सर्वोत्तम पुरूषार्थ में एक बहुत सच्चाई चाहिए। जब हम ज्ञान मार्ग में आते हैं तो हमें खुद की पहचान नहीं होती, और ये हम नहीं कहते हैं कि आत्मा ज्योति स्वरूप है, बस मैं बिन्दु हूँ और उसमें सबकुछ आ गया
पुरूषार्थी जीवन में अगर वो लक्ष्य हमारे सामने है ये हमें ऐसे सम्पूर्ण निर्विकारी देवता बनना है तो हम वहाँ पहुंच पायेंगे। यदि आँख इधर-उधर गई तो फिर वो टाइम हमारा खिसक जाता। और जब कोई ऐसी साइड सीन आती चाहे वो किसी के प्रति कुछ लगाव की बात हो, जिस कारण से हम उन्हों का आधार लेने चाहते, सहारा लेने चाहते। चाहे किसी के प्रति मन में ग्लानि की बात आती, जिस कारण से कुछ टक्कर होता रहता। चाहे कुछ भी हो, परन्तु मतलब ये है कि हमारा समय, संकल्प, शक्ति बिल्कुल वेस्ट चली जाती। जहाँ-जहाँ हाईवे होता वहाँ-वहाँ आप जानते हैं कि यदि एक टर्न मिस हो जाता है बायचांस तो कितना लम्बा चलना पड़ता है। कभी-कभी18 किलोमीटर्स, 20 किलोमीटर्स फिर ही वापस लौट सकते हैं। तब हम सोचते हैं कि हाय हमारा कितना टाइम चला गया। पेट्रोल कितना एक्स्ट्रा खत्म हो गया परन्तु समय पर हम अपने कारोबार के लिए या जो कुछ भी कार्य है हम उस पर नहीं पहुंच पाते। राइट?
तो यदि कोई भी कारण से हमारा ध्यान कहीं ओर चला गया, हमारा समय, हमारी शक्ति जो वेस्ट होती तो हमें एक्स्ट्रा पुरूषार्थ करना पड़ता है। तो ये हम ध्यान रखें कि कोई बात के कारण या किसी के प्रभाव के कारण या चाहे किसी की नफरत के कारण हम अपनी दृष्टि जिस लक्ष्य को बाबा ने दिया है और हम चाहते हैं हम वहाँ पहुंचे, हम उससे कभी हिल न पायें। तो बाबा की मदद भी रहेगी और बाबा की मदद के साथ-साथ हम अपनी हिम्मत से चलते रहेंगे। बाबा गैरन्टी देता कि हाँ अब ज़रूर पहुंच पायेंगे। मैंने देखा है कि सर्वोत्तम पुरूषार्थ में एक बहुत सच्चाई चाहिए। जब हम ज्ञान मार्ग में आते हैं तो हमें खुद की पहचान नहीं होती, और ये हम नहीं कहते हैं कि आत्मा ज्योति स्वरूप है, बस मैं बिन्दु हूँ और उसमें सबकुछ आ गया। बाबा खुद ही कहते कि ये तो कुदरत है- आत्मा बिन्दु और बिन्दु आत्मा में 84 जन्मों का हिसाब समाया हुआ है। ये तो कितनी गहरी बात है। और इसको अच्छी तरह से जानना समझना तब होता जबकि हम खुद को समय देवेें।
ज्ञान मार्ग में आते हैं तो ज्ञान तो बहुत इंट्रस्टिंग लगता, मैं अपना अनुभव कहती हूँ, क्यों, क्योंकि जो भी मन में प्रश्न होते हैं बाबा के बहुत ही क्लीयर उत्तर मिलते जाते हैं। शास्त्रवाद से पूछो किसी बात का तो वो तो कहेंगे कि जो परम्परा से चला है उसी को ही मानो। क्रिश्चयन धर्म वालों से पूछो कोई प्रश्न तो उन्हों का शब्द आता कि ये तो मिस्ट्री है। मनुष्य के बुद्धि से समझने के बाहर है। आत्मा के लिए ये बाइबल में शब्द लिखे हुए हैं कि मनुष्य की बुद्धि आत्मा को समझ नहीं सकती। तो सही बात है द्वापर में तो वही बात थी। परंतु जब भगवान आकर हमें बताते हैं हर प्रकार से कि आत्मा क्या है, आत्मा के अन्दर क्या है तो फिर तो हम कहेंगे कि हाँ हम समझ गये। परंतु फिर भी खुद को जानना मेरे अन्दर ओरिज़नल संस्कार जो आदि संस्कार हैं शांति, प्रेम, सत्यता, खुशी, और पवित्रता तो ये पाँच आत्मा के आदि गुण अथवा संस्कार। और जैसे हम उनसे दूर होते गये मन में क्या असर हुआ, शब्दों में क्या असर हुआ, चक्र को देखते चलो।
सतोप्रधानता से हम सतो तक पहुंचे, फिर तो रजोप्रधान बन गये, मिक्सचर शुरू हो गई। और फिर तब से हम नहीं चाहते थे कि कोई मेरे मन के संकल्पों को देख सके। कलियुग में तो बिल्कुल कचरे का संकल्प परंतु द्वापर में भी दुविधा कभी अच्छा, कभी इतना अच्छा नहीं, मिक्सचर चलता रहा। और हम अपने वो आदि संस्कारों को भूल कितना और ऊपर मैल चढ़ता गया। तो कितना हमारे ऊपर मैल है ये भी कई बार हम अच्छी तरह से नहीं समझ पाते। कभी-कभी बाबा कहते हैं कि स्वप्न भी ऐसे हों, जिसमें कोई प्रकार की अशुद्धि न हो, स्वप्न ऐसे हों जिसमें बाबा आयें। परंतु उससे भी और आगे आप अनेक आत्माओं को जागृत करने के लिए उन्हों के स्वप्नों में आकर उन्हों को बाबा की तरफ का इशारा दो। स्वप्नों की भी स्टेजेस होती, स्वप्नों का कनेक्शन है टोटली मन के साथ और संस्कारों के साथ। जो दिनभर अपना कर्तव्य होता, उसका जो प्रोसेसिंग चलता है वो रात्रि भर चलता। तो कहने का मतलब है कि बाबा क्यों कहते हैं कि आपके संकल्प में भी कोई और ऐसी बात न हो क्योंकि संकल्पों से भी पहचान होती है कि हम कहाँ तक पहुंचे हैं। दिनभर तो अपनी चेकिंग करें कि हमारे संकल्प किस प्रकार के हैं और जितनी चेकिंग उतना परिवर्तन और उस परिवर्तन के आधार से हम अपने लक्ष्य पर पहुंच सकेंगे। तो ये जो फर्क पड़ जाता है कि मन में कुछ और बात होती और बोलते फिर कुछ और हैं, और करते कुछ और हैं। अनुभव है ना सभी को इस बात का?
मन में जो कुछ चल रहा होगा वो छिपाते रहेंगे, शब्दों में बड़ी शानदार भाषा से बोलते रहेंगे। और आजकल तो बोलने की भी टे्रनिंग दी गई है। तो फिर तो वो बहुत होशियार स्पीकर बन जाते। परंतु उन्हों के मन की गति क्या है, उन्हों के मन की शुद्धि क्या है दोनों बातों में महान अन्तर है। या ये भी सोचें कि कभी मुख से कुछ ऐसे अनुचित शब्द निकलते तो उस समय मैं सोचती हूँ कि संकल्प कितने व्यर्थ चले होंगे। जिस कारण से मुख से ये शब्द निकल रहे हैं। मानो कि बैठ के कोई ग्लानि करता उसका मतलब उसने उस बात पर इतना विचार किया हुआ होगा लम्बे समय तक, जो आज उसके मुख से ये बातें निकल रही हैं। तो माइंड कहाँ गया, क्या हो रहा तो बाबा ने हमें बहुत डिटेल में समझाया है। तो खुद से पहले हम सच्चे बनें, और निरहंकारी होकर नम्रता से इस बात को समझें कि हमारे अन्दर के किस प्रकार के संस्कार अभी हैं जिन्हों को हमें अभी साफ करना होगा।