ज्ञानी आत्मा का कर्तव्य है- इस अहम को पहचानना कि जीवन में अहंकार कहाँ-कहाँ तक कार्यरत है, फिर उसे निकालना। यदि ज्ञान-योग का पथिक इस सूक्ष्म अहंकार को नहीं परख पाता तो सतत् उसकी शक्तियों का ह्रास होता रहता है और उसका भविष्य गहन अंधकार में प्रवेश कर जाता है।
विश्वामित्र ने महर्षि वशिष्ठ को परास्त करने के लिए वर्षों तक कठोर तप किया। परन्तु वह महान तपस्वी ईश्वरीय शक्तियों से सम्पन्न न बन सका, उसने तपस्या के द्वारा अनेक अस्त्र-शस्त्र प्राप्त किए परन्तु वह बलवान न बन सका। राक्षस उसके यज्ञ में विघ्न डालते रहे वह उनका संहार न कर सका। इसका कारण क्या था? मनोवृत्ति में अहंकार का भाव, प्रतिद्वंदता का भाव, जिसने उसे निष्काम योगी नहीं बनने दिया। फलत: उसकी एकत्रित शक्तियां नष्ट होती रही, अनेक बार उसे हार मुंह देखना पड़ा। कहना असत्य होगा कि वह महान तपस्वी सफल नहीं हुआ।
स्वयं योगेश्वर भगवान द्वारा सिखाए गए राजयोग का अभ्यास करने वाला तपस्वी चाहे कितनी भी कठिन तपस्या करे, परन्तु यदि उसमें सूक्ष्म अपवित्रता की वृत्ति और बुद्धि का अहम नष्ट नहीं होता, तो ये दोनों ही कमज़ोरियां हमारी शक्तियों का क्षय द्वार बन जाती और अनेक बार मनुष्यात्मा स्वयं को माया से हारी हुई अनुभव करती है और समय पर निर्बल महसूस करती है। यहां हम बुद्धि के अहंकार को सूक्ष्मता से चेक करेंगे और उनका दर्पण बनाने का प्रयास भी करेंगे।
बुद्धि आत्मा की विवेक शक्ति है – बुद्धि विवेक शक्ति है, इसी के द्वारा संकल्प शक्ति पर नियंत्रण किया जाता है। योगाभ्यास में जब मनुष्य अशरीरी बनकर सर्वशक्तिवान से बुद्धि को जोड़ता है तो बुद्धि में शक्तियों का प्रवाह होने लगता है और बुद्धि शक्तिशाली हो जाती है। बुद्धि का शक्तिशाली बनना ही आत्मा का शक्तिशाली बनना है। परन्तु शक्तिशाली बुद्धि यदि दिव्य नहीं है तो मनुष्य अपनी बुद्धि का दुरुपयोग करने लगता है। और उसमें अहंकार प्रवेश कर लेता है। इससे बुद्धि कमज़ोर होने लगती है और मन पर अपना नियंत्रण खो देती है। फलस्वरूप मन स्वच्छंद हो जाता है जोकि अशान्ति और तनाव का कारण बनता है।
दिव्यबुद्धि ही दिव्य जीवन का निर्माण करती है – बुद्धि तो सभी के पास है, परन्तु कोई इसका प्रयोग जीवन को दिव्य बनाने में करता है और कोई उसमें अहंकार का समावेश कर अपने व दूसरों के जीवन में बाधाएं उत्पन्न कर देता है तो यह अहंकार ही पवित्र आत्माओं के जीवन में सबसे बड़ा रोड़ा है। अत: इस छिपे चोर को पहचानकर नष्ट कर देना चाहिए।
अहंकार से होता नुकसान – अहंकारी मनुष्य की बुद्धि का विकास नहीं होता है क्योंकि वह सदा ही इस नशे में रहता है कि मैं तो सब कुछ जानता हूँ उसमें सीखने की भावना नहीं रहती। फलत: उसकी बुद्धि का विकास रूक जाता है। वास्तव में सबकुछ जान लेने के बाद तो मनुष्य सम्पूर्ण हो जाता है। जब तक अपूर्णता है, मनुष्य को सीखने का द्वार खोलकर रखना चाहिए।
