प्रजापिता ब्रह्माबाबा के जीवन से प्रेरित आध्यात्मिक पुरुषार्थ के तीन स्तम्भ निराकारी, निर्विकारी और निरहंकारी। उन्होंने इन तीनों अवस्थाओं को सूक्ष्म रूप से सिर्फ समझा ही नहीं, बल्कि उसे अपने जीवन का अंग भी बनाया और यूं कहें कि वैसा ही जीया। ये तीन सिर्फ शब्द ही नहीं, बल्कि जीवन को दिव्यता की ओर ले जाने वाला अहम् पुरुषार्थ है। आइये समझते हैं इन तीनों को विस्तार से…
निराकारी स्थिति-आत्मा की मूल पहचान का अनुभव निराकारी स्थिति का अर्थ है- देह-चेतना (देहभान) से मुक्त होकर आत्मा की स्मृति में स्थित रहना। प्रजापिता ब्रह्माबाबा ने अपने जीवन द्वारा सिखाया कि जब मनुष्य ”मैं शरीर नहीं, एक ज्योति बिन्दु आत्मा हूँ” इस स्मृति में स्थित होता है, तो मन, वाणी और कर्म में सहज शान्ति और स्थिरता आ जाती है। पुरुषार्थी जीवन में यह स्थिति सबसे आधारभूत है, क्योंकि इससे मन के विचार शान्त होते हैं और आत्मा परमात्मा से जुड़ पाती है। निराकारी बनने के लिए नियमित अमृतवेला योग, मौन का अभ्यास एवं दिनभर में ”मैं आत्मा हूँ” की स्मृति को पुन: जागृत करना आवश्यक है। बीच-बीच में यह अभ्यास करते रहना है। जब यह स्थिति पक्की होती है तो व्यक्ति परिस्थितियों में भी शान्त और समाधान युक्त होता है- यही सच्ची योगयुक्त स्थिति है।
निर्विकारी स्थिति- आत्मा की पवित्रता और श्रेष्ठ दृष्टिकोण निर्विकारी स्थिति का सम्बन्ध हमारी दृष्टि, वृत्ति और व्यवहार से है। जब मनुष्य विकारों (काम, क्रोध, लोभ, मोह व अहंकार) से ऊपर उठता है, तब आत्मा की मौलिक व वास्तविक पवित्रता प्रकट होती है। ब्रह्माबाबा का जीवन इस स्थिति का श्रेष्ठ उदाहरण है- उन्होंने जीवन के प्रत्येक सम्बन्ध को आत्मिक दृष्टि से देखा, सभी के प्रति आत्मिक भाव और शुभ भाव रखा। पुरुषार्थी जीवन में निर्विकारी स्थिति बनाए रखने के लिए संग की मर्यादा, विचारों की स्वच्छता और दृष्टि में आत्मिकता रखना आवश्यक है। निर्विकारिता का अर्थ केवल ब्रह्मचर्य नहीं, बल्कि विचार, शब्द और कर्म तीनों में पवित्रता है। इससे आत्मा की शक्ति और दिव्यता बढ़ती है। जब दृष्टि विकारी नहीं होती तब संसार भी सुंदर प्रतीत होता है- क्योंकि दृष्टिकोण ही हमारी दुनिया को बनाता है।
निरहंकारी स्थिति- सच्ची ईश्वरीय सेवा की पहचान निरहंकारी स्थिति पुरुषोत्तम बनाने की सबसे ऊंची अवस्था है। ब्रह्माबाबा ने सिखाया कि ”मैं कुछ नहीं, सबकुछ शिवबाबा है।” यही निरहंकारी भावना ईश्वरीय यज्ञ की सफलता का मूल कारण बनी। पुरुषार्थी जीवन में जब हम सेवा करते हैं तो अहंकार का सूक्ष्म रूप- जैसे ”मैंने किया, मेरे बिना नहीं हो सकता”- धीरे-धीरे आ जाता है। अत: सावधानी यही है कि सदा स्वयं को साधन और शिवबाबा को कर्ता समझें। निरहंकारी रहने के लिए कृतज्ञता, नम्रता और स्वीकार्यता की भावना रखनी चाहिए। किसी भी सफलता पर ”यह शिवबाबा की कृपा है” यह भाव रखें। जब आत्मा इस विनम्रता में रहती है तब ही परमात्मा की शक्ति सहज रूप से उसमें कार्य करती है। यही स्थिति व्यक्ति को पुरुषोत्तम अर्थात् श्रेष्ठ कर्मयोगी बनाती है। निराकारी आत्मा की स्मृति, निर्विकारी दृष्टि की पवित्रता और निरहंकारी सेवा को संयोजन ही ब्रह्माबाबा का सम्पूर्ण जीवन का संदेश है। तीनों अवस्थाओं का अभ्यास करते हुए मनुष्य अपनी चेतना को देह-चेतना से देव-चेतना में परिवर्तित कर सकता है। यही वह मार्ग है जिसे आत्मा, परमात्मा समान बनती है व जीवन सच्चे अर्थों में क्रक्रस्वर्ग समानञ्जञ्ज अनुभव होता है।




