ये विधि सन्तुष्ट बना सकती

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सचमुच हम आत्म स्मृति में हैं, बाबा की याद में हैं तो जो कुछ बाबा के पास खज़ाना है और बाबा तो सागर है। सागर ने बिल्कुल फाटक खोल कर रखा है और कहा है जितना आप लेने चाहो, जितना आप अपने में भरना चाहो, बाबा कुछ लिमिट नहीं रखते।

आप सोचो कि कोई भी मधुबन में आते हैं जब चक्कर लगाते हैं तो क्या देखते हैं? सब तरफ हर्षित चेहरे। तो इस कारण से ही वो ये कहने लगते हैं कि यहाँ तो बिल्कुल स्वर्ग है। मधुबन को तो वैसे भी हम शुरू में कहते थे स्वर्ग आश्रम। आजकल मैं ये कम सुनती हूँ परंतु बिल्कुल जो भी कोई नये आते हैं या पुराने भी परंतु उन्हों को हर तरफ हर्षित चेहरे नज़र आते हैं। तो वो कहने लगते हैं कि स्वर्ग तो यहाँ ही है। और फिर साथ-साथ आश्रम की पवित्रता की शक्ति जो है वो भी उन्हें महसूस होती। तो बाबा की प्रत्यक्षता पहले तो जो यहाँ आते हैं उन्हों के सामने हो। और जो भी बाबा के बच्चे जहाँ पर भी रहते हैं, जहाँ पर भी सेवा के लिए जाते हैं, जहाँ-जहाँ वो अपनी फरिश्ता स्थिति, संतुष्टता, हर्षितमुखता की स्थिति बनाकर रखते तो अवश्य बाहर वाले लोगों को भी लगता है कि ये कोई अलग ही व्यक्ति है। इन्हों के पास कोई विशेष खज़ाना है। तो प्रश्न है कि हम कैसे ऐसे अपने जीवन को बनायें? तो पहली बात जो बाबा ने कहा कि संतुष्टमणि बनकर रहें। और ये तो प्रैक्टिकल देखा है कि कोई आत्मा के पास थोड़ा भी होगा तो भी कहेंगे कि सबकुछ है और कुछ नहीं चाहिए। आत्मा संतुष्ट है। और किसी के पास ज्य़ादा भी होगा तो भी कहेंगे और चाहिए और चाहिए। तो संसार की हालत किस तरफ है? जितना आये कम ही पड़ता। समझते कि और भी चाहिए, और भी चाहिए। कभी लोभ के वश, कभी मोह के वश, कभी अहंकार के वश, लोभ में मुझे चाहिए, और अहंकार वश कि मेरे पास होगा सबकुछ तो सब मुझे देखकर मेरी वाह-वाह करेंगे। या मोह वश मुझे तो चाहिए अपने लिए परंतु अपने पोत्रे-धोत्रे सबके लिए चाहिए। तो ये सब जो बातें आती हैं यदि सचमुच हम आत्म स्मृति में हैं, बाबा की याद में हैं तो जो कुछ बाबा के पास खज़ाना है और बाबा तो सागर है। सागर ने बिल्कुल फाटक खोल कर रखा है और कहा है जितना आप लेने चाहो, जितना आप अपने में भरना चाहो, बाबा कुछ लिमिट नहीं रखते। बाबा बेहद का है और बेहद की छुट्टी देते हैं कि जितना जिसको चाहिए वो ले सकते हैं। जितना-जितना हम बाबा से लेते जायें और साथ-साथ देते जायें उससे भी हमें जो दुआयें मिलती जाती हैं, हमारी खुशी बढ़ती जाती है, हमारे अन्दर शक्ति बढ़ती जाती है। हम नाम लेते हैं हमने बाबा के लिए परंतु वास्तविकता तो ये है कि वो भावनायें रखते हैं कि अनेक आत्मायें बाबा के नज़दीक आयें। परंतु वास्तविकता तो हमें बहुत-बहुत प्राप्ति हो जाती। इतना थोड़ा-सा भी बाबा के लिए करो तो शक्ति और खुशी किसे मिलती? बाबा तो सागर है, भरपूर है। परंतु शक्ति और खुशी हमें मिलती। तो हम सोचते हैं कि क्यों न और भी करें और भी करें। तो इस तरह से ऊपर से लेते जाओ और अन्य आत्माओं को देते जाओ। दादी जानकी एक वारी कहती थीं कि मैं बहुत मनहूस हूँ। हम लोगों को आश्चर्य लगा क्योंकि दादी तो बहुत फ्राक दिल रही सदा ही। जब भंडारे में थोड़ा ही था तो वो दान करती थीं। अपना भोजन न करके बच्चों को खिला देती थीं। तो मुझे तो बचपन से अनुभव है दादी का, दादी तो बहुत बड़ी दिल वाली हैं। मैंने पूछा दादी आपका मतलब क्या? तो कहती जो बाबा ने मुझे दिया है, जिस आधार से मैं चल रही हूँ तो वो मैं अपने पास जमा रखती हूँ, उसको कभी वेस्ट नहीं करती हूँ। परंतु मैं बाबा को कहती हूँ कि जब और सामने आते हैं उन्हों को क्या देवें? बाबा कहता कि मैं देता जाऊंगा और तुम देती जाओ। आप लेती भी जाओ और देती भी जाओ। परंतु अपना जो शक्ति जमा की है, कोई भी बात में खर्च नहीं करो। वेस्ट नहीं करो। तो इसमें दादी कहती थीं कि मैं मनहूस हूँ। तो हम तो हँसते थे कि दादी का स्ट्रॉन्ग शब्द है परंतु भाव जब दादी एक्सप्लेन करती थीं हम समझ जाते थे। कहने का मतलब बाबा इतना दे रहा लेते जाओ और चैनल बनकर औरों तक पहुंचाते जाओ। उस बीच में खुद को उसका परसेन्टेज फायदा हो जाता। तो संतुष्ट रहें तो बाबा से जितना हमें मिला है उतना हम उसको बाबा को थैंक्स देते रहें हर रोज़, सुबह-शाम बाबा को थैंक्स देते रहो क्यों? क्योंकि जितना हम बाबा को थैंक्स देते जाते हैं बाबा और भी आत्मा को भरपूर करता जाता। आप बच्चे को कुछ दो और वो एप्रीशिएट न करे तो आप नैक्स्ट टाइम सोचेंगे कि अभी उसको देवें या न देवें। परंतु बच्चे को बहुत खुशी हो, बहुत एप्रीसिएशन हो तो माँ-बाप भी कहेंगे कि देते जाओ, देते जाओ, बच्चा भी खुश होता है ना, देते जाओ। तो हमें जब बाबा दे रहा है और हमारी बुद्धि किसी और में फंसी हुई है कि ये चाहिए, वो चाहिए, चाहे कोई मनुष्य चाहिए, चाहे कोई और स्थूल चीज़ चाहिए तो उसमें फिर बाबा के साथ सीधी लाइन नहीं है, बाबा दे नहीं पाता। बाबा देना भी चाहे तो हम ले नहीं पाते। मतलब पहले तो बुद्धि की लाइन इतना क्लीन और क्लीयर रखें जो बाबा हमें दें सकें और हम अपने में समा सकें। फिर बिल्कुल निर्संकल्प होकर अन्य आत्माओं को बाबा का दिया हुआ खज़ाना हम देते रहें।

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