पतित पावन परमात्मा शिव है या जल गंगायें…!!

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स्वयं परमात्मा द्वारा स्थापित आदि सनातन देवी-देवता धर्म वंश के लोग जब पतित हो जाते हैं, मृत्यु के भी वशीभूत हो जाते हैं, और अन्यान्य दानव जातियों से भी बहुत पीडि़त हो जाते हैं और उनसे पराजित होते हैं, ऐसी करुणामय अवस्था में ज्ञान सागर भगवान शिव उन्हें दानवों से अधिक समर्थ बनाने के लिए, मृत्यु पर विजय दिलाने के लिए तथा उन्हें फिर से अमर-पद के योग्य बनाने के लिए ज्ञान रूपी अमृत देते हैं। परमात्मा ही ज्ञान रूपी क्षीर सागर है। मनुष्य आत्मायें अपने तन रूपी मंदिर में अचल स्थिति में रहकर जब उस ज्ञान का मंथन करती हैं तो उनके बुद्धि रूपी कलश में अमृत भरता है। पतित पावन परमात्मा शिव ज्ञान रूपी कलश कलियुग के अंत तथा सतयुग के आदि के संगम पर ही देते हैं। क्योंकि कलियुग के अंत में ही देवी-देवता धर्म के लोग पतित, पीडि़त, पराजित और मृत्यु से परतंत्र होते हैं। इसी कारण क्रसंगमञ्ज समय का विशेष महत्व है। क्योंकि उस समय ही मनुष्य को ज्ञान रूपी अमृत प्राप्त होता है। जिससे हम सभी प्रकार के दु:खों से छूट जाते हैं और सतयुगी अमर देवता बन जाते हैं। उसी पुण्यकारी तथा कल्याणकारी संगम की याद में ही गंगा-यमुना-सरस्वती के मिलाप के स्थान का नाम भी ‘संगम’ पड़ गया है। परंतु आज लोग सच्चे संगम के स्थान पर नदियों के संगम को ही अमरपद देने वाला मानने लगे हैं। ये सबसे बड़ी उनकी भूल है।
आज लोग समझते हैं कि राजा सगर के हज़ारों बच्चे श्राप से मूर्छित हो गये थे और उन्हेें फिर से जीवित करने के लिए तथा श्राप-मुक्त करने के लिए भगीरथ ने तपस्या की थी और तब शिवजी की कृपा से आकाश (स्वर्ग) से गंगा उतरी थी जिसके जल से सगर के बच्चे फिर जीवन को प्राप्त करके उठ खड़े हुए थे और यह भारत भूमि भी पवित्र हो गई थी।
परन्तु, विवेक द्वारा स्पष्ट है कि किसी भी नदी के जल द्वारा न तो पूर्व काल में मूर्छित अथवा मरे हुए व्यक्ति जीवित हो सकते हैं, न ही उस जल से उनके पाप धुल सकते हैं। पुनश्च, स्वर्ग से गंगा का इस धरा पर आना, शंकरजी का उसे अपनी जटाओं में धारण करना आदि-आदि बातें भी विवेक के विपरीत हैं। तब प्रश्न उठता है कि वास्तविकता क्या है?
ऊपर ‘संगम’ के बारे में कुछ रहस्य स्पष्ट करते हुए बताया गया है कि कलियुग के अन्त और सतयुग के आदि के संगम समय परमपिता परमात्मा शिव देवी-देवता धर्म-वंश के पतित मनुष्यों को पावन करने के लिए ज्ञानामृत का कलश प्रदान करते हैं। उसी ईश्वरीय ज्ञान के जैसे ‘अमृत’, ‘अंजन’ इत्यादि अनेक लाक्षणिक नाम हैं, वैसे ही ‘गंगा’ भी उसी ज्ञान ही का नाम है। परमपिता परमात्मा शिव प्रजापिता ब्रह्मा के मानवीय तन में प्रवेश करके(अवतरित होकर) ज्ञान गंगा प्रवाहित करते हैं। जैसे ज्ञान के अनेक नाम हैं, वैसे ही प्रजापिता ब्रह्मा के भी अनेक नाम हैं, जिनमें से एक नाम ‘भगीरथ’ इसलिए प्रसिद्ध होता है कि उसके शरीर रुपी रथ पर भगवान् शिव सवार होते हैं। प्रसिद्ध है कि ब्रह्माजी ने बहुत योग-तपस्या की थी। अत: आजकल ‘भगीरथ’ शब्द बहुत परिश्रम करने वाले अथवा तपस्या करने वाले अथवा असम्भव कार्य को सम्भव करने वाले व्यक्ति का भी वाचक है। तो आकाश से भी पार जो परमधाम अथवा परलोक है, वहाँ से ज्ञान सागर परमात्मा शिव ने अवतरित होकर प्रजापिता ब्रह्मा के मुख द्वारा जो ज्ञान गंगा प्रवाहित की, उससे ही पतित आत्माएं पावन हुई और स्वर्ग के सुखों के लिए अधिकारी हुई। इसलिए गंगा भी ‘पतित-पावनी’ के नाम से प्रसिद्ध है और परमपिता परमात्मा भी ‘पतित-पावन’ के नाम से प्रसिद्ध हैं परन्तु पतितों को पावन करने वाली गंगा तो ज्ञान-गंगा, न कि जल-गंगा।
फिर प्रजापिता ब्रह्मा की जो मानसी पुत्री (ब्रह्माकुमारी) सरस्वती थीं जिन्हों का ‘ज्ञान की देवी’ के रुप में गायन-पूजन भी चला आता है, उन्होंने तथा उनकी तरह ब्रह्मा की अन्यान्य मानसी कन्याओं ने इस ज्ञानामृत को अपने बुद्धि रुपी कलश में धारण करके दूसरों को भी इस द्वारा पावन किया। अत: वे भी पतित-पावनी सरस्वती, गंगा इत्यादि नामों से प्रसिद्ध हुई। उन्होंने भारत के अनेकानेक स्थानों पर जाकर ज्ञान-धारा से मनुष्यों को पवित्र किया और हीरे तुल्य बनाया। उन्हीं की पुण्य-स्मृति में भारत की इन नदियों के नाम गंगा, यमुना, सरस्वती इत्यादि हैं और चूंकि संगम काल ही में चैतन्य गंगा, सरस्वती इत्यादि कन्याओं-माताओं का परस्पर तथा परमपिता परमात्मा शिव से संगम हुआ था, इसलिए प्रयाग में इन नदियों के संगम-स्थान का भी आज भक्त लोग विशेष महत्त्व मानते हैं।
उपर्युक्त से स्पष्ट है कि जल की ये जो गंगा, यमुना आदि नदियाँ हैं, ये भले ही शरीर को तो पवित्र करती हैं और पर्वतों से अनेक प्रकार की वनस्पतियों, औषधियों, धातु-सत्त्वों इत्यादि को साथ बहा लाने के कारण इनके जल में कुछ शारीरिक रोग हरने की शक्ति भी हो सकती है परन्तु आत्मा के जो काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहंकार आदि रोग हैं अथवा इन विकारों के कारण आत्मा की जो अपवित्रता है, उनको परमपिता परमात्मा शिव ही के ज्ञान द्वारा हरा जा सकता है; इसीलिए ही परमात्मा शिव को ‘हरा’ अथवा (पतित-पावन) कहा जाता है और ज्ञान ही के बारे में गीता में कहा गया है कि— ”हे वत्स, संसार में पापों को हरने के लिए ज्ञान जैसी अन्य कोई वस्तु नहीं है।” पुनश्च, जिन सरस्वती, गंगा इत्यादि माताओं- कन्याओं द्वारा उस ज्ञान का प्रचार और प्रसार हुआ, जिनका आज तक भी नवरात्रों में बाल-वृद्ध सभी कुमारिकाओं के रुप में आमन्त्रित करके नमस्कार करते हैं पतित-पावनी तो वे चैतन्य गंगाएं ही थी।
अत: इन रहस्यों को समझकर आज हरेक मनुष्य को निर्णय करना चाहिए कि— ”पतित-पावन परमात्मा शिव ही हैं या यह जल-गंगा? क्या चैतन्य ज्ञान-गंगायें सरस्वती इत्यादि ही पतित पावनी थीं या यह जल-गंगायें पतित पावनी हैं? क्या कलियुग और सतयुग के आदि का संगम समय, कि परमात्मा का अवतरण होने के कारण सरस्वती आदि का परमात्मा के साथ मिलन(संगम) होता है, शुभकारी है या जल की नदियों का संगम अमर पद को देने वाला है? पुनश्च, क्या अमृत कोई पेेय तत्व है या ज्ञान ही पावनकारी और अमरपद के योग्य बनाने वाला होने के कारण ‘अमृतञ्ज है?” इन बातों का निर्णय करके मनुष्य को वास्तविक कुम्भ मनाना चाहिए क्योंकि अब संगम समय परमपिता परमात्मा शिव अवतरित होकर पुन: ज्ञानामृत का कलश दे रहे हैं, और प्रजापिता ब्रह्मा(भगीरथ) के पुरुषार्थ से चैतन्य गंगायें(ब्रह्मा की मानसी पुत्रियाँ) भी जन-जन को ज्ञान द्वारा पावन कर रही हैं।

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