समाधान स्वरूप कैसे बनें?

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आप सुबह-सुबह उठे और आपने अपना दरवाजा खोला, सामने आपके कोई खड़ा है। आपने पूछा आप कौन? इसको थोड़ा-सा गहराई से सोचें कि सामने अब दरवाजा खटखटाने वाला कोई इंसान ही होगा, कोई व्यक्ति होगा, कोई जानवर तो नहीं होगा! लेकिन हमारे मुँह से ऐसे निकलता है जैसे हम ऐसे स्थान से हैं, ऐसे ग्रह से हैं, ऐसे प्लैनेट से हैं जैसे सामने कौन आ गया! भाई व्यक्ति ही तो है, लेकिन पहचान के कारण हम पूछते हैं। इससे एक बात सामने आ गई, गहराई वाली बड़ी बात है, समझने वाली बात है कि इसका मतलब व्यक्ति स्वयं को अगर पहचान जाये तो सामने वाला ऐसा प्रश्न नहीं पूछ सकता कि आप कौन? उसका लहज़ा बदल जायेगा, उसका तरीका बदल जायेगा वो पूछेगा कि हाँ जी बताइये ये भी तो हो सकता है! लेकिन सबसे बड़ी उलझन, एक सबसे बड़ी समस्या हमारे लिए है कि हम खुद को अगर इतना गहराई से पहचान जाते हैं तो कभी भी इतना व्यक्ति को पहचानने में देरी नहीं लगती।
आज व्यक्ति का मूल्य पूरी तरह से खत्म हो गया है। लोगों को लगता है व्यक्ति, व्यक्ति को नहीं पहचान रहा लेकिन एक उदाहरण आप ले लें जैसे किसी एरिया में आपको फ्लैट खरीदना है और आप जब जाकर उस फ्लैट का पता करते हैं कि कितने फ्लैट बिक गये हैं उसके अनुसार आप फ्लैट खरीदते हैं। तो इसका मतलब फ्लैट की वैल्यू है या व्यक्ति की वैल्यू है! अगर आपका ही एक फ्लैट हो और उसमें कोई नहीं रहता हो, तो क्या आप रह पायेंगे वहाँ पर? ये बात क्या सिद्ध कर रही है कि आज मनुष्य की कीमत पूरी तरह से घट गई, लेकिन अगर मनुष्य न हो तो फ्लैट की भी कीमत नहीं। क्योंकि उसमें रहने वाला ज्य़ादा मूल्यवान है। इसी तरह हमारे अन्दर एक शक्ति है जो बहुत मूल्यवान है। जो इस मकान के अन्दर रह रहा है। अगर वो निकल जायेगा तो इस शरीर की भी वैल्यू नहीं है। तो व्यक्ति का मतलब यहाँ जैसे खुद को इम्र्पोटन्स(महत्व) देने की बात है, खुद को समझने की बात है तो हम समस्या खुद का खुद से ही हैं। कोई दूसरा हमारे लिए समस्या नहीं बन रहा। सबसे पहले बात आती है कि हमारा जो समाज है, समाज में हरेक व्यक्ति का अपना एक दायरा है। और हर समय कोई भी ऐसा गार्डियन या कोई भी ऐसा आदर्श, या कोई ऐसा व्यक्ति आपके पास मौजूद नहीं होगा जिससे आप हर प्रश्न का उत्तर लेंगे, लेकिन प्रश्न का उत्तर अगर खुद से खुद में ढूंढा जाये तो शायद उससे बेहतर जवाब नहीं हो सकता। इसलिए सबसे पहले समस्या और सबसे पहले समाधान स्वयं का स्वयं से है कि जब हमारे प्रश्न उलझा देते हैं हमको,हमारे भाव अपने लिए बदल गये, परिस्थिति के लिए बदल गये, दुनिया के लिए बदल गये इसलिए शायद हमारे पास इतनी सारी समस्यायें हैं।
समस्या का मात्र एक कारण है वो है उलझन। कौन-सी उलझन, जितनी भी बाहर की आकर्षण हैं, बाहर की बातें हैं, प्रकृति के जो बन्धन हैं उनसे उलझन, उसमें उलझने के ही कारण आज हम समस्याओं में घिरे हैं। तो पहला समाधान ये कि सारी चीज़ें हमारे यूज़ के लिए, प्रयोग के लिए हैं, हमारे लिए प्रयोग करने के लिए हैं, फँसने के लिए नहीं हैं,

