हम सभी स्वतंत्र तो हो गये… क्या सम्पूर्ण स्वतंत्र हुए…!!!

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आज अगर हम किसी से यह पूछें कि ‘क्या भारत स्वतंत्र हो गया है?’ तो वह आश्चर्यचकित होकर हमें किन्हीं और निगाहों से देखने लगेगा। वह कहेगा, आश्चर्य है, आप ने यह कैसा प्रश्न किया है? आज सारा ज़माना इस बात को मानता है और भारत के हर गांव का हर अपठित व्यक्ति भी इस बात को जानता है कि भारत एक स्वतंत्र देश है। आप कैसे विचित्र व्यक्ति हैं कि भारत को स्वतंत्रता मिले 75 वर्षों के बाद भी यह प्रश्न पूछ रहे हैं? भाई, आपने किस रहस्य को मन में रखकर यह प्रश्न किया है? जिस रहस्य से हमने यह प्रश्न किया है, वह रहस्य ही तो जानने योग्य है। जैसे केले के पत्ते के नीचे और कई पत्ते छिपे होते हैं वैसे ही हमारे इस प्रश्न के पीछे और कई प्रश्न छिपे हुए हैं। यह तो ठीक है कि 15 अगस्त 1947 को अंग्रेजों से कानूनी तौर पर भारतवासियों को विदेशियों की हुकूमत से स्वतंत्रता मिल गयी परन्तु उससे क्या हुआ? देखना तो यह है कि जिसे सच्ची और सम्पूर्ण स्वतंत्रता कहते हैं, वह मिली या नहीं मिली? स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद हमने विदेशों से इतना ऋण लिया है जो कि हम शायद कभी चुका भी नहीं सकेंगे।
देश में बढ़ती हुई अराजकता, उच्छृंखलता और अनुशासनहीनता को देखकर तो बहुत लोग आज यह मानने लगे हैं कि हमने शायद स्वतंत्रता का गलत अर्थ समझ लिया है। जनता आज जिन्हें प्रतिनिधि चुनकर विधान सभाओं में भेजती है, स्वयं वे एक-दूसरे पर मुक्काबाजी करते, एक-दूसरे पर जूते फेंकते, कुर्सियां उठा-उठा कर एक-दूसरेपर फेंकते हैं। यदि इसी का नाम सम्पूर्ण और सच्ची स्वतंत्रता है तब तो हम निस्संदेह स्वतंत्र हो गये हैं। आज राजनीतिक तौर पर स्वतंत्र होने के बाद भी भारत को सच्ची स्वतंत्रता क्यों प्राप्त नहीं है? विचार करने पर आप इसी निर्णय पर पहुंचेंगे कि इसका एकमात्र कारण यह है कि मनुष्यों में चारित्रिक बल की, मनोबल की, बुद्धि बल की, नैतिक बल की और संगठन शक्ति की कमी है।
अत: अब भारत के पुनरूद्धार के लिए ईश्वरीय ज्ञान बल तथा सहज राजयोग बल की आवश्यकता है ताकि उनके विचार उच्च बनें, उनका जीवन सात्विक हो, उनका स्वभाव पवित्र बने और उनका आत्मबल बढ़े तथा विकर्मों की प्रवृत्ति सत्कर्मों की प्रवृत्ति में परिणत हो। आज लोगों ने धर्म से ध्यान हटाकर कर्म को ही प्रधानता दे दी है। उन्होंने परमार्थ को परे फेंक कर केवल व्यवहार को ही अपना लिया है। उन्होंने गृहस्थ को ‘आश्रमों’ से अलग मानकर, आश्रम अलग बना लिया है। उन्होंने ज्ञान और योग को सन्यासियों की चीज़ मानकर अज्ञान और भोग से जीवन को नष्ट करना ही अपना कर्तव्य मान लिया है। आज गृहस्थ की गाड़ी एक ऐसी गाड़ी बन गई है कि जो पुत्र-परिवार भार से भरी हुई है परन्तु जिसके ज्ञान और योग रूपी बाजू जडज़ड़ीभूत होकर टूटने की स्थिति में आ पहुंचे हैं और जिसमें कि परमार्थ रूपी घोड़ा उल्टा जुड़ा है। इसलिए यह गाड़ी चल नहीं रही है, यह सुख और शांति की ओर अथवा स्वर्ग तथा सुखधाम की ओर बढ़ नहीं रही है। सतयुग और त्रेतायुग में तो राजा-रानी और प्रजा के जीवन में ‘धर्म’ दिव्य गुणों की धारणा के रूप में मौजूद था। उस समय धर्म किन्हीं शास्त्रों में पढ़े जाने वाली, मंदिर या मठों में उपदेश की जाने वाली या पण्डितों से सीखी जाने वाली शिक्षा अथवा क्रिया के रूप में नहीं था। परन्तु वह हर नर-नारी के मन, वचन और कर्म में पवित्रता, सद्व्यवहार और सदाचार के रूप में मौजूद था। हम अंग्रेजों से स्वतंत्र होने के बाद धर्म के बंधन से भी स्वतंत्र हो गए।
अत: ‘परमार्थ निकेतन’ जो परमपिता परमात्मा शिव हैं वह भारतवासियों को सच्ची और सम्पूर्ण स्वतंत्रता देने के लिए अर्थात् मुक्ति और जीवनमुक्ति का वरदान देने के लिए पुन: इस भारत देश में अवतरित हुए हैं। प्रजापिता ब्रह्मा के साकार मानवी तन में प्रविष्ट होकर वह उनके मुखारविन्द द्वारा पुन: गीता-ज्ञान की मुरली बजा रहे हैं। वह ऐसा अमूल्य ज्ञान दे रहे हैं जिससे कि विकारों से तप्त आत्मा को शीतलता मिलती है, प्रकृति की परतंत्रता से पीडि़त आत्मा को शांति प्राप्त होती है। इस ईश्वरीय ज्ञानबल, सहज योगबल, अहिंसा बल तथा पवित्रता बल से ही भारत को सच्चे अर्थों में राजनीतिक, आर्थिक तथा आत्मिक स्वतंत्रता मिलेगी।

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