हमें अभ्यास कौन-सा है, साकार का। क्योंकि पार्ट में रहे, ज्ञान नहीं था। तो देहधारियों से योग लग गया, देह से अटैच हो गये। वैभव पदार्थों से अटैच हो गये और उस अटैचमेंट में देह भान में कहीं गलत आदतों से अटैच हो गये। स्वभाव बन गये। अब ये एक जन्म की तपस्या से बदलने हैं
ये दुनिया पाँच तत्व की है और दुनिया में जितनी भी चीज़ें हैं, वस्तुएं हैं, साधन हैं, वैभव, पदार्थ हैं वो भी किससे बने हैं? पाँच तत्वों से बने हैं ना! हमारा ये शरीर भी पाँच तत्वों से बना है। हमें उन सबसे डिटैचमेंट लाना है। मैं इनसे अलग हूँ, क्यों बाबा ये तैयारी करा रहे हैं क्योंकि बाबा आत्माओं को ले जायेंगे शरीरों को यहाँ छोडऩा है। तो जीते जी प्रैक्टिस करनी है, देह से अलग होने की। वस्त्र हमने पहने हैं, ये स्पष्ट है हम वस्त्र नहीं हैं। हम उनसे अलग हैं। हम शरीर नहीं हैं। शरीर अलग है, हम अलग हैं। तो ये अभ्यास करना है, अपने आपको रियलाइज़ करना है। ये तप है इसको तपस्या कहते हैं। गुफा में बैठकर तपस्या करते हैं।
शरीर एक गुफा है और मैं आत्मा तपस्वी हूँ, ये पक्का करना है। हम गृहस्थी नहीं, संसारी नहीं, हम स्त्री नहीं, हम पुरुष नहीं, हम योगी हैं, तपस्वी हैं। इस अवेअरनेस में, इस स्मृति में हमें रहना है। बाबा हमें ज्ञान दे देते हैं पर प्रैक्टिस में हमें लाना है। तो जितना देह भान से न्यारे रहेंगे उतना हमारे में रूहानियत व अलौकिकता अनुभव होगी। लोगों को लगे कि ये अलग ही हैं। इनकी आँखें अलग हैं, इनके चेहरे अलग हैं। क्योंकि जो बॉडी कॉन्सेस होकर बैठेगा वो अलग होता है। जो सॉल कॉन्सेस होता है उनका न्यारापन उनके चेहरे से दिखाई देता है। देखो जो रोज़ सुबह का क्लास करते हैं, रोज़ योग में आ जाते हैं। ऐसे नहीं मुरली के समय आ जाते हैं। जिनको रोज़ प्रैक्टिस है उनके चेहरे देखो। और जो गुरुवार को एक दिन क्लास में आते हैं, या हफ्ते में आते हैं तो उनके चेहरे देखो। बहुत फर्क महसूस होगा। रोज़ की प्रैक्टिस से हम निंद्रा जीत बनते हैं। तो हमें कोई आलस नहीं आयेगा, कोई नींद नहीं आयेगी; और हम देहभान से न्यारे रूहानी दिखाई देंगे। तो बाबा तो हमें कहते हैं ना कि तुम रूहानी बच्चे हो। रूहानी सेवाधारी हो। ये क्यों बाबा हमें पक्का कराता है कि हमें निराकारी बनना है, देह भान से डिटैच होना है, तो डिटैचमेंट तपस्या की नींव है। जब तक हम डिटैच नहीं होते हैं तो हमारा योग बाबा से लगेगा नहीं। योग निराकार से लगाना है ना! और हमें अभ्यास कौन-सा है, साकार का। क्योंकि पार्ट में रहे, ज्ञान नहीं था। तो देहधारियों से योग लग गया, देह से अटैच हो गये। वैभव पदार्थों से अटैच हो गये और उस अटैचमेंट में देह भान में कहीं गलत आदतों से अटैच हो गये। स्वभाव बन गये। अब ये एक जन्म की तपस्या से बदलने हैं।
उस समय ज्ञान नहीं था, हर कर्मेंद्रिय से पाप किए। किसी के कान भरे, कभी मुख से कड़वे शब्द बोले। हर कर्मेंद्रिय से, हाथ से, पाँव से क्या-क्या किया। जब हर कर्मेंद्रिय से पाप किए तो हर कर्मेंद्रिय से अब पुण्य आत्मा बनना है। ये खुद संयम रखना कि अब कोई कर्मेंद्रिय से पाप न हो। अब समय कौन-सा है- मन शुद्ध और एकाग्र हो। जब मुख से बाज़ार का खाना छोड़ दिया तो मन से क्यों खाने का! मन से याद करते रहते हैं हम फलाने होटल में जाते थे, भेल-पूड़ी खाते थे। अब ये क्यों याद करना है! मन से भी क्यों जायें! आँखों से फिल्में देखनी नहीं हैं तो देखी हुई फिल्में याद क्यों करनी हैं! बीती हुई बातें क्यों याद करनी हैं! तो बाबा तो सूक्ष्मता में पहुंच गये। हम भी साथ-साथ चलेंगे ना बाबा के पास! बाबा आगे-आगे पढ़ाते जायें और हम पीछे रह जायें।
देखो बाबा ने सबकुछ पढ़ा दिया, पढ़ाई का पाठ पूरा हो गया। जो बाबा ने पढ़ाया वो हमने पढ़ लिया, प्रैक्टिकल बनने में देखो कितना टाइम लगता है, इसलिए कितने लम्बे समय से बाबा तैयारी करा रहे हैं। जब हम ज्ञान में आये तो याद है कि जो लौकिक गृहस्थी लोग थे वो भी बहुत सात्विक थे। नियम-संयम वाले थे। आज समझ में आ रहा है कि बाबा ने क्यों इतने लम्बे समय से पुरुषार्थ कराया। आज इतने विकार बढ़ गये हैं पर वर्षों के पुरुषार्थ के कारण हमें कोई आकर्षण नहीं है। आज इतनी नैचुरल पवित्रता, सेल्फ कंट्रोल आ गया कि आज कोई आकर्षण ही नहीं, हम सेफ हैं। क्योंकि निराकारी बनना माना सभी प्रभावों, लेपों से मुक्त हो जाना।