अहम मनुष्य को महान नहीं बनने देता – अहम मनुष्य की महानताओं में विष तुल्य है, अहम मनुष्य की महानताओं के चारों ओर मानों धुल की छत्रछाया लगा देता है। आज चारों ओर अनेक विद्वान और तपस्वी नज़र आते हैं, परन्तु अहम के कारण, समाज पर उनकी महानताओं की छाप नहीं पडऩे पाती। यही कारण है कि मनुष्य की आस्था उनमें कम होती जा रही है।
अहंकारी मनुष्य अयोग्य होते हुए प्रतिद्वंदी बनकर रहता है – प्रसिद्ध उदाहरण है महात्मा बुद्ध के साथ देवदत्त का। उसने जीवन भर महात्मा बुद्ध के साथ प्रतिद्वंदता की, संघ को तोड़ा। परन्तु आज महात्मा बुद्ध विश्व प्रख्यात है और देवदत्त को कोई याद भी नहीं करता। इस प्रतिद्वंदता में अहंकारी मनुष्य को सदा ही हार का मुंह देखना पड़ता है। अत: यह कहना उपयुक्त होगा है कि जहाँ अहंकार है, वहीं हार है।
अहंकारी मनुष्य को स्वप्न में भी सुख-शान्ति भासित नहीं होती – क्योंकि परस्पर टकराव का कारण बनता है। जब कभी लोग उसके अहंकार को ठेस पहुंचाते हैं तो वह आत्मसंयम खो बैठता है। फलस्वरूप वह जलता-भूनता रहता है और अपनी अमूल्य निधि सुख-शान्ति को जलाकर राख कर देता है।
अहंकारी मनुष्य का चित्त कभी स्थिर नहीं रहता – चाहे वो योगाभ्यास में कितने भी एकाग्रता से अभ्यास क्यों न करे, उसकी एकाग्रता हठपूर्वक तो हो सकती परन्तु ज्ञानबल से नहीं। क्योंकि गुह्य ज्ञान अहंकार रूपी बुद्धि से तत्काल ही फिसल जाता है। उसे सभी अल्पज्ञानी व अवगुणी नज़र आते हैं। ‘मैं ही सबकुछ हूँ’- यह आभास उसे सत्य की शक्ति का आभास नहीं होने देता है।
अहंकारी मनुष्य बहुत बातूनी होता है – क्योंकि वह हर जगह होशियारी दिखाने को आतुर रहता है। इस अभिमान के कारण उसे कई जगह अपमान भी देखना पड़ता है। इस प्रकार बाह्यमुखी योगी अपनी सूक्ष्म शक्तियों को नष्ट करता रहता है। और यही कारण है कि कोई भी अन्य व्यक्ति उसे योगी कहने को तैयार नहीं होता।
अहंकारी सभी का स्नेह और सहयोग खो देता है – अहंकारी स्वयं को अकेला ही पाता है। कोई भी उसके समीप नहीं जाना चाहता। वास्तव में अहंकार ही संगठन की शक्ति को तोड़ता है। फलत: कार्यक्षेत्र में कठिनाई बढ़ जाती है, छोटे-छोटे कार्यों में अत्यधिक शक्ति, जैसे- तन, मन और धन का व्यय होता है। यह एक अत्यंत सूक्ष्म सत्य है कि बुद्धि का अहंकार कई विघ्नों का कारण है तथा यह विघ्नों का आह्वान करने वाला भी है। इस सत्य को सूक्ष्मता से अनुभव करने की आवश्यकता है।
अत: अहंकारयुक्त मनुष्य अनेक बार स्वयं को विघ्नों से घिरा हुआ पाता है। परन्तु वह इसका कारण नहीं समझ पाता। इस अहंकार का दूसरा स्वरूप मैंपन भी है और यह मैंपन का बोझ ही मनुष्य को सरलचित्त होकर उडऩे नहीं देता।



