मुख पृष्ठदादी जीदादी प्रकाशमणि जीमरजीवा बनना माना सब कुछ दान कर देना…

मरजीवा बनना माना सब कुछ दान कर देना…

बाबा आया है हम बच्चों को जीते जी मरजीवा बनाने। मरजीवा बनने की विधि बाबा ने सुनाई है- दे दान तो छूटे ग्रहण। तो आज इस बात पर सभी विचार करो कि हमारा मरजीवा जन्म है। मरजीवा अर्थात् सब कुछ बाप को दान दे दिया। दान किया माना ग्रहण छूटा। यज्ञ में हमेशा दान किया जाता, दान करते तो मन-इच्छित फल मिलता है। तो कौन सा दान हमें इस यज्ञ में करना है? यह है अपने जीवन का दान। चाहे इसे जीवन शब्द कहो, चाहे तन-मन-धन कहो, चाहे स्वभाव-संस्कारों का दान कहो या देह सहित देह के सब सम्बन्धों का दान कहो। पिछला जो कुछ है उसका दान। दान माना दान। दान की भाषा बहुत बड़ी है। शब्द सिर्फदान है।
तो हरेक विचार करो कि क्या मेरी यह जीवन दान की हुई है या दान करना सोच रहे हैं? दान का अर्थ क्या है, इस पर एक राजा जनक की कहानी आती है, उनका दृष्टान्त देते हैं कि राजा ने अपना सब कुछ दान किया। लेकिन उनका वायदा था कि जब मैं घोड़े पर पांव रखँॅू, उस समय ही सब दान माना जाए, तो जनक ने जब एक पैर घोड़े पर रखा तो कहा यह सब तुम्हारा हो गया, उसी समय जब दूसरा पैर उठाने लगा तो अष्टावक्र ने कहा रुको? यह पांव क्यों उठाया? दूसरा पांव उठाने का संकल्प क्यों आया? यह तो सब तुमने दान कर दिया…. इसी प्रकार यह संकल्प के ऊपर कहानी है। तो हम सब बच्चे भी इस शिवबाबा के यज्ञ में मरजीवा बनने अथवा आहुति होने आये हैं, तो अपने से पूछें कि हम पूरी आहुति हुए हैं? या होने का सोच रहे हैं? यह बहुत गहरी बात है, क्योंकि सारे जीवन का यह पाठ है। मैं मरजीवा बना हँू अथवा मैं समर्पित हुआ हँू? अगर मैं कहूँ मेरी जीवन मरजीवा तो है ही, मैं पुरानी दुनिया से मर गई, बाबा की बन गई, तो बाबा पूछते तुम पूरी दान हो गई हो? अगर दान हो गये तो उसकी निशानी ग्रहण छूटा, यह भी कर्मों की गहन गति है।
जब आत्मा मरजीवा बन गई तो वह आत्मा किसी सम्बन्धी से, सम्पत्ति से, वस्तु से, वैभव से अपना ममत्च रख नहीं सकती, क्योंकि मरजीवा बनना अर्थात् सब कुछ दान होना। अगर ज़रा भी किसी में ममत्व है, बुद्धियोग जाता है तो क्या उसे दान हुआ कहेंगे? मिसाल, कई बार किसी को अपनी कोई बात का जि़द्द होता, मेरी बात राइट हो या रांग हो, परंतु यह मेरी बात माननी ही चाहिए, यह मेरी जि़द्द है। तो जहाँ जि़द्दी स्वभाव है क्या वहाँ आत्मिक स्थिति है? स्व की जि़द्द है माना देह-अभिमान है। देह-अभिमान है तो सत्य, असत्य की तुलना कर नहीं सकते। अगर यह रियलाइज़ करते हैं कि मेरे में जि़द्द का स्वभाव है तो दान क्यों नहीं करते? जि़द्द के अगेंस्ट है सरल बनना। सरल बनो तो जि़द्द खत्म हो जाता है। जि़द्द है तो श्रीमत का उल्लघंन होता। जब किसी बात का जि़द्द आता है तो सोचो यह श्रीमत है वा मनमत? जब मैं दान हो गई तो किसी भी बात की जि़द्द क्यों करती?
यह ज्ञान जितना ही सहज है उतना ही गुह्य है, अगर सदा श्रीमत को सामने रखो, बाबा को सामने रखो तो अपने स्वभाव का विस्तार समाप्त हो जाता है। जैसे भक्ति का विस्तार है ज्ञान, बिन्दु। हम सबसे भक्ति दूर हो गयी है, ऐसे पुराने सम्बन्ध का, स्वभावों का विस्तार दूर हुआ है? अगर हम श्रीमत को सामने लाते तो सब विस्तार दूर हो जाता, बिन्दु बन जाओ तो कोई विस्तार नहीं।

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