दृष्टि, वृत्ति और व्यवहार

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मनुष्य के व्यवहार का उसकी दृष्टि और वृत्ति से गहरा सम्बन्ध है। मनुष्य की जैसी दृष्टि हो वैसी उसकी वृत्ति बनती है और जैसी वृत्ति हो उसी के अनुसार ही उसका व्यवहार होता है। क्रमहात्माञ्ज वही होता है जिसकी दृष्टि और वृत्ति महान् हो। जिसकी दृष्टि अवगुणों या दुर्गुणों पर जाती है, उसकी प्राय: घृणा की वृत्ति हो जाती है। इससे स्वयं उसकी अपनी वृत्ति परिवर्तन होने से वो दु:खी एवं अशान्त रहता है। वह दूसरों की कटु आलोचना करता है और लोगों मेें उसकी भरपूर निन्दा करता है। उसके गुण उसे देखने में नहीं आते और यदि आये तो भी उसे वो अवगुण की पुट दे देता है। इस प्रकार, अनेकों के प्रति दृष्टि विकृत होने से उसका अपना व्यवहार और अपना जीवन विकृत हो जाता है। जैसे दृष्टि का प्रभाव वृत्ति पर पड़ता है, वैसे ही वृत्ति भी दृष्टि को प्र्रभावित करती है। अगर मनुष्य की वृत्ति सतोगुणी है तो उसकी दृष्टि भी तदानुसार सतोगुणी होती है और उसका व्यवहार भी क्षमाशील, गुणग्राही, निर्दोष और कल्याण की भावना से ओत-प्रोत होता है।

वृत्तियों का निरोध करके जड़-जैसी अवस्था में चले जाना कोई श्रेष्ठ पुरुषार्थ नहीं
दृष्टि और वृत्ति के बारे में ऊपर हमने एक-दूसरे को प्रभावित करने वाली क्रिया और प्रतिक्रिया का जो संकेत किया है और उसके परिणामस्वरुप मनुष्य के व्यवहार, जीवन और कर्मों पर तथा मानसिक शान्ति एवं आन्तरिक सुख के साथ उसका जो सम्बन्ध स्पष्ट किया है, वो शाश्वत सत्य है। वह संसार के सभी व्यक्तियों पर सदा लागू होता है। इसलिए इसके बारे में सावधान रहने की आवश्यकता है। इस पर ध्यान न देने के परिणामस्वरुप दिनोंदिन मनुष्य का जीवन गिरावट की ओर जाता है। इस सत्यता पर धार्मिक ग्रंथों में इतना बल दिया गया है कि कुछ मनीषियों ने तो योग की व्याख्या करते हुए यह कह दिया है कि ”योग चित्त की वृत्तियों के निरोध का नाम है”। यद्यपि सब वृत्तियों का निरोध करके जड़-जैसी अवस्था में चले जाना कोई श्रेष्ठ पुरुषार्थ नहीं है, न ही इसकी कोई आवश्यकता है। परन्तु लगता है कि ऐसी विचारधारा वाले सन्तों ने यह सोचा होगा कि हर एक वृत्ति में कुछ न कुछ दोष होता ही है। उन्होंने अपने जीवन में अनुभव किया होगा कि जाग्रत अथवा सुषुप्त अवस्था में ऐसा कोई काल होता ही नहीं जब मनुष्य की वृत्ति पूर्णत: निर्दोष हो, पवित्र हो एवं किसी न किसी विकार के सूक्ष्मातिसूक्ष्म प्रभाव से रहित हो। प्राय: ही नहीं बल्कि लगभग सभी की मनोदशा बहुधा ऐसी रहती होगी। इसमें कुछ कम ज्य़ादा सत्यता तो है। परन्तु यदि मनुष्य देह-दृष्टि से ऊँचा उठ जाये और सबको आत्मा के रुप में देखे और सब आत्माओं को परमात्मा की सन्तान के रुप में स्वीकार करे और ”हरेक अपने कर्मों का फल भोगेगा, हम काहेे को चिन्तन करें” — इन बातों की सूझ-बूझ रखे तो फिर वो विदेह स्थिति में रहेगा। यद्यपि उसके पाँव पृथ्वी पर होंगे परन्तु उसका मन परमधाम में होगा। वो ‘पुरुष’ से ‘विराट पुरुष’ हो जायेगा। उसकी स्थिति ‘सहजयोगी’ जैसी होगी। उसका मन भ्रमित, विचलित, उत्तेजित या मूढ़ अवस्था में नहीं जायेगा। वे सदा ‘आनन्दकन्द’ मनोस्थिति का रसास्वादन करता रहेगा। उसके मन में सबके प्रति सदा सद्भावना बनी रहेगी। सबके साथ उसकी निरन्तर आत्मीयता होगी। भगवान उसका साथी होगा। जब वो स्वयं साक्षी होगा, दृष्टा होगा और उसका चित्त ज्ञान से छलकता होगा तो वह सदा हर्षित होगा।

