लौकिकता में अलौकिकता हो… ये हमेशा ध्यान रहे…

0
154

ऋषि-मुनियों के लिए सुनते थे वो त्रिकालदर्शी थे। आज हम बाबा के बच्चे विचार करते हैं इस समय हम त्रिकालदर्शी हैं, तीसरा नेत्र खुला है तो त्रिकालदर्शी हैं, तो स्थिति कितनी ऊंची है। तीसरा नेत्र त्रिकालदर्शी बनाता है। त्रिकालदर्शी बनने से बहुत हल्के होते हैं। तभी तीनों लोकों की सैर करते हैं। ऐसा फील होता है जैसे यहीं कहीं एक स्थान से दूसरे स्थान पर जा रहे हैं। नैचुरल हो गया है। ऐसे ही तीनों लोकों में आना-जाना नैचुरल हो गया है। यहाँ संगम पर खुशी मना रहे हैं। ब्राह्मण जीवन है, सफल कर रहे हैं। सफल करेंगे तो सफलता मिलेगी। सफल करने के लिए दिल खुली रखेंगे, मन भी खुला रखेंगे तो सफलता मिलेगी। कर्म भी ऐसा हो जो दूसरे को प्रेरणा मिले। इसमें हमारी एक्यूरेसी हो। संकल्प एक्यूरेट होता है तो लक्की हैं। यदि संकल्प श्रेष्ठ नहीं होंगे तो आप समान नहीं बना सकते। आप समान बनाने की सेवा ऑर्डनरी सेवा नहीं है। मैसेज देना भी बड़ी सेवा है। परन्तु उससे भी बड़ी आप समान बनाने की सेवा है। आप समान माना अपने समान नहीं, क्योंकि हमारे में भी जो कमी होगी वह भी आ जायेगी। कमी जल्दी आ जायेगी, अच्छाई बाद में आयेगी। बाबा समान बनाना माना बाबा के नज़दीक आना। उसकी बुद्धि अच्छा काम करेगी। बाबा का अच्छा सर्विसएबुल बनेंगे। सर्वशक्तिवान से जुटे रहेंगे तो शक्ति आ जायेगी। अन्दर ध्यान रखना है कि हमारे सर्व सम्बन्ध भगवान से हों। और कहीं सम्बन्ध नहीं चला जाये।
बाबा से सर्व सम्बन्ध हैं तो यह शक्ति सर्व कमज़ोरियों को खत्म कर देती है। बाबा सर्वशक्तिवान है, ज्ञान का सागर, प्रेम, आनंद, शान्ति का सागर है लेकिन वह गुण मेरे में कैसे आयें, साथी में कैसे आयें? जब सर्व सम्बन्ध एक बाप से होंगे तभी वह गुण आयेंगे।
तो सूक्ष्म में हमारी भावना आप समान बनाने की क्या है? थोड़ा सेवा में मदद करे, क्लास करा ले, लिखाई-छपाई कर ले… वह तो जिसमें जो गुण-कला होगी वह करेगा। कर्मयोगी बनना है तो कर्म तो करना ही है। शरीर निर्वाह अर्थ भी करना है। लेकिन शरीर में जो आत्मा है उसकी सम्भाल भी करनी है। कर्मेन्द्रियों के द्वारा मेरी क्या सेवा है। कर्मेन्द्रियों के द्वारा आत्मा पतित से पावन बनती है। पतित भी बनी है तो कर्मेन्द्र्रियों के द्वारा बनी है। ऐसे पावन नहीं बनेगी। कर्मेन्द्रियों सहित जब इतने जन्म लिए हैं तो कर्मेन्द्रियों द्वारा जो कर्म किए हैं वो आत्मा के संस्कार बने हैं। फिर सम्बन्ध में, देह में आकर जो कर्म किये हैं वो कर्म भी पावन बनाना पड़ेगा। सम्बन्ध में भी हमारा कर्म बहुत अच्छा हो। खुद के साथ, औरों के साथ भी। अलौकिकता में लौकिकता न आ जाये – यह खबरदारी हमेशा रहे। लौकिकता में अलौकिकता हो।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें