पिछले अंक में आपने पढ़ा कि स्पष्ट है कि ‘मन’ यहाँ स्वयं आत्मा ही के ध्यान, अवधान, मनन, चिन्तन इत्यादि की योग्यता एवं शक्ति है। अत: मन नाम को कोई प्रकृतिकृत पदार्थ आत्मा से भिन्न मानना, मन को न जानने ही के कारण है। अब आगे पढ़ेंगे…
इसी प्रकार, सुषुप्ति भी स्वयं आत्मा ही के इस इच्छा, संकल्प अथवा भावना का प्रतिफल है कि मैं संकल्प-प्रवाह को बन्द करूँ ताकि शरीर को विश्राम मिले। अत: सत्यता तो यह है कि सुषुप्ति की स्थिति ही इस रहस्य का प्रमाण है कि मन आत्मा से पृथक कोई वस्तु नहीं और खुली आँखों का दृष्टांत तो इस सत्यता को और ही पुष्टि देता है क्योंकि यदि मन(अथवा अन्त: करण) आत्मा से पृथक कोई सत्ता होती तब तो आँखों के खुले होने पर ‘देखने की क्रिया’ अवश्य होती रहती। अत: सिद्ध है कि मन आत्मा से अलग नहीं है।
क्या प्राणायाम की क्रिया मन का पृथक अस्तित्व सिद्ध नहीं करती?
कई लोग प्राणायाम इत्यादि क्रिया का उदाहरण देकर अपनी यह मान्यता सिद्ध करना चाहते हैं कि मन आत्मा से अलग है। प्राणायाम का अभ्यास मनुष्य मन के निरोध के लिए भी करते हैं। साधारण भाषा में प्राणायाम को क्रश्वास चढ़ानाञ्ज भी कह दिया जाता है। प्राणायाम द्वारा मन की चंचलता कुछ रुक जाने के कारण वे समझते हैं कि मन एक प्रकृति ही का पदार्थ है जिसकी चंचलता को प्राणों के नियंत्रण से रोका जा सकता है। परंतु सत्यता यह है कि श्वास रोकने से(प्राणायाम करने से) तो आत्मा स्वयं(अर्थात् संकल्प, विवेक, कल्पना, स्मृति) को व्यक्त करने के अयोग्य हो जाती है क्योंकि आत्मा और शरीर का सम्बन्ध ही ऐसा है कि आत्मा वायु द्वारा(जो कि स्नायु यानी नर्वस अथवा केन्द्रों के माध्यम से संवेदन करती है) इंद्रियों से काम लेती है। अत: प्राणायाम से संकल्पों का रूक जाना यह सिद्ध नहीं करता कि मन आत्मा से अलग कोई वस्तु है बल्कि इससे तो यह निष्कर्ष निकलता है कि आत्मा ही संकल्पमय भी है जोकि अपने संकल्प प्रवाह को रोकने का संकल्प करके, प्राणायाम द्वारा स्वयं को स्नायु-केन्द्रों अथवा इन्द्रियों से पृथक करने का प्रयास करती है। जब आत्मा का(वायु द्वारा) इन्द्रियों के साथ कुछ समय के लिए सम्बन्ध-विच्छेद हो जाता है तो संकल्प चले भी क्यों? संकल्प तो कुछ कर्म करने की भावना के कारण उठता है परन्तु प्राणायाम को उक्त अवस्था में तो आत्मा न कर्म करना चाहती है और न ही कर्म करने के योग्य होती है। पुन: उस श्वास का बाहर फेंकना भी सिद्ध करता है कि और कोई अनुभवशील, विचारवान, सत्ता(आत्मा) है जो ही संकल्पमय भी है।
क्या आत्मा मन-बुद्धि से परे नहीं?
कुछ विचारक कहते हैं कि क्रआत्मा को तो मन-बुद्धि से परे माना गया है। वे कहते हैं कि आत्मा का तो अनुभव ही तब होता है जब हम मन से परे चले जाते हैं।
आत्मा मन-बुद्धि से परे है— यह युक्ति तो एक दृष्टिकोण से ठीक है परन्तु इसका यह अर्थ नहीं जो मन को प्रकृतिकृत मानने वाले लोग लेते हैं। आत्मानुभूति के लिए हमें मन नाम के किसी सूक्ष्म, प्रकृतिकृत पदार्थ के पार नहीं जाना होता। बल्कि मन की चंचलता, विकल्पों अथवा अशुद्ध स्मृति का निरोध करना होता है। इसके लिए ध्यान, स्मृति और निश्चय को बाहर के पदार्थों से खींच कर निज स्वरूप अथवा परमात्मा के स्वरूप पर एकाग्र करना होता है। इसकी एकाग्रता का अर्थ मन से परे होना है।
इस उक्ति का एक और अर्थ भी है। आत्मा जब अशरीरी अवस्था में, इस जगत के पार निर्वाणधाम में होती है, वहाँ भी उसका मन(संकल्प, स्मृति, विवेक इत्यादि योग्यताएं) लीन होता है। उस स्वरूप-स्थित अवस्था में भी आत्मा को मन-बुद्धि से परे की(कर्मातीत, संकल्पातीत) अवस्था कहा जा सकता है। परन्तु उस अवस्था में भी मन, बुद्धि के लीन होने की जो बात यहाँ कही गई है उससे स्पष्ट है कि वे आत्मा से पृथक प्रकृतिकृत नहीं क्योंकि निर्वाण अवस्था में भी आत्मा निजसत्ता की स्मृति(अनुभव) में अर्थात् ‘मैं ‘- स्मृति में तो स्थित होती है।
अतएव आत्मानुभूति के लिए मन-बुद्धि से परे जाने का यही रहस्य है कि आत्मा इस निश्चय अथवा स्मृति में स्थित हो कि क्रक्रमैं आत्मा हूँ…।”
क्या सत्, रज, तम आदि गुणों से मन का प्रकृतिकृत होना सिद्ध नहीं होता?
लोग प्राय: समझते हैं कि सत्, रज, तम नाम के तीन गुण प्रकृतिकृत मन के गुण हैं। उनकी मान्यता है कि ये तीन गुण प्रकृति के होते हैं और कि यदि मनुष्य के स्वभाव में इनमें से कोई गुण प्रधान हैं तो उसका कारण यही है कि प्रकृतिकृत मन में वह गुण प्रधान हैं।
परन्तु सत्यता यह है कि ये तीनों गुण स्वयं आत्मा ही के हैं क्योंकि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है कि मन आत्मा से अलग नहीं और न ही प्रकृति का बना हुआ है।
सतयुग में मनुष्य देही-निश्चय-बुद्धि थे और सतोगुण प्रधान था। क्योंकि उस समय लोगों के मन, वचन, कर्म, शुद्ध, सत्य और पवित्र थे। त्रेतायुग में आत्मा-निश्चय की तथा दिव्य गुणों की पराकाष्ठा कुछ कम हुई और इसलिए सतोगुण भी अपनी सामान्य अवस्था तक उतर आया। इसी प्रकार कलियुग में लोग देह-अभिमानी और आसुरी लक्षणों वाले होने के कारण तमोगुणी हैं।
तो मालूम रहे कि सतोगुणी, रजोगुणी अथवा तमोगुणी, आत्मा ही को, उसके विचारों, भावनाओं तथा कर्मों के आधार पर कहा जाता है। जबकि जड़ वस्तु में संकल्प ही नहीं उठ सकता तो मन को प्रकृति का मानना और सत्, रज, तम आदि के गुण उसको देना महान भूल है।
सच्चाई तो यह है कि प्रत्येक युग में मनुष्यात्माओं की अवस्था(अथवा गुण) परिवर्तन के परिणाम स्वरूप ही प्रकृति में भी गुण-परिवर्तन होता है। सतयुग में प्रकृति में भी सतोगुण प्रधान होता है क्योंकि मनुष्यात्माएं मन, वचन, कर्म से सतोगुणी(अर्थात् सत्य, ज्ञान-गुण वाली) होती हैं। इसी प्रकार दूसरे युगों में भी प्रकृति में जो गुणप्रधान होता है, उसका कारण मनुष्यात्माओं का अपना ही गुण होता है।
यह रहस्य हम यहाँ एक उदाहरण द्वारा स्पष्ट करते हैं:—
अनुमान कीजिए कि हम एक ही प्रकार की भूमि में गन्ना, नींबू और मिर्च बोते हैं। अब आप देखेंगे कि यद्यपि भूमि की किस्म तो समान है तथापि प्रत्येक प्रकार का बीज पृथ्वी में अपने-अपने अनुसार ही परमाणु आकृष्ट करेगा अथवा उनमें परिवर्तन ला देगा। भूमि की मिट्टी न सारी मीठी है, न खट्टी। परन्तु बीज ही है जो अपने अनुसार भूमि के परमाणुओं में स्वाद विशेष ला देता है अथवा स्वाद विशेष ही के परमाणु अधिक मात्रा में आकृष्ट करता है। अब, जैसे बीज, जल, वायु और पृथ्वी तत्व को अपने अनुकूल कर लेते अथवा उसमें से अपने अनुकूल तत्व खिंच लेते हैं वैसे ही आत्माएं भी अपने गुणों के अनुसार प्रकृति में भी वैसे-वैसे गुण प्रधान करने के निमित्त बनती हैं।




