परमात्मा के यज्ञ से जो भी हम उपयोग करते हैं तो उसका भी हिसाब तो होता ही है ना! अगर सही तरह से नहीं किया तो उसका हमारे ऊपर बोझ चढ़ता है, लेकिन वो तभी चढ़ता है जब हम उसको सिर्फ और सिर्फ यूज़ करते हैं। परमात्मा के कार्य में सौ प्रतिशत सहयोग देने का अर्थ यही है कि हम सभी ट्रस्टी हैं। उसने हमें दिया है, हम सिर्फ सम्भाल रहे हैं। लेकिन अगर इस यज्ञ से कुछ भी उठा रहे हैं, किसी भी चीज़ को देखकर हमारे अंदर लोभ-लालच पैदा हो रहा है तो हम ट्रस्टी नहीं कहे जायेंगे। इसलिए सम्भल के यहां की एक-एक चीज़ का इस्तेमाल करें।
हम सभी जब किसी मंदिर में जाते हैं तो भी कुछ न कुछ उस भंडारी में डालते हैं, उसके बाद प्रसाद खाते हैं, वापस आते हैं। अब किसने देखा कि आपने क्या डाला, लेकिन ऐसा मन करता है कि नहीं ऐसे ही मुझे यहां से कुछ नहीं लेना है, कुछ न कुछ करना है। कहावत भी है, क्रदेयर इज़ नो फ्री लंच इन द वल्र्डञ्ज, माना इस दुनिया में कुछ भी फ्री नहीं मिलता, कुछ न कुछ उसका एवजा आपको देना पड़ता है। इसलिए परमात्मा का जो इतना विशाल कार्य चल रहा है, उसमें इतनी जो भी वस्तुएं या अन्य सामग्री आती है वो परमात्मा के उन अनन्य बच्चों के धन से आती है जो सिर्फ और सिर्फ मेहनत से कमाते हैं और इसके लिए ही सबकुछ करते हैं। तो इसमें हम सभी की क्या भूमिका होनी चाहिए? जो भी भंडारा है या भंडारी है, दोनों के प्रति हम सबकी जि़म्मेवारी बढ़ जाती है। ये तो ज़ाहिर ही है कि कुछ लोग पूरी तरह से परमात्मा के कार्य में अपने जीवन को लगा देते हैं, वो तो बाहर नहीं जाते हैं धन कमाने, वो सिर्फ और सिर्फ सम्भालने के लिए हैं। और कुछ अपने समय अनुसार सेवा देते हैं। आपको ये ज्ञात हो कि जब कोई चीज़ हमको फ्री में मिलती है तो उसकी वैल्यू कुछ दिन में हम समझ नहीं पाते। लौकिक दुनिया में हर दिन अपने खर्चे को बचाने के लिए लोग मोलभाव करते हैं, कहते कि आज सब्जी इतनी महंगी हो गई, दाल इतनी महंगी हो गई, कैसे खाएं! लेकिन यहां तो सबकुछ सामने पड़ा है। इतनी वैरायटी दुनिया में हमें कहीं भी नहीं मिलती जितनी इस यज्ञ में हमें देखने को मिलती है। ईश्वर का समझकर उसको उपयोग में लाने से, परमात्मा की याद में उसे खाने से वो अन्न प्रसाद के रूप में हमारे तन को लगता है। लेकिन कई बार लोग ये भी कहते हैं कि आप तो भगवान के घर का खाते हैं फिर भी आप बीमार रहते हैं! उनका ये प्रश्न लाज़मी है। हम परमात्मा के घर में रहकर उसे खाने के बाद भी शायद इसलिए बीमार पड़ते हैं क्योंकि उसको खाने का भाव सिर्फ खाने का है, जीने का नहीं। यहां जीने का अर्थ है कि मैं तो सिर्फ शरीर को चलाने हेतु भोजन का उपयोग करता हूँ ना कि हबच से, लोभ से। जब हम लोभवश बहुत सारी चीज़ें खाते भी हैं और उसे उठाकर घर भी ले जाते हैं थोड़ा तो वो अन्न या फल स्वास्थ्यकर नहीं होगा। क्योंकि भाव दूसरा है ना, इसलिए वो अन्न हमारे शरीर में बीमारियां पैदा करेगा। वो अन्न लगेगा नहीं तन को। चलो हम धन कमाते नहीं हैं, लेकिन और कार्यों में तन, मन का सहयोग तो दे सकते हैं ना उसे बचाकर, बचत करके। जैसे बिजली कहीं एक्स्ट्रा जल रही है तो उसको बंद कर दिया, कहीं नल से पानी ऐसे ही बह रहा है तो उसे बंद कर दिया, गैस वेस्ट न हो। कोई भी अप्लायंस(उपकरण) को चलता छोड़ दिया है तो उसको ठीक रखना, कोई चीज़ खराब पड़ी है उसको ठीक करवाना। परमात्मा हम सबको शिक्षा देते हैं कि खान-पान न तो बहुत रॉयल हो और न ही बहुत नीचे का हो, बीच का हो। इसीलिए इतना शुद्ध बना हुआ, परमात्मा की याद में बना भोजन खाने पर भी उसके प्रति हमारा भाव सिर्फ खाने का होने के कारण हमारा शरीर उस प्रकार कार्य नहीं करता जैसा करना चाहिए। बड़ी सूक्ष्म धारणा है कि अगर हमें कुछ मिल रहा है तो उसको लेने से पहले उसका दस गुणा हमको देना पड़ेगा। जैसे दुनिया में भी अगर कोई किसी को दस लाख रुपये सालाना दे रहा है तो उससे डेढ़-दो करोड़ का काम भी ले रहा है। ऐसे ही नहीं कोई सैलरी दे देता है। इसलिए इस कार्य में सुबह की दिनचर्या से लेकर शाम तक जो कुछ भी हमने स्थूल रूप से, जो शरीर से सम्बंधित चीज़ें हैं उससे और मन-बुद्धि से लोभ-लालच से जो कर्म किये होते हैं उससे ही हमारी सैलरी बनती है। इसलिए मसला सिर्फ इतना है कि यज्ञ ज़रूर हम सभी का है लेकिन जब तक उसकी सही रीति से सम्भाल न हो तब तक हम सिर्फ उसको यूज़ कर रहे हैं। क्योंकि इन सबके पीछे अनेक योगी आत्माओं के द्वारा दिया गया पैसा है, उसका हमारे ऊपर बोझ चढ़ता है, लेकिन वो तभी चढ़ता है जब हम उसको सिर्फ और सिर्फ यूज़ करते हैं। परमात्मा के कार्य में सौ प्रतिशत सहयोग देने का अर्थ यही है कि हम सभी ट्रस्टी हैं। उसने हमें दिया है, हम सिर्फ सम्भाल रहे हैं। लेकिन अगर इस यज्ञ से कुछ भी उठा रहे हैं, किसी भी चीज़ को देखकर हमारे अंदर लोभ-लालच पैदा हो रहा है तो हम ट्रस्टी नहीं कहे जायेंगे। इसलिए सम्भल के यहां की एक-एक चीज़ का इस्तेमाल करें। यही परमात्मा के कार्य में हमारा सौ प्रतिशत योगदान होगा।