हम सुनते आये हैं, धन गया तो कुछ नहीं गया, स्वास्थ्य गया तो थोड़ा बहुत गया, किंतु चरित्र गया तो सबकुछ गया। हमने देखा, वर्तमान समय में वो लोग भयभीत हो गये जिनका स्वयं पर विश्वास नहीं था। अब समय आ रहा है चेंज से चरित्र बनाने का। चरित्र अर्थात् अपने में दैवी संस्कार की पूंजी निर्मित करना। संस्कार अपने आप में एक शक्ति है। वो मनुष्य को सुरक्षा प्रदान करती है। हमने देखा, परमात्मा ने प्रजापिता ब्रह्मा को उनके दैवी संस्कारों की याद दिलाई और उनके संस्कार इमर्ज हो गये। फिर भले ही कितनी भी कठिनाइयां, समस्याएं उनके सामने आईं, फिर भी अपने डिवाइन संस्कार की शक्ति के कारण वे अपने मनोरथ सिद्ध करने में सफल रहे। नूतन वर्ष में नया आयाम और नये ढंग से अपने को चेंज करना होगा, अन्यथा तो बीते हुए वर्ष की तरह ही हम हैप्पी दीपावली आदि विश करके अपना मुख मीठा कर, मिया मिट्ठू बनकर ही रह जायेंगे। हम जो भी भविष्य में श्रेष्ठता की कामना करते हैं उस कार्य में बाधक हमारे पुराने संस्कार ही तो हैं। सबकुछ होते हुए भी इतिहास गवाह है कि जिसका चरित्र-बल निर्बल था, उसकी हमेशा ही हार हुई है। अगर रामायण का संदर्भ भी देखें, जब श्रीराम और रावण का भयंकर युद्ध हुआ, आखिर में रावण गिर पड़ा। उसी वक्त राम ने लक्ष्मण को कहा कि आप रावण के पास जाएं और उनसे सीखें। परंतु उस वक्त लक्ष्मण के मन में बहुत उमंग था कि रावण की हार हुई और उनका मन राम की बात स्वीकार करने की स्थिति में नहीं था। फिर भी श्रीराम की आज्ञा मानकर वे रावण के पास गये। तब धरती पर पड़े रावण ने लक्ष्मण से कहा, मेरे पास सबल शस्त्र-सेना थी, मेरे राज्य में ही हम युद्ध लड़ रहे थे और सबको ये विश्वास भी था कि लंका नरेश की कभी हार नहीं हो सकती। वहाँ की प्रजा तो क्या, देवतायें भी मुझसे कांपते थे। फिर भी मेरी हार क्यों हुई? क्योंकि मेरा चरित्र ठीक नहीं था। चरित्र अर्थात् श्रेष्ठ संस्कार की शक्ति मेरे पास नहीं थी। इसीलिए मेरी हार हुई। श्रीराम के पास चरित्र का बल था। तो कहने का भाव यह है कि संस्कार अपने आप में एक शक्ति है जो विपरीत परिस्थितियों में भी हमें एक संबल देती रहती है। हमने यहाँ संस्थान में देखा कि जब ज्ञान का विस्तार हुआ तो हमारे ब्रह्मा बाबा के साथ जो भी वरिष्ठ जुड़े, उन्होंने अपने संस्कारों को इतनी दिव्य शक्तियों से भर दिया, कि फलस्वरूप वे जहाँ कहीं भी जाते, बिल्कुल निर्भय होकर सत्य ज्ञान बिना झिझक, बड़े ही नशे से, बड़ी ही शालीनता से देते। क्योंकि दुनिया वालों के लिए ये नवीन ज्ञान था। जिन मान्यताओं के साथ दुनिया चल रही है उससे भिन्न था।
ऐसे ही हम अगर इतिहास में जायें तो श्रीकृष्ण, श्रीराम से आगे चलते हुए गौतम बुद्ध की बात यहाँ बताना उचित होगा। एक बार गौतम बुद्ध जंगल में जा रहे थे। रास्ते में एक छोटा-सा गांव आया। गांव में सन्नाटा था। कोई भी घर से बाहर नहीं निकल रहा था। उन्होंने एक सज्जन से बात की। सज्जन से बात करने पर पता चला कि वहाँ पास के जंगल में रहते एक बड़े अंगुलीमाल डाकू का भय चारों ओर फैला हुआ था। वहाँ का राजा भी इस अंगुलीमाल से बहुत भयभीत था। वो भी उसके सामने हिम्मत नहीं करता था। क्योंकि वो अंगुलीमाल डाकू, लोगों की छोटी अंगुली काटकर, उसकी माला बनाकर अपने गले में पहनता था। अब तक उसने 999 अंगुलियां काटकर गले में डाली थी और उसका लक्ष्य 1000 अंगुलियों की माला पहनने का था। ये बात सुनकर बुद्ध ने कहा, आप सब अंदर में रहो, मैं जंगल में जाता हूँ। बुद्ध जंगल की ओर अकेले आगे चलने लगे। उन्हें मालूम था कि जंगल में डाकू छिपा हुआ है, फिर भी वे अपनी तेज़ रफ्तार से आगे चलते गये। अंगुलीमाल ने आगे चलते हुए बुद्ध को देखा और वो उनको पकडऩे के लिए उनके पीछे-पीछे चलने लगा। लेकिन बुद्ध बहुत रफ्तार से आगे चल रहे थे और उसकी पकड़ में नहीं आ रहे थे। ऐसे में अंगुलीमाल ने आवाज़ दिया, रुक जाओ। बुद्ध रुके और पीछे मुड़कर बड़े शांति से कहा, मैं तो कई वर्षों पहले ही रुक गया, तुम कब रुकोगे! मैं वर्षों पहले दूसरों को दु:ख देने से रुक गया हूँ, अब तुम्हें भी रुकना है इससे। अंगुलीमाल ने देखा, ये पहला व्यक्ति है जो बड़ी शांति से, निर्भय होकर मुझसे ये कह रहा है। ये बात उसके मन को छू गई और वो परिवर्तित हो गया। ये कौन-सी शक्ति थी? ये संस्कार की ही शक्ति थी ना! दिव्य संस्कार में ही ये पॉवर है जो दूसरों को भी भीतर से परिवर्तित कर सकती है। तो हमने यहाँ पहले-पहले अपने स्वमान से संस्कार को परिवर्तित करना सीखा और बाबा हमेशा कहते हैं, आप जो हैं, जो आपकी शक्ति है उसको जानो, पहचानो, समझो क्योंकि जो आप हैं वही आप दूसरों को दे पायेंगे और उनका परिवर्तन कर सकेंगे। संस्कार से ही संसार परिवर्तन होता है। तो हमें पहले स्वयं के संस्कार को परिवर्तित करना होगा, अर्थात् अपने व्यक्तित्व, चरित्र को चेंज करना होगा। और उस चेंज से ही बदलाव आयेगा।