अन्त का मंत्र है स्मृर्तिलब्ध: नष्टोमोहा। जब तक ये मन्त्र प्रैक्टिकल में नहीं तब तक दूसरों की क्या सेवा करेंगे! हरेक पहले यह सवाल पूछे कि बाबा ने मुझे मंत्र दिया है स्मृर्तिलब्ध:, तो मैं हूँ?
हमारा बाबा कितना निरहंकारी है, बच्चों को कहता है बच्चे मैं तुम्हारा ओबीडिएन्ट सर्वेन्ट हूँ। जब बाबा ही ओबीडिएन्ट है तो हम अपने से पूछें कि हम भी उनके समान निरहंकारी और निर्मानचित्त रहते हैं? जब ऊंचे ते ऊंचा बाप, इतनी ऊंची अथॉरिटी कहता है मैं तुम्हारा सर्वेन्ट हूँ, तो हमें कितना निरहंकारी होना चाहिए! जब अपने को सेवाधारी समझते तो स्वत: निरहंकारीपन की स्टेज आ जाती है। अपने को निमित्त समझने से करन करावनहार बाप स्वत: याद आता है। जब सेवाधारी कहते तो हम किस सेवा के निमित्त हैं। जैसे हॉस्पिटल में नर्सेज, अपनी नर्स की सेवा समझ ओबीडिएन्ट हो सेवा करती हैं, वैसे हम किस चीज़ की सेवाधारी हैं। अगर सोचते हम दूसरे को संदेश देने वाले सेवाधारी हैं, ऐसा समझने वाले दूसरे को संदेश पहुंचा देते लेकिन स्वयं को भूल जाते। हम स्व के भी संदेशी हैं, स्व के भी सेवाधारी हैं, यह भूल सिर्फ दूसरों के सन्देशी बन जाते हैं। बाबा ने कहा तुम मेरे मददगार हो, सृष्टि को पावन बनाने में। तो जो दूसरे को पावन बनायेगा वह खुद भी पावन रहेगा या खुद पतित दूसरों को पावन बनने का संदेश देगा? ब्रह्माकुमार-कुमारी माना पावन बाप के पावन बच्चे, पावन बनाने वाले। तो खुद ही खुद से पूछो – मेरा मन्सा-वाचा-कर्मणा पावन हैं? ऐसे नहीं कर्मणा में तो हैं लेकिन मन्सा में नहीं… बाबा ने पूरा ही छोडऩे को कहा है, एक को नहीं। ऐसे नहीं लोभ छोड़ो, मोह भले रखो। अन्त का मंत्र है स्मृर्तिलब्ध: नष्टोमोहा। जब तक ये मन्त्र प्रैक्टिकल में नहीं तब तक दूसरों की क्या सेवा करेंगे! हरेक पहले यह सवाल पूछें कि बाबा ने मुझे मंत्र दिया है स्मृर्तिलब्ध:, तो मैं हूँ? मेरी यह स्थिति बाबा के डायरेक्शन के अनुसार है या मैं इस स्थिति से बहुत दूर हूँ? स्मृति माना बाबा याद आ गया। नष्टोमोहा माना विजयन्ती। मैं अगर सबको पावन बनाने वाली बाप समान सर्वेन्ट हूँ तो मैं नष्टोमोहा स्मृति स्वरूप हूँ या कहीं बुद्धि जाती है? कई कहते हैं मेरी वृत्ति जाती है। मैं पूछती जबसे ब्रह्माकुमार-कुमारी बने तो क्या उस दिन से यह संकल्प भी उठा कि मैं जाकर शराब टेस्ट करूँ। उसमें वृत्ति क्यों नहीं गयी? कभी ऐसी वृत्ति गई कि मैं मलेच्छों का खाना खाकर देखूं कि इसका क्या टेस्ट है? कोई की भी वृत्ति में यह स्वप्न तक भी आया? क्या ये अन्दर में आता कि होटल में जाकर 12 बजे तक डांस तो करके देखें। क्यों नहीं गये? संग में आकर किसी ने डांस आदि जाकर किया हो तो हाथ उठाओ। जब यह इच्छायें नहीं उठती फिर ये इच्छा क्यों उठती कि फलानी की देह में मेरी बुद्धि जाती! मुझे माया के तूफान आते! इसमें क्यों कहते मेरी वृत्ति जाती है? जब वह वृत्ति नहीं उठती तो यह क्यों उठती है? माया के कोई भी तूफान तब आते हैं जब अपने को सर्वेन्ट नहीं समझते। अगर हम विश्व को पावन बनाने के निमित्त सर्वेन्ट हैं तो क्या मेरी वृत्ति जा सकती है! अगर जाती है तो मैं ओबीडिएन्ट हुई? जब बाबा ने कह दिया कि तुम बच्चे इस दुनिया से मर गये, मैं महाकाल आया हूँ तुमको घर ले जाने, धुन है घर जाने की, यही धुन रहे तो वृत्ति जा नहीं सकती। कहते हैं मैं चाहता हूँ मेरी वृत्ति न जाए – लेकिन चली जाती है। मैं कहती तुम चाहते हो तो वृत्ति जाती है। नहीं तो मेरी धुन है – मेरा बाबा, वृत्ति में है घर