकृति के सामने इतने बेबस थे कि बाहर आना तो दूर बल्कि प्रकाश की एक किरण भी देखने के लाले पड़ गये थे। आप कल्पना करें कि प्रकाश न हो तो जीवन, जीवन ही नहीं रह जाता। इन बच्चों ने गुफा के अंदर छोटी चट्टान के बीच करीब पंद्रह से बीस दिन गुज़ारे। बारिश का मौसम होने के कारण गुफा में पानी भर गया और वे बाहर आ नहीं सके। उनके साथ उनका कोच भी था। कोच कहीं न कहीं ध्यान-योग की विधि से मन को परिस्थिति के मुताबिक ढ़ालने की कला में माहिर था। उसने बच्चों का न सिर्फ हौसला बनाये रखा बल्कि खुद ने भी हिम्मत नहीं हारी। उस योग के प्रकाश की भीतरी किरण ने ही उन्हें जि़ंदा रखा और समय रहते वैज्ञानिक तकनीकों के समन्वय से उन्हें सुरक्षित बाहर निकाला जा सका। ऐसे ही हमारे जीवन में भी कभी उतार-चढ़ाव आते हैं, ऐसे में आध्यात्मिक उज्जवल ज्योति की उम्मीद की किरण ही हमें मार्ग दिखा सकती है। ऐसे ही जि़ंदगी के उतार-चढ़ाव व उलझनों के मध्य हमारी दादी प्रकाशमणि ने बहुतों के जीवन को प्रकाश देकर प्रकाशित किया। अगस्त मास आते ही दादी जी की मधुर शिक्षायें, उनकी मधुर यादें पिक्चर की रील की तरह एक-एक करके अंतर्दृष्टि के आगे सरकती जाती है। वह हमारी यादों के बगीचे के फूलों को नई सुंदरता और खुशबू से भर देती है। दादी महानताओं के आसमान को छूने के बावजूद भी उनकी सरलता और निरहंकारिता जैसे गुणों ने हमारे हृदय में अपनी अमिट छाप छोड़ी जो आज भी भुलाये नहीं भूल सकती। ऐसे ही एक लम्हे की बात करें तो एक बार बारिश का मौसम था। सुबह के समय बारिश ज़ोर से अपना रूप दिखा रही थी। ठंड भी लग रही थी। दादी जी क्लास के लिए आईं और भंडारे वालों को कहा कि सभी को गरम-गरम हलवा खिलाओ। तुरंत ही क्लास के बाद सभी को गरम-गरम हलवा(टोली के रूप में) दिया गया। दादी प्रासंगिकता के अनुरूप कार्य करके सभी को उमंग-उत्साह दिलाते। सभी के दिल के भाव को समझ लेते। ये उनकी विशेषताओं में शुमार था। एक बार ठंड के मौसम में ज्ञानसरोवर के निर्माण कार्य में दादी जी निर्माण स्थल पर पहुंचे। देखा कि सारे बड़े प्यार से सेवा कर रहे हैं और ठंड भी जैसे उनकी परीक्षा ले रही है। पर ये खुदाई खिदमतगार परमात्म कार्य में ठंड की फिक्र किये बिना जुटे हुए हैं। उनको तुरंत ख्याल आया कि सबको गरम-गरम पकौड़े खिलाये जायें। सेवाधारियों द्वारा इसकी व्यवस्था आज्ञानुसार कर सबको गरम-गरम पकौड़े खिलाये गये। दादी जी का ये भाव सबके दिल को छू लेने वाला होता था। दादी जी हर कार्य को समयबद्ध रूप से करने की हिमायती थीं। जैसे ज्ञानसरोवर का निर्माण कार्य चल रहा था, लेकिन उसकी ओपनिंग डेट पहले से ही फिक्स कर दी गई थी। हमें अच्छी तरह से याद है कि ओपनिंग डेट पर सुबह दस बजे ओपनिंग होनी थी और हार्मनी हॉल के स्टेयरकेस का कार्य कड़ाके की ठंड के मध्य रात भर चलकर सुबह छ: बजे समाप्त हुआ। और निश्चित समय पर ही उद्घाटन भी हुआ। दादी जी निश्चय और निश्चिंतता की धनी थीं। कैसे होगा, कौन करेगा, ऐसी बातें तो उन्हें कभी छू भी नहीं पाईं। उस समय यज्ञ में ज्ञानसरोवर का विशाल प्रोजेक्ट का निर्माण करना था पर कैसे होगा उसके लिए आर्थिक व्यवस्था कैसे कर पायेंगे इसके लिए भी दादी बिल्कुल निश्चिंत थीं। दादी जी हमेशा कहती थीं कि मैं तो निमित्त हूँ, शिव बाबा का कार्य है और वो ही सबकुछ करवा रहा है। उसमें ज़रा-सी भी निश्चय की सुई को हलचल की मार्जिन नहीं रहती थी। मैंने दादी जी को प्रेमपूर्वक प्रशासन करते हुए नज़दीक से देखा। कैसे कार्य करना है और किससे करवाना है, दादी जी इन सब चीज़ों का समन्वय बनाकर प्रेम से कार्य को सम्पन्न करती थीं। दादी जी यज्ञ की कोई भी चीज़ वेस्ट न हो उसका पूरा ध्यान रखती थीं। हमें याद है कि जब कंस्ट्रक्शन का कार्य चल रहा था तो पाइप से पानी यूं ही व्यर्थ बह रहा था। तो दादी ने सम्बंधित भाई को बुलाकर उसे तुरंत ठीक करवाया। क्योंकि माउण्ट में पानी की हमेशा कमी रहती थी। दादी जी जिसे कार्य देती थीं उसपर पूरा विश्वास रखती थीं तथा मार्गदर्शन भी करती थीं ताकि परमात्मा के यज्ञ में कुछ भी अनुचित न हो। दादी जी की सबसे बड़ी खूबी तो ये थी कि कोई भी सरलता से उनसे मिल सकता था और सहृदयता से अपनी बात कह सकता था। और फिर यज्ञ रक्षक बन बड़े उमंग और ईमानदारी से यज्ञ के कार्य में जुट जाता था। दादी ने ज्ञानसरोवर के विशाल प्रोजेक्ट की जिम्मेवारी देने हेतु हमपर विश्वास रखा, हमें इस योग्य समझा ये हमारा सौभाग्य है। उनकी पालना के लम्हें जैसे साकार में नज़रों के सामने ही है। ऐसी हमारी दादी को उनके पुण्य स्मृति दिवस पर गहरी भावनाओं के साथ श्रद्धासुमन अर्पित।

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