इससे हम आराम से बाहर निकल सकते हैं। दूसरा जो व्यक्ति जैसा होता है वो सामने वाले को वैसा बनाता है। तो हमारा पहला समाधान तो ये निकल गया कि हम सामान के बीच में हैं, सामानों को यूज़ भी कर रहे हैं और बिल्कुल फँस भी नहीं रहे हैं। तो समाधान तो शुरु हो गया। तो मैं समस्या पैदा करने वाला नहीं,समाधान पैदा करने वाला बन गया। अब मेरे सामने जो भी आयेगा चाहे वो जैसा भी हो, जिस भी फॉम में आये, जिस भी पद पॉजिशन से आये वो भी उसी उलझन से आया है जिस उलझन में हम लोगों को उलझा हुआ देख रहे हैं। जब वो आपके सामने आयेगा और आपको देखेगा कि आप कैसे इससे निजात पाके, पूरी तरह से सक्षम होके और पूरी तरह से सबके सामने उस अंदाज़ में जी रहे हैं जैसे कभी किसी ने सोचा भी नहीं होगा। तो ऐसे परमात्मा के बच्चे होने के बाद, समाधान स्वरूप होने के बाद सामने जो भी आयेगा वो आपको देखकर समाधान को ढूंढ लेगा। कहते हैं ना जैसा टीचर वैसा स्टूडेंट। तो अगर टीचर हरेक बात को अच्छी तरह से समझता है तो सामने वाले को अच्छा समझा सकता है। तो समाधान स्वरूप बनने का पहला और सबसे सुन्दर स्टैप(कदम) है खुद पर इतना काम करो,इतना काम करो कि आपको शरीर की समझ आ जाये, शरीर से सम्बन्धित चीज़ों की समझ आ जाये, बाहरी दुनिया की समझ आ जाये, चारों तरफ घटने वाली घटनाओं की समझ आ जाये। इतनी समझ आ जाये कि आपको समझ के कारण आपके वायब्रेशन ही सामने वाले को ठीक कर देंगे। तो इस तरह से आप अपने आप को जोड़ सकते हैं, देख सकते हैं और दूसरों को इसी हिसाब से दे भी सकते हैं।
इसका दूसरा एक बहुत ही सुन्दर उम्दा(बेहतरीन) कारण जो हमको लगता है, हो सकता है ये आपका कारण भी हो लेकिन ये हमारा खुद का निजी अनुभव है कि जितने भी आज तक शास्त्रों में बातें लिखी गईं या चारों तरफ हम जो पढ़ते या सुनते हैं उन सभी बातों में एक बात कॉमन-सी है वो कॉमन बात है कि ये सब तो नैचुरल है। सबकुछ सामान्य है।
दु:ख-सुख तो मनुष्य की नेचर है। ऐसा नहीं है। अगर हमारी नेचर दु:ख लेने की होती ना तो हम कभी भी सुख के आने पर इतने खुश नहीं होते और दु:ख के आने पर इतने दु:खी नहीं होते। इसलिए मनुष्य की सोच के दायरे को भी तोडऩा है। उसको हमें वो देना है जो हम समझते हैं। ये है समाधान स्वरूप बनने का मतलब। जो लोगों के अनुभव हैं वो अनुभव सही नहीं हैं। इस अनुभव को अपने अन्दर डालना तो कैसे आता है जब हमारा पूरा वायब्रेशन बदल जायेगा। तो हमारे एक-एक संकल्प से समाधान निकलेगा। हम सारे जितनी भी मान्यतायें हैं, जितनी भी धारणायें हैं उनको समझके तोड़ते जायेंगे तो समाधान स्वरूप बनते जायेंगे। और वो समाधान स्वरूप बनने में हो सकता है थोड़ा टाइम लगे, लेकिन जब आप बनेंगे तो एकदम परफेक्ट बनेंगे। फिर उसमें कम या ज्य़ादा कुछ नहीं होगा,एकदम परफेक्ट होगा। तो इस तरह समाधान स्वरूप खुद भी बनें और औरों को भी बनायें। और ये आपके रियल नेचर में शामिल हो जायेगा।

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