फिर वृत्ति कैसे जा सकती है। जिसे धुन लगी हुई है वही ओबीडिएन्ट है। वही मन्सा, वाचा,कर्मणा सेवाधारी रह सकता है। वह अपनी वृत्ति, दृष्टि, कर्म सबसे इस विश्व को स्वर्ग बनायेगा। इसी धुन में रहने वाले की वृत्ति कहाँ भी जा नहीं सकती। कोई कहे मोह नहीं टूटता तो कहो हे बाबा मैंने नष्टोमोहा का मन्त्र नहीं पढ़ा है… कहते हैं देहधारियों में वृत्ति जाती है, मेरा सवाल उठता क्यों? आप कहते हम कोशिश करते, मैं कहती तुम ओबीडिएन्ट नहीं। आप कहते हम पुरूषार्थ करते, मैं कहती तुम कुछ नहीं करते। निश्चय बुद्धि ही नहीं हो। पूरा निश्चयबुद्धि कब बनेंगे? क्या मरने के बाद? निश्चयबुद्धि विजयन्ती अभी की बात है या बाद की? क्या बाबा के यह बोल रॉन्ग हैं कि बच्चे निश्चयबुद्धि विजयी। अगर नहीं तो कम्पलीट विजयी बनकर दिखाओ। अगर मैं किसी में अटैच होऊंगी तो क्या दूसरे को पावन बना सकूँगी! खुद फंसा हुआ दूसरे को फांसी से कैसे छुड़ायेगा। जब न्यूज़ सुनते कि फलाने को फांसी की सजा मिली तो ख्याल आता फांसी! लेकिन जब खुद कहते मेरे से यह विकार जाता नहीं, वृत्ति जाती नहीं तो यह भी तो फांसी कीसजा है। फांसी के तख्ते पर लटके हुए हो। अगर आज फांसी के तख्ते से उतर बापदादा के दिल तख्त पर नहीं बैठे तो फिर कब बैठेंगे! मैं तो कहती हूँ – माया तू मेरे पास क्यों नहीं आती! मुझे भी तो कुछ अनुभव करा। मैं तो माया को चैलेन्ज करती हूँ, मैं अपने बाबा की हूँ, मैं दुनिया की थोड़े ही हूँ। आप दुनिया को देखते हो तो वह ऐसे ऐसे करती है। हमारे पास दुनिया को देखने के लिए आँखे हैं ही नहीं। बाबा ने हमारा तीसरा नेत्र खोल दिया। देहधारियों को देखने वाला नेत्र ही नहीं है। अगर अपने को ओबीडिएन्ट समझते तो इसमें ओबीडिएन्ट बनो। ओबीडिएन्ट माना आज्ञा पालन करने वला फेथफुल। मैं अगर ओबीडिएन्ट हूँ तो बाबा के डायरेक् शन के खिलाफ यह सब मेरी गलतियां क्यों होती। जब हम सर्वेन्ट है तो सेठ की बात क्यों नहीं मानते। जब सेठ से बुद्धि हट जाती तो भाव स्वभाव में आकर झगड़ा करते। बाबा कहता बच्चे निर्मान बनो, नम्र बनो और हम होते गर्म। तो क्या मैं ओबीडिएन्ट हुई! हमें तो बहुत बहुत मीठा बनना है। कई ऐसे भी है जो अनुमान की दुनिया बनाकर बैठते हैं। भूख होती है मान की, फिर बातें दूसरों की अनुजैसी निकालते रहते। फलाना ऐसा है, फलाना ऐसा बोलता, कई बार मिसअन्डरस्टैंडिंग में अनुमान का शिकार हो जाते हैं। अनुमान की बीमारी कईयों को शिकार कर मार देती है। अन्दर समझते फलाने ने मुझे इस नज़र से देखा, वह मेरे लिए ऐसा सोचता… मैं तो ऐसे इज्जत से चलने वाला हूँ। मुझे यह ऐसा कहते, फिर जाकर घर में बैठ जायेंगे, तो शिकार हो गये ना। मुरली में तो बाबा ने ऐसे कभी नहीं कहा कि तू जाकर घर बैठ जाओ। मिसअन्डरस्टैन्ड में मिस हो जाते। अरे तुम कुमार कुमारी रहो, मिस क्यों बनते! बाबा ने हमें सीढ़ी उतरने से बचा लिया, अकेला हूँ, अकेले का हूँ, न कोई दुश्मन है, न किसी से द्वेष है। हम कितने लकी हैं, एक े हैं, एक हैं, अपने लक की महिमा करो। मुझे बचा लिया बाबा ने… फिर क्यों कहते वृत्ति जाती? आज यह संस्कार नक्की लेक में डुबोकर जाओ। इन्हें दूध पिलाकर मोटा नहीं करना। इन्हें समाप्त करके जाओ। बुद्धि में दृढ़ता हो कि हम किसके हैं तो माया आ न हीं सकती। आप उनका स्वागत क्यों करते हो? दरवाजा क्यों खोलते! स्वागत करेंगे तो मार डालेगी। हमारा जन्म बदला, हमारा नाम, धर्म, कुल, कर्म, सम्बन्ध सबकुछ बदल गया। हम सारी दुनिया से बदल गये, हम इस दुनिया को देखें ही नहीं।