आज से पहले हम सभी ने जब भी किसी भी विषय पर बात की तो उस विषय में हमने कुछ मोटे रूपों की बात की, कि खुशी हमारी गायब क्यों हो जाती है। बीच-बीच में अपने आपको संभालना पड़ता है। आज उसके एक और पहलू की तरफ हम चलते हैं, और देखते हैं कि खुशी गायब क्यों होती है।
जब भी हम कोई कर्म करते हैं तो उस कर्म के पीछे हमारे चार प्रमुख कारण हैं- पहला या तो संस्कार, दूसरा या तो स्वभाव, तीसरा या तो दबाव, चौथा या तो प्रभाव। ये चारों शब्द अपने आपमें परिपूर्ण हैं। जो हमारे कर्म की सही व्याख्या करते हैं। आपको बताते हुए ये बिल्कुल भी नहीं लग रहा है कि ये चारों शब्द कैसे हम सबकी जि़ंदगी को बदल देते हैं। जैसे, जब भी आपने देखा होगा, कोई बात करता होगा तो कहता है आपको पता है ये मेरे संस्कारों में है। सुबह से लेकर शाम तक परिवार की या किसी और व्यक्ति या किसी और परम्परा को लेकर वो बात करता है। तो आप सोचो- हर कर्म के पीछे, जो वो कर्म करने जा रहा है उसमें उसका संस्कार आड़े आ रहा है, और वो संस्कार के वश कर्म कर रहा है। तो उस कर्म का बंधन तो बनेगा, क्योंकि वो संस्कार के वश है। माना जो बनाया गया है, जो उसने कभी न कभी बनाया है, तो वो कर्म करने के बाद थोड़े दिन में, वो संस्कार के वश है तो वो बिगड़ भी जायेगा। जो चीज़ बनाई जाती है वो बिगड़ जाती है ना! तो ऐसे ही संस्कार के वश हम कर्म करेंगे तो वो कर्म आज नहीं तो कल बिगड़ेगा पक्का, क्योंकि उसमें बंधन है, उसका बोझ है और वो बोझ आपको तंग करेगा और सभी को पसंद भी नहीं आयेगा क्योंकि वो आपके संस्कार के वश है। ऐसे ही हमारा कोई भी स्वभाव, कोई भी नेचर, आपको आपके हिसाब से कर्म करने के लिए विवश करेगा। वो भी आपने बनाया है।
ऐसे ही किसी का आपके ऊपर बहुत जबरदस्त प्रभाव है, और उस प्रभाव के कारण आप उसको फॉलो करने लग गये। तो उसमें आपका कोई एफर्ट नहीं है। वो जो भी कर्म हो रहा है, उस कर्म में एक बंधन है और वो बंधनयुक्त कर्म आपको तंग करेगा। क्योंकि कर्म करने के बाद व्यक्ति याद आयेगा, न कि आपको अपनी स्थिति याद आयेगी। और किसी के दबाव वश, किसी का प्रेशर लेकर किसी ने आपके ऊपर दबाव डाला कि आपको ये कर्म करना ही है, तो वो तो नैचुरल-सा है कि उसमें आपके अन्दर वो वाली बात तो आयेगी ही आयेगी। ये चारों चीज़ें हमारे कर्म को पूरी तरह से बांध देती हैं, इसको हम बंधन कहते हैं। और जो भी कर्म हमारे बंधन बनाता है उस कर्म से हमको कभी खुशी मिल नहीं सकती। इसीलिए खुशी गायब हो जाती है। हर कोई व्यक्ति नैचुरल ज़रूर है लेकिन नैचुरल का अर्थ ये वाली नेचर नहीं जो उसने बनाया है। संस्कार, संसार में आके, नैचुरल संस्कार है हमारा, आत्मा के सातों गुण जिसको हम कहते हैं शांति, गुण, पवित्रता, प्रेम, आनंद ये नैचुरल संस्कार हैं। ऐसे ही स्वभाव भी हमारा नैचुरल प्रेम और शांति का ही रहा है।
अब जो व्यक्ति हमेशा इस हिसाब से जिया हुआ है उसपर अगर थोड़ा भी दबाव, प्रभाव कुछ भी होगा तो व्यक्ति हमेशा असहज महसूस करेगा। उसको अच्छा नहीं लगेगा। इसीलिए हम खुश नहीं रह पाएंगे, जब तक इसको जीतेंगे नहीं।
जो भी मेरे साथ जुड़ा हुआ है, मेरा स्वभाव, मेरा संस्कार, वो मेरा मैंने खुद बनाया है, वो मेरी खुद की नेचर है। चाहे वो सबको अच्छा लगे या ना लगे, लेकिन हम उसके वश कर्म करते हैं और वो कर्म आपको सुख नहीं दे सकता। वो सुख तब देगा, वो खुशी तब देगा जब हम उसको नैचुरल संस्कार के साथ करेंगे। इसलिए हमारा नैचुरल संस्कार क्या है, शांति, प्रेम, पवित्रता, इसके वश करके देखो, आपकी खुशी कभी गायब हो नहीं सकती। ये है फॉर्मूला अपनी खुशी को हमेशा बरकरार रखने का।