पुरुषोत्तम मास में उत्तम बनने का पुरुषार्थ

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त्योहारों का उद्देश्य न सिर्फ उसे मनाना और दो दिन के बाद चले जाना है बल्कि इनका एक उद्देश्य मानव को सुशिक्षित करना भी है। त्योहारों का उद्देश्य लोगों में जागृति, सद्भावना, एकता, संगठन की वृत्ति पैदा करना और सुसंस्कृत, शिष्ट और सुयोग्य नागरिक बनाना है। जहाँ सामाजिकता की भावना प्रबल होती हो। ऐसी भावनाओं को सबल बनाने के लिए समय प्रति समय त्योहार आने पर हमें स्वयं को सुशिक्षित व प्रशिक्षित करना चाहिए। विशेष तौर पर श्रावण मास को पुण्य का मास कहते हैं। ये भी कहते हैं कि इस मास के दौरान इतने पुण्य करो जो सारे पाप कट जायें। हमें अपने पर नज़र डालकर देखना चाहिए कि कहां-कहां मेरे से भूलें होती हैं या पाप होते हैं, उनपर गौर करना चाहिए। जैसे कि झूठ बोलना, अधिक बोलना, कड़वा बोलना, जिसके कारण हम स्वयं भी तंग होते और दूसरे भी। ऐसी बातों से बचना चाहिए और आंकलन करना चाहिए कि इसपर कड़ी नज़र रखकर जहाँ हमारी एनर्जी वेस्ट होती है, उसे बचाना चाहिए। व्यावहारिकता में असमानता का भाव रखना भी पाप है। जैसे घर में बेटा और बेटी होते हैं, और उन्हें मिठाई बांटते वक्त बेटे को ज्य़ादा और बेटी को कम देते हैं। स्वयं के बच्चों में भी ऊपर-नीचे का भाव, ये भी हमारे जीवन में हीनता पैदा करता है। इसपर भी हमें ध्यान देकर इसे बदलना चाहिए। ऐसे भाव को विकसित करना चाहिए कि हर मनुष्य एक समान है। कटु बोल बोलना, विशेष तौर पर इस भाव को बदलने के लिए शंकर जी की मूर्ति के ऊपर चंद्रमा दिखाते हैं। जो कि शीतलता का प्रतीक है। हमें भी विकट परिस्थितियों में मगज को शांत रखना चाहिए। मधुर, हितकारी और सत्य बोलना चाहिए। ईष्र्या करना, ये भी तो बहुत बड़ा पाप है। ईष्र्या मानसिक विकृति तो है ही, साथ-साथ उसके प्रभाव से शरीर भी विकृत बनता है। आजकल देखने में आता है कि यदि कोई सुखी है, तो उसको देखकर भी हम दु:खी हो जाते हैं। ईष्र्या की बीमारी उत्पन्न होती है। हमेशा दूसरों की प्रगति और उन्नति देखकर खुश होना चाहिए। किसी ने ठीक कहा है, जिसके अंदर दूसरों के दु:ख देखकर करुणा नहीं आती, दया नहीं आती, तो फिर भगवान वहां कैसे आ सकेंगे। छल-कपट करना, दगा देना, खाने-पीने की चीज़ों में मिलावट करना, ये सब भी महापाप हैं। परमात्मा को निर्मल और स्वच्छ हृदय वाले भोले और सरल लोग ही प्रिय हैं। रामचरितमानस में श्री राम ने कहा है, क्रनिर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा।ञ्ज कंजूसी करना भी पाप है। कंजूस व्यक्ति वो है जो आवश्यक खर्च भी नहीं करता। कंजूस व्यक्ति सिर्फ जोड़-तोड़ कर इक_ा करता रहता है। वो अच्छे कामों में भी पैसे नहीं खर्च करता। ऐसे में हमें स्वयं को शिक्षित करना होगा कि हमें उदार बनना चाहिए। यही मुक्ति का मार्ग है। गुस्सा करना भी पाप की श्रेणी में आता है। हम जहाँ भी जाएं और वहां के वातावरण को भारी कर दें, तंग कर दें, तो ऐसे में ध्यान रहे कि गुस्सा करने से पुण्य का क्षय होता है। हमारा प्रयास होना चाहिए कि हमारी हाजिरी से हर कोई हल्का अनुभव करे, लाइट अनुभव करे। किसी का भी मनोबल तोडऩा, ये भी सूक्ष्म पाप है। जबकि किसी का आत्मविश्वास बढ़ाना, उमंग दिलाना, आगे बढ़ाना, ये पुण्य की श्रेणी में आता है। विशेष तौर पर पुरुषोत्तम मास में हमें पुण्य करने का समय मिलता है, तो हमें देखना चाहिए, स्वयं में झांकना चाहिए और जो भी जाने-अनजाने हमारे व्यवहार से, हमारे विचारों से, संकल्पों से दिन भर में निगेटिव की श्रेणी में आने वाली बातें होती रहती हैं, न सिर्फ उनका प्रायश्चित करना है बल्कि उन्हें रियलाइज़ करके उन्नत, श्रेष्ठ व पुण्य में रिप्लेस करना है।

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