बदलना आवश्यक है
कोई पुरुषार्थी सोच सकता है कि ये जो ऊँची-ऊँची बातें हैं, ये उनकी पहुँच से बाहर हैं और अभी तो वे उससे का$फी दूर हैं। कोई तो ये भी कहेंगे कि ये आदर्श हैं, ये व्यवहारिक नहीं हैं। वे यह जानना चाहेंगे कि वे ऐसी गगनचुम्बी अवस्था में अथवा स्थिति के शिखर पर कैसे पहुँचे, उनका मन जो बार-बार मैला हो जाता है, उस धूल-मिट्टी अथवा कचड़े-कीचड़ से कैसे बचे रहें? वे कहेंगे कि उनकी दृष्टि पर तो दूसरों के अवगुणों का चश्मा चढ़ा ही रहता है या उनके दुर्गुण उनकी आँख में धूल के कंकड़ की तरह चुभते ही रहते हैं। आखिर उनकी आँखें तो खुली रहनी हैं, तब उनकी दृष्टि कैसे निर्मल बनी रहे? उनकी वृत्ति अपने तथा दूसरों के दोषों से सदा विराम अवस्था में कैसे रहे? ये प्रश्न हरेक के लिए उपयोगी हैं। इनके पीछे दृष्टि और वृत्ति को बदलने की चेष्टा है। यह चेष्टा संकेत देती है कि उनकी पुरुषार्थ करने की नीयत तो है। ऐसे लोग उन लाखों-करोड़ों से अच्छे हैं जो अपनी दृष्टि-वृत्ति को बदलने की कामना ही नहीं करते। अपनी हालत खराब कर बैठने के बावजूद भी वे इस खराबी के स्वभाविक होने की बात करते हैं और तर्क-वितर्क से उसे युक्ति-संगत बताते हैं। ऐसे लोगों का बदलना तब तक असम्भव है जब तक उन्हें यह एहसास ही नहीं होता कि हमें स्वयं को बदलना चाहिए। आज बदलें या कल, बदलने के बिना कोई दूसरा रास्ता ही नहीं है। मन की गहराई से यदि हम बदलना स्वीकार नहीं करेंगे तो परिस्थितियाँ हमें बदलने पर मजबूर कर देंगी। तब भी यदि हम न बदले तो फिर हम स्वयं को मनुष्य की कोटि में न समझें।
कुत्ता एक ऐसा पशु है जिसकी पूँछ सदा टेढ़ी बनी रहती है। कहते हैं कि एक मनुष्य ने वर्षभर कुत्ते की पूँछ को लोहे की नली में सीधा कसकर रखा। उसने सोचा, एक वर्ष का$फी होता है, अब तो यह पूँछ सीधी हो गयी होगी। इस दौरान कुत्ता चिल्लाता भी था तो भी उसने उसकी पूँछ पर से नली नहीं हटायी। पर वर्षभर बाद जब हटायी, तब वो यह देखकर आश्चर्य चकित हुआ कि कुत्ते की पूँछ तो वैसी की वैसी टेढ़ी है! ऐसे ही कुछ लोग बदलना ही नहीं चाहते। उनके बारे में तो कहेंगे कि ‘अल्लाह ही खैर करे! खुदा हाफिज़, उन्हें खौफे खुदा ही नहीं है। जो धर्मराज से ही नहीं डरते, वे धर्मात्मा लोगों से कहाँ डरेंगे…!!!

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